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संस्कृत पाठशालाओं का इतिवृत्त तथा अन्य समाचारों का भी प्रकाशन होता था ।
भाषातन्त्रम् ले आइ. श्यामशास्त्री ।
भाषापरिच्छेद ले. विश्वनाथ भट्टाचार्य सिद्धान्तपंचानन । वंगदेशीय प्रसिद्ध आचार्य जिनका समय 17 वीं शती है । प्रस्तुत वैशेषिक दर्शन के ग्रंथ की रचना 168 कारिकाओं में हुई है। विषय- प्रतिपादन की स्पष्टता तथा सरलता के कारण इसे अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इस पर महादेवभट्ट भारद्वाज कृत "मुक्तावली - प्रकाश" नामक अधूरी टीका है जिसे टीकाकार के पुत्र दिनकरभट्ट ने "दिनकरी" के नाम से पूर्ण किया है। "दिनकरी" पर रामरुद्र भट्टाचार्यकृत "दिनकरी - तरंगिणी" नामक प्रसिद्ध व्याख्या है जिसे रामरुद्री भी कहा जाता है भाषारत्नम् ले कणाद तर्कवागीश ।
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भाषावृत्ति से पुरुषोत्तम देव ई. 11 वीं शती के बौद्ध वैयाकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी की यह लघुवृत्ति केवल लौकिक सूत्रों की व्याख्या है। अतः नाम सार्थक है। इसमें अनेक प्राचीन ग्रंथों के उद्धरण हैं जो अन्यत्र अप्राप्त हैं। इस पर ई. 17 वीं शती में सृष्टिधर लिखित टीका उपलब्ध है। परवर्ती वैयाकरणों ने इस ग्रंथ को प्रमाणभूत माना है। भाषावृत्यर्थं ले सृष्टिधर पुरुषोत्तम देव की भाषावृत्ति की टीका ।
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भाषाशास्त्रसंग्रह ले. - एस. टी. जी. वरदाचारियर । विषयआधुनिक भाषाविज्ञान ।
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भाषाशास्त्रप्रवेशिनी ले. आर. एस. वेंकटराम शास्त्री विषय । आधुनिक भाषाविज्ञान। भाषिकसूत्रभाष्यम् - ले. अनंताचार्य। ई. 18 वीं शती । भाष्यगाम्भीर्यनिर्णयखण्डनम् - ले. वेंकटराघव शास्त्री । यह शांकर सिद्धान्तों के खण्डन का प्रयास है।
भाष्यतत्त्वविवेक ले. नीलकण्ठ वाजपेयी । यह ब्रह्मसूत्र महाभाष्य की व्याख्या है।
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भाष्यप्रकाश ले. - पुरुषोत्तमजी । गुरु- कृष्णचंद्र महाराज । पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य वल्लभ के "अणुभाष्य" पर एक सर्वप्रथम तथा सर्वोत्तम व्याख्यान । प्रस्तुत "भाष्य-प्रकाश" अणु-भाष्य के गूढार्थ का प्रकाशक होने के अतिरिक्त अन्य भाष्यों का तुलनात्मक विवेचक भी है। इस ग्रंथ की यह विशेषता है। प्रस्तुत भाष्यप्रकाश पर कृष्णचंद्र महाराज की ब्रह्मसूत्रवृत्ति-भावप्रकाशिका का विशेष प्रभाव पडा है। गोपेश्वर जी ने भाष्यप्रकाश पर " रश्मि" नामक पांडित्यपूर्ण व्याख्या लिखी है।
भाष्यभानुप्रभा ले.त्र्यंबक शास्त्री टीका ग्रंथ । । भाष्यव्याख्याप्रपंच - ले. पुरुषोत्तम देव । बौद्ध वैयाकरण । ई. 11 वीं शती। पंतजलि के व्याकरण महाभाष्य पर टीका ।
240 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
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ले. - हरिदासन्यायालंकार भट्टाचार्य ।
भाष्यालोक टिप्पणी भाष्योत्कर्षटीपिका ले. धनपति सूरि भगवद्गीता की टीका । टीका का रचनाकाल, जो स्वयं टीकाकार ने दिया है, 1854 वि.सं. (1700 ई) है। यह टीका आचार्य शंकर के गीताभाष्य के उत्कर्ष को प्रदर्शित करती है। भासोऽहासः (नाटक) - ले. डॉ, गजानन बालकृष्ण पलसुले (पुणे विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष ) । संस्कृत साहित्यिकों में भास कवि की कीर्ति, कविताकामिनी का हास (भासो हासः) के रूप में स्थिर हुई है। डॉ. पळसुले ने "भासो हासः " इस वाक्य में अकार का प्रश्लेष करते हुए " भासोऽहासः " याने भास में हास का अभाव, इस नाम से प्रस्तुत तीन अंकी नाटक लिखा है। शारदा गौरव ग्रंथमाला के संचालक पं. वसन्त अनन्त गाडगीळ ने सन 1980 में इस गद्य नाटक का प्रकाशन किया। भास्करभाष्यम् ले. भेदाभेदवादी आचार्य भास्कर। ई. 8 वीं शती । ब्रह्मसूत्र के इस भाष्य के अनुसार ब्रह्म सगुण, सल्लक्षण, बोधलक्षण और सत्य-ज्ञानानं लक्षण, चैतन्य तथा रूपांतररहित अद्वितीय है । प्रलयावस्था में समस्त विकार ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। ब्रह्म कारण रूप में निराकार तथा कार्यरूप में जीव रूप और प्रपंचमय है । ब्रह्म की दो शक्तियां होती हैं- 1) भोग्यशक्ति तथा 2) भोक्तृ-शक्ति (भास्कर भाष्य, 2-1-27 ) भोग्यशक्ति ही आकाशादि अचेतन जगत् रूप में परिणत होती है । भोक्तृशक्ति चेतन जीवन रूप में विद्यमान रहती है। ब्रह्म की शक्तियां पारमार्थिक हैं। वह सर्वज्ञ तथा समग्र शक्तियों से संपन्न है।
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प्रस्तुत भाष्य में भास्कर, ब्रह्म का स्वाभाविक परिणाम मानते हैं। जिस प्रकार सूर्य अपनी रशियों का विक्षेप करता है, उसी प्रकार ब्रह्म अपनी अनंत और अचिंत्य शक्तियों का विक्षेप करता है। यह जीव, ब्रह्म से अभिन्न है तथा भिन्न भी। इन दोनों में अभेदरूप स्वाभाविक है, भेद उपाधिजन्य है। (भा.भा. 2-3 / 43 ) मुक्ति के लिये प्रस्तुत भाष्यकार, ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद को मानते हैं । प्रस्तुत भाष्य के अनुसार शुष्क ज्ञान से मोक्ष का उदय नहीं होता। उपासना या योगाभाभ्यास के बिना अपरोक्ष ज्ञान का लाभ नहीं होता । प्रस्तुत भाष्यकार को सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति दोनों अभीष्ट हैं।
भास्करविलास ( काव्य ) - ले. जगन्नाथ ।
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भास्करशतकम् अनुवादक चिट्टीगुडूर वरदाचारियर मूल काव्य तेलगु भाषा में है ।
भास्करोदयम् (महानाटक ) ले. यतीन्द्र विमल चौधुरी। प्रणयन तथा मंचन सन 1960 में । यह पन्द्रह अंकों का महानाटक है। रवींद्रनाथ ठाकुर के 25 वर्ष तक के जीवन की घटनाओं का चित्रण इसका विषय है। प्राकृत का प्रयोग
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