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के पात्रों का स्थापन, भिन्न भिन्न देशों में भिन्न व्यवस्था, तर्पणविधि, बिन्दुस्वीकार, द्रव्यशोधन, सब शक्तियों का और शिव का निरूपण पानविधि, पात्रवन्दन, पंचमपात्र में पंचम की विधि, विविध, स्तोत्र आत्मसमर्पण, देवीविसर्जन, चषक का शीतलीकरण, निर्माल्य आदि धारण। कौषिकसूत्रम् - अर्थर्ववेद की शौनक शाखा के सूत्र। इनमें गृह्य विधियों के अतिरिक्त अथर्ववेद की ऋचाओं से सम्बन्धित मंत्रविद्या व जादूटोना की भी जानकारी है। इसमें प्रमुखतया दर्शपूर्णमास, मेधाजनन, ब्रह्मचारिसंपद् ग्राम, दुर्ग, राष्ट्र आदि लाभ, पुत्र-धन-प्रजा आदि सम्पति तथा मानव समाज की एकता के लिये सौमनस्य आदि उपायों की चर्चा की गयी है। कौषीतकी आरण्यकम् - इसके कुल तीन खण्ड हैं। प्रथम दो खण्ड कर्मकांड से सम्बन्धित हैं जब कि तीसरा खण्ड उपनिषद् है। आरण्यक में प्रथम रूप से आनंदप्राप्ति, गृहकृत्य, इतिहास तथा भूगोल विषयक आख्यानों की चर्चा है। कौषीतिकी उपनिषद् - इस ऋग्वेदीय उपनिषद् में 5 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में देवयान या पितृयात्रा का वर्णन है जिसमें मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा का पुनर्जन्म ग्रहण कर दो भागों से प्रयाण करने का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में आत्मा के प्रतीक प्राण का स्वरूपविवेचन है। तृतीय अध्याय में प्रतर्दन का इंद्र द्वारा ब्रह्मविद्या सीखने का उल्लेख है तथा प्राणतत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन है। अंतिम दो अध्यायों में बालाकि और अजातशत्रु की कथाद्वारा ब्रह्मवाद का विवेचन करते हुए ज्ञान की प्राप्ति करने वाले साधकों को कर्म व ज्ञान के विषयों का मनन करने की शिक्षा दी गयी है। इसके अनुसार प्राण ही वायु है, वहीं ब्रह्म है। वह अमृतमय तथा षड्भावविकार रहित है। सर्वत्र प्राण का संचार है। प्राण से ही देवता और देवताओं से प्रजा उत्पन्न हुई। इस की रचना बृहदारण्यक और छांदोग्य उपनिषद् के पूर्व मानी जाती है। कौषीतकी गृह्यसूत्र - ऋग्वेद की कौषीतकी शाखा के गृह्य सूत्र। इसके रचयिता शांबव्य ऋषि थे अतः इसे शांबव्यसूत्र भी कहते हैं। इसके कुल 5 अध्याय हैं। कर्णवेध संस्कारों का प्रयोग इसकी विशेषता है। कौषीतकी ब्राह्मण - ऋग्वेद की शाखायन संहिता के कौषीतकी . ब्राह्मण में 30 अध्याय हैं। इसमें क्रमशः अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास और अन्तिम अध्यायों में चातुर्मास्य यज्ञ का वर्णन है। इसमें भी सोमपात्र की प्रधानता है। इसमें यज्ञ का संपूर्ण विवरण है। यह ऐतरेय ब्राह्मण से मिलता जुलता है। कुषीतकी ऋषी के पुत्र कौषीतकी इसके प्रधान आचार्य हैं। इसमें नैमिषारण्य में हुए यज्ञ का विवरण है। ऋषिपुत्र विनायक का इस पर भाष्य है। इसमें "पुनर्मत्यु" शब्द मिलता है। यह शब्द ब्राह्मणकाल में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का स्पष्ट द्योतक •
है। समस्त ब्राह्मणों का संकलन लगभग समकाल में हुआ है। इस लिए एक स्थान में किसी सिद्धान्त मिल जाने से उस काल में उस सिद्धान्त का सर्वत्र प्रचार मानना ही पडेगा। शाखांयन अथवा कौषीतकी द्वारा इसका संकलन माना जाता है। इसका प्रचार उत्तर गुर्जर देश में था। कौषीतकीब्राह्मण-सूची - ले.केवलानंद सरस्वती। ई. 19-20 वीं शती। कौषीतकी शाखा (ऋग्वेद की) - इस शाखा की संहिता का अभी तक पता नहीं लगा। शाखांयन संहिता से इस शाखा की संहिता में कोई विशेष भेद न होगा ऐसा अभ्यासकों का तर्क है। कौषीतकी का दूसरा नाम कहोड होगा। कौषीतकि याने कुषीतक का पुत्र। कौस्तुभचिन्तामणि - ले. गजपति प्रतापरुद्रदेव (ई. 15-16 वीं शती) नामक उडीसा के प्रसिद्ध धर्मशास्त्री ने आतिषबाजी की बारूद बनाने की विधि का वर्णन इस ग्रंथ में किया है। कौस्तुभ-प्रभा - ले. केशव काश्मीरी । ई. 13 वीं शती। विषय- निंबार्काचार्य के प्रधान शिष्य श्रीनिवासायार्य के "वेदांत-कौस्तुभ" नामक ग्रंथ पर पांडित्यपूर्ण भाष्य । क्रमकेलि - यह क्रमस्तोत्र की अभिनवगुप्त विरचित टीका है। क्रमचन्द्रिका - ले. रत्नगर्भ सार्वभौम । श्लोक 22201 विषयतंत्रशास्त्र में प्रतिपादित विचारों की व्याख्या और तांत्रिक पूजाविधि । क्रमदीक्षा - ले. जगन्नाथ । श्रीकालिकानन्द के शिष्य । श्लोक7001 विषय- क्रमदीक्षा संबंध में विवरण। इसमें बृहत्तन्त्रराज, शारदातिलक, सोमशंभु, तन्त्रसार, विष्णुयामल, प्रपंचसार महानिर्वाणतन्त्र आदि तांत्रिक ग्रंथों से वचन उद्धृत हैं। विविध देवियों के मन्त्र भी उत्तरार्ध में वर्णित हैं। क्रमदीपिका - 1) ले. केशव काश्मीरी। ई. 13 वा शती । निंबार्क संप्रदायी आचार्य। श्लोक 1001 विषय- विष्णुदेव की तांत्रिक पूजाविधि। इस पर भैरव त्रिपाठी कृत टिपण्णी और गोविन्द विद्याविनोद भट्टाचार्यकृत टीका है। . 2) ले. वसिष्ठ। श्लोक- 9001 क्रमदीपिका -टीका - ले. भैरव त्रिपाठी। श्लोक- 4500। क्रमदीपिका- विवरण - ले. गोविन्द विद्याविनोद भट्टाचार्य । केशव काश्मीरीकृत क्रमदीपिका की व्याख्या । क्रमपूर्णदीक्षापद्धति - ले. शुकदेव उपाध्याय। श्लोक- 5701 विषय- क्रमदीक्षा और तारा का पूर्णाभिषेक प्रयोग और प्रमाण दोनों वर्णित हैं। क्रमसंदर्भ - भागवतपुराण को पांडित्यपूर्ण टीका। टीकाकार चैतन्यमत के श्रेष्ठ आचार्य जीव गोस्वामी। ई. 16 वीं शती। गौडीय वैष्णव संप्रदाय के अनुसार भागवत की व्याख्या करने हेतु, जीव गोस्वामी ने तीन ग्रंथों की रचना की है। 1) क्रम-संदर्भ 2) बृहत्क्रमसंदर्भ और 3) वैष्णवतोषिणी। ये
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 87
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