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रूप दृश्य एवं स्थूल है, तो दूसरा सूक्ष्म एवं गूढ । नेत्रगोचर होने वाला रूप स्थूल अत एवं आधिदैविक है। जो ज्ञानेंद्रिय के लिये अगम्य, वह आधिदैविक रूप माना गया है। तीसरे आध्यात्मिक स्वरूप का भी उल्लेख है। उदाहरणार्थ विष्णु यह सूर्यरूप मे प्रत्यक्ष होता है, सूक्ष्म रूप में विश्व का मापन करता है। अंतरिक्ष को स्थिर करता है। पर इन दोनों से भिन्न उसका आध्यात्मिक परमपद है, उसके भक्त उसका
आंनदानुभव लेते हैं। इस स्थान में जो मधुचक्र है जो अमृतकूप है, उसके साथ वह परमपद, जागरणशील ज्ञानी लोगों को ज्ञात होता है। (ऋ. 1. 154 - 1-2) : 1:22,21) इस वेद के कतिपय संवाद-सूक्तों में नाटक व काव्य के तत्त्व उपलब्ध होते हैं। कथोपकथन की प्रधानता के कारण इन्हें "संवादसूक्त" कहा जाता है। इन संवादों में भारतीय नाटक प्रबंध काव्यों के तत्त्व मिलते हैं। ऐसे संवाद सूक्तों की संख्या 20 के लगभग है। इनमे 3 अत्यंत प्रसिध्द हैं : 1) पूरुरवाउर्वशी-संवाद [10-85] 2) यम-यमी संवाद [10-10] और 3) सरमा-पणि संवाद [10-130] | पूरुरवा उर्वशी संवाद में रोमांचक प्रेम का निदर्शन है, तो यमी-यमी संवाद में यमी द्वारा अनेक प्रकार के प्रलोभन देने पर भी यह यम का उससे अनैसर्गिक संबंध स्थपित न करने का वर्णन है। दोनों ही संवादों का साहित्यिक महत्त्व अत्यधिक माना जाता है तथा ये हृदयावर्जक व कलात्मक हैं। तृतीय संवाद में पणि लोगों द्वारा आर्यों की गाय चुराकर अंधेरी गुफा में डाल देने पर, इंद्र को अपनी शुनी सरमा को उनके पास भेजने का वर्णन है, इसमें तत्कालीन समाज की एक झलक दिखाई देती है।
इस वेद में अनेक लौकिक सूक्त हैं जिनमें ऐहिक विषयों एवं यंत्र-मंत्र की चर्चा है। ऐसे सूक्त, दशम मण्डल में हैं और उनकी संख्या 30 से अधिक नहीं है दो छोटे-छोटे ऐसे भी सूक्त हैं जिनमें शकुन-शास्त्र का वर्णन है। एक सूक्त राजयक्ष्मा रोग से विमुक्त होने के लिये उपदिष्ट है। लगभग 20 ऐसे सूक्त हैं जिनका संबंध सामाजिक रीतियों, दाताओं की उदारता,नैतिक प्रश्न तथा जीवन की कतिपय समस्याओं से है। दशम मंडल का 85 सूक्त विवाह-सूक्त है, जिसमें विवाह-विषयक कुछ विषयों का वर्णन है तथा पांच सूक्त ऐसे हैं जो अत्त्येष्टि-संस्कार से संबद्ध हैं। ऐहिक सूक्तों में ही 4 सक्त नीतिपरक हैं जिन्हें हितोपदेश-सूक्त कहा जाता है।
इस वेद के दार्शनिक सूक्तों के अंतर्गत नासदीय-सूक्त (10-129) पुरुष-सूक्त (10-90) हिरण्यगर्भसूक्त (10-121) तथा वाक्सूक्त (10-145) आते हैं। इनका संबंध उपनिषदों के दार्शनिक विवेचन से है। नासदीय सूक्त में भारतीय रहस्यवाद का प्रथम आभास प्राप्त होता है तथा दार्शनिक चिंतन का अलौकिक रूप दृष्टिगत होता है। इसमें पुरुष अर्थात् परमात्मा के विश्व-व्यापी रूप का वर्णन है।
ऋग्वेद की कुल शाखाएं -चरणव्यूह और पुराणगत वृत्तान्त के आधार पर ऋग्वेद की कुल शाखाएं निम्न प्रकारसे गिनी जाती हैं :
1) मुद्गल, 2) गालव 3) शालीय 4) वात्स्य 5) शैशिरि, ये पांचशाकल शाखाएं हैं। 6) बौध्य 7) अग्नि माठर 8) पराशर 9) जातूकर्ण्य ये चार बाष्कल शाखाएं हैं। 10) आश्वलायन 11) शांखायन 12) कौषीतकि 13) महाकौषीतकि 14) शाम्बव्य 15) माण्डकेय, ये शाखायन शाखाएं हैं। अन्य शाखाओं के नाम हैं :
16) बहवच 17) पैङ्ग्य 18) उद्दालक 19) गौतम 20) आरुण 21) शतबला 22) गज-हास्तिक 23) बाष्कलि 24) भारद्वाज 25) ऐतरेय 26) वासिष्ठ 27) सुलभ और 28) शैनक शाखा। - वेदव्यास से ऋग्वेद पढ़ने वाले शिष्य का नाम था पैल। महाभारत के आधार पर (महा.सभा. 36-35) पैल था वसु का पुत्र । पैल ने आगे चलकर ऋग्वेद की दो शाखाएं बाष्कल और इन्द्रप्रमति द्वारा विभाजिज की। इन्द्रप्रमति से आगे शाखा-परंपरा के विषय में कुछ अन्यान्य वर्णन मिलते हैं। ऋग्वेद टिप्पणी -ले- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। ऋग्वेद-ज्योतिष -रचयिता-लगध ऋषि । इसमें 36 श्लोक हैं। इस ग्रंथ पर सोमाकर नाम पंडित ने भाष्य लिखा है। इस वेदांग का उपक्रम "कालविधान शास्त्र के रूप में हुआ है। वैदिक आर्यों को यज्ञयाग के लिये दिक्, देश तथा काल का ज्ञान इस शास्त्र से प्राप्त होने में सुविधा हुई। ऋग्वेद-सिद्धांजनभाष्य -ले. ब्रह्मश्री कपालीशास्त्री। अरविन्दाश्रम के विद्वान शिष्य। यह भाष्य योगी अरविन्द के तत्त्वज्ञान पर आधारित हुआ है। ऋग्वेद पर 1000 पृष्ठों का यह भाष्य आश्रम द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसकी प्रस्तावना ऋग्भाष्य भूमिका नाम से स्वतन्त्रतया प्रकाशित तथा आश्रम के साधक माधव पण्डित द्वारा अंग्रेजी में अनूदित हुई है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका -ले- स्वामी दयानन्द सरस्वती। ऋजुलध्वी -ले. पूर्णसरस्वती। ई. 14 वीं शती (पूर्वार्ध) । ऋजुविमर्शिनी -ले. शिवानन्दमुनि। चतुःशती की टीका । ऋतम्भरम् -अहमदाबाद से बृहद्-गुजरात संस्कृत परिषद् द्वारा इस पत्रिका का प्रकाशन हुआ। ऋतुचरितम् -ले- अत्रदाचरण तर्कचूडामणि। (जन्म- सन् 1862)। खण्डकाव्य। विषय- षड्ऋतुवर्णन । ऋतुवर्णना -ले. भारतचंद्र राय। ई. 18 वीं शती। ऋतुविलासितम् - ले. लक्ष्मीनारायण द्विवेदी। ऋतुसंहार -महाकवि कालिदास की यह प्रथम कलाकृति मानी जाती है। इसके प्रत्येक सर्ग में एक ऋतु का मनोरम वर्णन शृंगार उद्दीपन के रूप में किया गया है। कवि ने अपनी प्रिया को संबोधित करते हुए इस काव्य में ऋतुओं का वर्णन
44/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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