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एक अंगूठी देते हैं जो अभिमंत्रित रहती है। जब वह उसे पहनेगी तब मनुष्यों को वह बहुमूल्य रत्नों की मूर्ति के रूप में दिखेगी। उसका 'रत्नपांचालिका" नामकरण इसी रहस्य के कारण हुआ है। जब वह अपनी सखी चन्द्रलेखा के साथ प्रासाद के उपवन में जाती है तो वहां उसकी भेंट अचानक श्रीकृष्ण के साथ होती है। जब कृष्ण की दृष्टि उस पर पड़ती है तो मंत्र क्रियाशील हो जाता है। वे यह नहीं समझ पाते कि चन्द्रलेखा मूर्ति के साथ वार्तालाप क्यों कर रही है। इसी वार्तालाप के समय अंगूठी कथंचित् गिर जाती है। इससे कुवलयावली का वास्तविक रूप प्रकट होता है और वे दोनों परस्पर प्रेमपाश में बंध जाते हैं। इसी समय कुवलयावली को प्रासाद में बुलावा आता है। वह कृष्ण को उदास छोड कर प्रसाद में चली जाती है। श्रीकृष्ण को अचानक अंगूठी मिल जाती है तथा उसपर उत्कीर्ण लेखा से वे उसके उद्देश्य से भी अवगत हो जाते हैं। कुवलयावली को अंगुठी खोने का ध्यान आता है तथा उसे खोजने वह पुनः उपवन में आती है। इसके कारण पुनः दोनों की भेंट होती है । श्रीकृष्ण अंगूठी लौटा देते हैं । रुक्मिणी को प्रेमप्रसंग का पता चलते ही वह कुवलयावली को प्रासाद में बन्दी बना कर रख देती है। तब एक राक्षस उप पर आक्रमण करता है और रुक्मिणी को श्रीकृष्ण की सहायता लेनी पडती है। वे तत्काल राक्षसवध के लिए उद्यत होते हैं। इसी बीच नारद लौट कर आते हैं तथा उनसे रुक्मिणी को कुवलयावली के वास्तविक स्वरूप का परिचय मिलता है। श्रीकृष्ण राक्षस को पराजित कर लौटते हैं। नारद की अनुमति से रुक्मिणी कुवलयावली को उपहारस्वरूप श्रीकृष्ण को समर्पित करती है। इस नाटिका की कथा भासकृत स्वप्रवासवददत्तम् तथा महाकवि कालिदासकृत मालविकाग्निमित्रम् से अत्यधिक साम्य रखती है । यद्यपि कृष्ण, रुक्मिणी, सत्यभामा तथा नारद आदि आमिधात कृष्णकथा से लिये गये हैं तथापि नाटिका का कथानक काल्पनिक है। वास्तव में कवि ने नवीन स्थिति की उद्भावना करके उसे मूल कृष्ण कथा के साथ जोड दिया है। इसमें भास के नाट्य का प्रारंभ देखा जा सकता है। कुवलयाश्वचरित्र ले. लक्ष्मणमाणिक्य देव । ई. 16 वीं शती के नोआखाली के राजा। नाटक का विषय है- कुवलयाश्व और मदालसा की प्रणयकथा । अंकसंख्या नौ । कुवलाश्वीयम् (नाटक) ले. कृष्णदत्त (ई. 18 वीं शती) प्रथम अभिनय महिषमर्दिनी देवी के चैत्रावली पूजन के अवसर पर हुआ था। मूल कथा मार्कण्डेय पुराण में है परंतु नाटककार ने उसमें पर्याप्त परिवर्तन किया है। नाटक विशेषतः भवभूति से प्रभावित दिखाई देता है। अंकसंख्या सात है। कथासार नायक ऋतुध्वज महाराज शत्रुजित् का पुत्र है महर्षि गालव यज्ञरक्षा हेतु ऋतुध्वज को मांग लेते हैं और उसे कुवलय नामक अश्व देते हैं। उस अश्व का अ
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करने पातालकेतु, योद्धा कंकालक तथा करालक को भेजता है। नायक के पराक्रम के कारण करालक भाग जाता है परंतु कंकालक वहीं पर मुनिशिष्य शालंकायन का वेश धारण कर रहता है। उसी वेश में आश्रम दिखाने के बहाने नायक को दूर ले जाता है। इसी बीच पातालकेतु गालव के आश्रम पर धावा बोलता है । नायक उसे खदेड़ता है तथा उसका पाताल तक पीछा करता है। वहां गन्धर्व विश्वावसु की पातालकेतु द्वारा अपहृत कन्या मदालसा उसे दीखती है। विश्वावसु तथा गालव से अनुमति पाकर तुम्बरु उनका विवाह कराते हैं। नायक युवराज बनता है। राजा उसे प्रतिदिन मुनि के आश्रम की रक्षा करने का आदेश देता है। उसकी भेंट मुनिवेश में कंकालक से होती है। वह नायक को आश्रम की रक्षा का भार सौंप कर काशीराज के पास पहुंचता है।
कुशकुमुद्वतम् ले. अतिरात्रबाजी नीलकण्ठ दीक्षित के अनुज । ई. 17 वीं शती । भाण की पद्धति पर विकसित प्रकरण । प्रथम अभिनय हालास्य चैत्रोत्सव की यात्रा के अवसर पर हुआ। कवि की मान्यता के अनुसार अम्बिका के प्रसाद से इसका प्रणयन हुआ। कथासार श्रीराम के पश्चात् अयोध्यानगरी उजड सी रही है। नागरिका (नगर की अधिदेवी) के साथ तिरस्करिणी से प्रच्छन्न होकर पता लगाती है कि नागलोक की राजकुमारी कुमुद्वती ज्योत्सा विहार के लिए जनहीन अयोध्या में सखियों के साथ आया करती है। सागरिका कुशावती में रहने वाले कुश को दिव्य नेत्र प्रदान कर कुमुद्रती का दर्शन कराती है। कुश उस पर मोहित हो, अयोध्या का नवीकरण करके वहीं रहने लगता है। सागरिका की सहायता से कुश कुमुद्वती का प्रेम पनपने लगता है परन्तु अयोध्या को जनसम्मर्दित देखकर नायिका के पिता उसके वहां जाने पर रोक लगाते हैं परन्तु सागरिका की सहायता से तिरस्करिणी का आश्रय ले, नायक नायिका मिल ही लेते हैं। परन्तु कंचुकी से कुमुद (नायिका के पिता) को यह बात ज्ञात होने पर, वे नायिका का विवाह शंखपाल के साथ निश्चित करते हैं। इस बात पर विदूषक और लव मिल कर सर्पयज्ञ के द्वारा नागों का दर्पभंग करने की ठानते हैं। नायिका उन्मत्त होने का नाटक करती है और उसका उपाय करने के बहाने सिद्धयोगिनी के रूप में सागरिका और दिव्य शुक के रूप में कुश वहां आते हैं। यहां सर्पयज्ञ से आंतकित कुमुद प्राणरक्षा के लिए याचना करता है और कुश का कुमुद्वती के साथ, एवं लव का कमलिनी (कुमुद्वती की बहन ) के साथ विवाह होता है।
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कुशलवचम्पू ले. वेंकटय्या सुधी । कुशलवविजयम् - ले, वेङ्कटकृष्ण दीक्षित ई. 17 वीं शती । तन्जौर के शाहजी महाराज की प्रेरणा से इस नाटक की रचना हुई ।
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 79
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