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कुशलवविजय-चम्पू - ले. प्रधान वेंकप्प । श्रीरामपुर के निवासी। कुसुमांजलि - ले. उदयानाचार्य । बौद्ध । दार्शनिक कल्याणरक्षित के ईश्वरभंग-कारिका (ईश्वरास्तित्वविरोध विषयक ग्रंथ) का खण्डन इस प्रसिद्ध ग्रंथ का विषय है। कुसुमांजलि - डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी (ई. 20 वीं शती) कृत मुक्तक काव्य। अनेक छंदों में देवता एवं महापरुषों का स्तवन इस का विषय है। कुहनाभैक्षवम् (प्रहसन) - ले. तिरुमल कवि। ई. 17501 विषय- कुहनाभैक्षव नामक भिक्षु के अहमदखान की रखैल से प्रणय की कथा। कूर्मपुराण - अठारह पुराणों के क्रमानुसार 15 वां पुराण । समुद्रमंथन के समय विष्णु भगवान की स्तुति करने वाले ऋषियों को कूर्म का अवतार लिये विष्णु ने यह पुराण सुनाया इस लिये इसे कूर्म पुराण कहा जाता है। पंचलक्षणयुक्त इस पुराण में विष्णु के अवतारों की अनेक कथाएं हैं। इसके दो खण्ड है। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध । विष्णु पुराण के अनुसार इसमें 17 हजार तथा मत्स्य पुराण के अनुसार 18 हजार श्लोक होने चाहिये, किन्तु केवल 6 हजार श्लोकों की संहिता उपलब्ध है। नारदसूची के अनुसार इस पुराण की ब्राह्मी, भागवती, सौरी तथा वैष्णवी- ये चार संहिताएं हैं किन्तु संप्रति केवल ब्राह्मी संहिता ही उपलब्ध है।
हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार इस पुराण का कालखण्ड ई. 2 री शताब्दी है; पर पुराण निरीक्षक काळे इसे इ.स. 500 से पूर्व काल का मानते हैं। इसमें पाशुपत का प्राधान्य होने से कुछ विद्वानों ने इस का समय 6-7 वीं शती निर्धारित किया है। इसमें वैष्णव और शैव दोनों विषयों का समावेश है। शंकरमाहात्म्य, शिवलिंगोत्पत्ति, शंकर के 28 अवतार के अलावा विष्णुमाहात्म्य, नक्षत्र, सूर्य-चन्द्र के भ्रमण व मार्ग, ईश्वरगीता, व्यासगीता एवं गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी के आचार धर्मों का विवेचन है। डॉ. हाजरा के मतानुसार यह पांचरात्र मत का प्रतिपादक प्रथम पुराण है। इ.स. 1564-1596 कालखण्ड में तिन्काशी के राजा अतिवीर राम पांड्य ने कूर्मपुराण का तमिल अनुवाद किया। इसका प्रथम प्रकाशन सन 1890 ई. में नीलमणि मुखोपाध्याय द्वारा "बिल्बियोथिका इण्डिका" में हुआ था, जिसमें 6 हजार श्लोक थे। प्रस्तुत पुराण में भगवान् विष्णु को शिव के रूप में तथा लक्ष्मी को गौरी की प्रतिकृति के रूप में वर्णित किया गया है। शिव को देवाधिदेव के रूप में वर्णित कर उन्हीं की कृपा से कृष्ण को जांबवती की प्राप्ति का उल्लेख है। यद्यपि इसमें शिव को प्रमुख देवता का स्थान प्राप्त है फिर भी ब्रह्मा, विष्णु व महेश में सर्वत्र अभेद स्थापित किया गया है तथा उन्हें एक ही ब्रह्म का पृथक् पृथक् रूप माना गया है। इसके उत्तर भाग में "व्यासगीता" का वर्णन है जिसमें गीता के ढंग पर
व्यास द्वारा पवित्र कर्मों व अनुष्ठानों से भगवत्साक्षात्कार का वर्णन है। इसके एक अध्याय में सीताजी की ऐसी कथा वर्णित है जो रामायण से भिन्न है। इस कथा के अनुसार सीता को अग्निदेव ने रावण से मुक्त कराया था। प्रस्तुत पुराण के पूर्वार्ध, (अध्याय 12) में महेश्वर की शक्ति का अत्यधिक वैशिष्ट्य प्रदर्शित किया गया है और उसके चार प्रकार माने गये हैं- शांति, विद्या, प्रतिष्ठा एवं निवृत्ति । व्यासगीता के 11 वें अध्याय में पाशुपत योग का विस्तारपूर्वक वर्णन है तथा उसमें वर्णाश्रम धर्म व सदाचार का भी विवेचन है। कृत्यकल्पतरु - ले. लक्ष्मीधर। कनौज राज्य के न्यायाधीश । ई. 12 वीं शती। इसके कुल 14 काण्ड हैं। इसमें धर्म, परिभाषा, संस्कार, आचमन, शौच, संध्याविधि, अग्निकार्य, इन्द्रियनिग्रह, आश्रमव्यवस्था, गृहस्थधर्म, विवाहभेद, आपत्ति, कृषि, प्रतिग्रह, व्यवहार-निरूपण, सभा, भाषा, क्रियादान, ऋणदान-विधि, स्तेय स्त्रीपुरुषयोग, तीर्थ, राजधर्म, मोक्षधर्म आदि विषयों का विवेचन किया गया है। "कृत्यकल्पतरु" का राजधर्मकाण्ड प्रकाशित हो चुका हैं। जिसमें राज्यशास्त्र विषयक तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं। यह काण्ड 21 अध्यायों में विभक्त है। पहले 12 अध्यायों में राज्य के 7 अंग वर्णित है। 13 वें तथा 14 वें अध्यायों में पाइगुण्यनीति व शेष 7 अध्यायों में राज्य के कल्याण के लिये किये गये उत्त्सवों, पूजा-कृत्यों तथा विविध पद्धतियों का वर्णन है। इसके 21 अध्यायों के विषय इस प्रकार हैं- राजप्रशंसा, अभिषेक, राज-गुण, अमात्य, दुर्ग, वास्तुकर्म-विधि, संग्रहण, कोश, दंड, मित्र, राजपुत्र-रक्षा मंत्र, षाड्गुण्य-मंत्र, यात्रा, अभिषिक्तकृत्यानि, देवयात्रा-विधि, कौमुदीमहोत्सव, इंद्रध्वजोच्छाय-विधि, महानवमी-पूजा, चिह्न-विधि, गवोत्सर्ग तथा वसोर्धारा इत्यादि। कृत्यचन्द्रिका - श्लोक- 96। रचयिता- रामचन्द्र चक्रवर्ती । इसमें सब कामनाओं की सिद्धि के लिए षडशीति संक्रान्ति (चैत्र की संक्रान्ति) से महाविषुव संक्रान्ति तक गणेश आदि की तथा कालार्क रुद्र की पूजापूर्वक शिवयात्रा वर्णित है। इससे शिवजी प्रसन्न होते हैं। यह तन्त्र शिवोपासनापरक है। कृषिपराशर - कृषि विषयक इस ग्रंथ के लेखक हैं पराशर । प्रस्तुत ग्रंथ की शैली से, यह ग्रंथ ईसा की 8 वीं शताब्दी का माना जाता है। अतः इस ग्रंथ के रचयिता पराशर, वसिष्ठ ऋषि के पौत्र सूक्तद्रष्टा पराशर से भिन्न होने चाहिये। प्रस्तुत ग्रंथ में खेती पर पड़ने वाला ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव, मेघ व उनकी जातियां, वर्षा का अनुमान, खेती की देखभाल, बैलों की सुरक्षितता, हल, बीजों की बोआई, कटाई व संग्रह, गोबर का खाद आदि संबंधी जानकारी दी गई है। कृत्यासूक्त -टीका - ले. पिप्पलाद। श्लोक 380। यह ग्रंथ प्रत्यङिगरासूक्त - टीका से नाम से भी प्रसिद्ध है। कृष्णकथारहस्यम् - कवि- शिौयंगार ।
80/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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