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किया है। इस काव्य का प्रारंभ ग्रीष्म की प्रचंडता के वर्णन से हुआ है और समाप्ति हुई है वसंत ऋतु की मादकता से इसके प्रत्येक सर्ग में 16 से 28 तक की श्लोकसंख्या प्राप्त होती है। इस काव्य की भाषा अत्यंत सरल और सुबोध है। वत्सभट्टि के ग्रंथ में ऋतुसंहार के 2 श्लोक उद्धृत हैं तथा उन्होंने इसकी उपमाएं भी ग्रहण की हैं। इससे इस काव्य की प्राचीनता सिद्ध होती है। षड्ऋतुओं के वर्णन में कालिदास ने केवल निसर्ग के बाह्य रूप का सूक्ष्म निरीक्षण के साथ चित्रण किया है। ऋषभपंचाशिका -ले- धनपाल। ई. 10 वीं शती। एकदिनप्रबन्ध -ले.- अलूरि कुलोत्पन्न सूर्यनारायण।। माता-ज्ञानाम्बा। पिता-यज्ञेश्वर । यह चार सों का प्रबन्ध एक ही दिन में लिखा गया, यह इसकी विशेषता मान कर ग्रंथ को नाम दिया गया है। एकवर्णार्थ संग्रह - ले. भरत मल्लिक । ई. 17 वीं शती। एकवीरोपाख्यान -ले- चारुचन्द्र रायचौधुरी। ई. 19-20 वीं शती। यह उपन्यास सदृश उपाख्यान है। एकालोकशास्त्रम् - ले- नागार्जुन। चीनी भाषा में उपलब्ध । एच.आर.रंगस्वामी का चीनी से अनुवाद मैसूर से 1927 में प्रकाशित हुआ। इस में यथार्थ सत्ता (स्वभाव) तथा अयथार्थ सत्ता (अभाव) के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व नहीं यह सिद्ध करने का प्रयास है। एकाक्षरकोश - पुरुषोत्तम । ई. 12 वीं शती। एकाक्षर-गणपति-कल्प - श्लोक 300। इसमें चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धि के लिए गणेश के मन्त्रों से होम और जल, दुग्ध, इक्षुरस और धी से चतुर्विध तर्पणों का प्रतिपादन है तथा यन्त्र लिखने की विधि भी वर्णित है। एकाक्षरोपनिषद् - एकाक्षर ब्रह्म का वर्णन करने वाला एक गौण उपनिषद। इस उपनिषद् में एकाक्षर तत्त्व का उल्लेख पुल्लिंग में है। एकाक्षर याने ओंकार। यद्यापि इसका उल्लेख इसमें नहीं, फिर भी हृदय की गहराई में वास्तव्य करने वाला इस विशेषण से उसका ज्ञान होता है। एकादशीनिर्णय - ले- शंकरभट्ट, ई. 17 वीं शती। विषयधर्मशास्त्र। एकान्तवासी योगी - ले- अनन्ताचार्य । प्रतिवादि भयंकर मंठ के अधिपति। गोल्डस्मिथ के 'हरमिट्' काव्य का अनुवाद। एकावली - ले. विद्याधर। इस में काव्यशास्त्र के दंशागों * का वर्णन है। इस ग्रंथ के समस्त उदाहरण स्वयं विद्याधर द्वारा रचित हैं जो उत्कल-नरेश नरसिंह की प्रशस्ति में लिखे गए हैं। 'एकावली' में 8 उन्मेष हैं और ग्रंथ 3 भागों मे रचित हैं- कारिका, वृत्ति व उदाहरण। तीनों ही भागों के रचयिता विद्याधर है। इसके प्रथम उन्मेष में काव्य के स्वरूप,
द्वितीय में वृत्ति-विचार, तृतीय में ध्वनि एवं चतुर्थ में गुणीभूतव्यंग का वर्णन है। पंचम उन्मेष में गुण व रीति, षष्ठ में दोष, सप्तम में शब्दालंकार एवं अष्टम में अर्थालंकार वर्णित हैं। प्रस्तुत ग्रंथ पर 'ध्वन्यालोक', 'काव्यप्रकाश' व 'अलंकारसर्वस्व' का पूर्ण प्रभाव है। अलंकार-विवेचन पर रुय्यक का ऋण अधिक है और परिणाम उल्लेख, विचित्र एवं विकल्प-अलंकारों के लक्षण 'अलंकार-सर्वस्व' से ही उद्धृत कर दिये गए हैं। इस ग्रंथ में अलंकारों का वर्गीकरण रुय्यक से प्रभावित है। ग्रंथरचना का उद्देश्य भी विद्याधर ने प्रकट किया है। (1/46) इसका, श्रीत्रिवेदी रचित भूमिका व टिप्पणी के साथ, प्रकाशन मुंबई संस्कृत सीरीज से हुआ है। इस पर मल्लिनाथ ने 'सरला' नामक टीका लिखी है। एकीभावस्तोत्रम् - ले- वादिराज। जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती का पूर्वार्ध। एडवर्ड-राज्याभिषेक-दरबारम् - ले- शिवराम पाण्डे । प्रयागवासी। रचना- 1903 में। एडवर्डवंश - ई. 1905 उर्वीदत्त शास्त्री। लखनऊ निवासी। एडवर्डशोक-प्रकाशः - ले- शिवराम पाण्डे। प्रयागवासी। ई. 19101 एनल्स ऑफ दि भाण्डाकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट - सन 1918 में पुणे से यह पाण्मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई। पत्रिका में अंग्रेजी और संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। ऐकेय शाखा - कृष्ण यजुर्वेद की एक नामशेष शाखा। ऐतरेय आरण्यक - यह ऋग्वेद का आरण्यक है। इसके भाग पांच और अध्यायों की संख्या अठारह हैं। पहिले में पांच, दूसरे में सात, तीसरे में दो, चौथे में एक एवं पाचवें में तीन अध्याय हैं। अध्यायों का विभाजन खंडों में है। __ यह आरण्यक ऐ. ब्राह्मण का अवशिष्ट भाग है। इसमें तत्त्वज्ञान की अपेक्षा यज्ञविषयक विवेचन अधिक है। 'महाव्रत' नामक श्रौत विधि के हौत्र के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विचारों का समावेश है। प्रथम तीन में पुरुष-विचार किया है। तीसरे में (इसी अध्याय को संहितोपनिषद कहते हैं) ऋग्वेद की संहिता पदपाठ एवं क्रमपाठ के गूढ अर्थ पर विवेचन है। चौथे में महानाम्नी ऋचाओं का संकलन है। पांचवें में महाव्रत के माध्यंदिन सवन में जिसका उल्लेख है, उस निष्कैवल्य शास्त्र का वर्णन है। इसके पहले तीन आरण्यकों के संकलन कर्ता महिदास थे। चौथे आरण्यक के संकलक आश्वलायन और पांचवे आरण्यक के संकलक थे शौनक । ऐतरेय आरण्यक और ऐतरेय ब्राह्मण की भाषा शब्दप्रयोगों में भरपूर सादृश्य है। डॉ. ए.बी. कीथ के अनुसार इसका काल ई.पू.षष्ठ शतक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/45
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