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आदि 12 ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। कविरत्न एवं विद्यावारिधि इन उपाधियों से आप विभूषित हैं। पूर्तकमलाकर - ले.कमलाकर-भट्ट। विषय- धर्मशास्त्र। पूर्तप्रकाश - यह ग्रंथ रुद्रदेवकृत प्रतापनरसिंह का एक प्रकरण है। पूर्तमाला - ले.रघुनाथ। पूर्वोद्योत - ले.विश्वेश्वर भट्ट। यह ग्रंथ दिनकरोद्योत का एक अंश है। पूर्वपंचिका - ले.अभिनवगुप्त पूर्वभारतचम्पू - ले. मानवेद। ई. 17 वीं शती। पूर्वमीमांसाधिकरण-सूत्रवृत्ति - ले.विट्ठल बुधकर। इस रचना में ग्रंथकार ने सुबोध शैली में पूर्व मीमांसा के सूत्रों पर वृत्ति लिखी है। पूर्वमीमांसा-भाष्यम् - ले. वल्लभाचार्य । “पुष्टि-मार्ग" नामक भक्ति-संप्रदाय के प्रवर्तक। यह भाष्य भावार्थ पद पर ही मिलता है। शेष भाग नष्ट हो गया है। पूर्वाम्नायतन्त्रम् - ले.श्रीरत्नदेव। यह संग्रह पूर्वाम्नाय ग्रंथों से संगृहीत किया गया है। इसमें 28 तांत्रिक क्रियाओं की प्रयोगविधि वर्णित है।विषय- पांच प्रणवन्यास, दश करन्यास, अष्टांगन्यास, शब्दराशिन्यास, त्रिविद्यांगन्यास, षडंगन्यास, द्वादश अंगन्यास, जलस्मरण, भूतशुद्धि, गुरुमण्डलपूजा, ध्यान, पांच पीठ, पांच अवधूत आदि तीन भोगविद्याएं, गायत्री रत्नदेवार्चन, ध्यान, तीन गुहाएं आदि। पृथ्वीमहोदयम् - ले.प्रेमनिधि शर्मा। भारद्वाज गोत्री उमापति के पुत्र । इसमें श्रवणाकर्म, प्रायश्चित्त आदि का विवेचन है। पृथ्वीराज-चव्हाण-चरितम् ले.श्रीपादशास्त्री हसूरकर । गद्यात्मक ग्रंथ। पृथ्वीराज-विजयम् - ले.जयानक। संप्रति यह अपूर्ण रूप से उपलब्ध है जिसमें 12 सर्ग हैं। इन सर्गों में पृथ्वीराज के पूर्वजों का वर्णन व पृथ्वीराज के विवाह का उल्लेख है। इसमें स्पष्ट रूप से कवि का नाम कहीं पर भी नहीं मिलता पर अंतरंग अनुशीलन से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता जयानक कवि थे। इसकी एक टीका भी प्राप्त है। टीकाकार जोनराज है। जयानक काश्मीर के थे और उन्होंने संभवतः 1192 ई. में इस महाकाव्य की रचना की थी। इसका महत्त्व ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक है। पृथ्वीराज के पूर्वपुरुषों व उनके आरंभिक दिनों का इतिहास जानने का यह एक महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक साधन है। कवि ने अनेक स्थलों पर श्लेषालंकार के द्वारा चमत्कार की निर्मिति भी की है। - पैंगलोपनिषद् - यजुर्वेद से संबद्ध एक नव्य उपनिषद् । मुनि याज्ञवल्क्य ने यह पैंगल को कथन किया। इसके 4 खंड हैं। प्रथम खंड में आत्मज्ञान से संबंधित जानकारी बताते हुए सृष्टि की रचना, सत् चित् व आनंद रूप मूल तत्त्वों से ईश्वर
-चैतन्य की निर्मिति, सत्त्व वरण के उपरांत विक्षेप-शक्ति से रजोगुण का आवरण एवं समस्त चराचर सृष्टि की निर्मिति तथा जाग्रत्, स्वप्न व सुषुप्ति की अवस्थाओं में आत्मा का विवरण आदि बातें बताई हुए गई हैं। द्वितीय खंड में विभु-स्वरूपी ईश के जीव-रूप तक पहुंचने का वर्णन, स्थूल सूक्ष्म एवं कारण-देह का वर्णन, जीव व ईश्वर के स्वरूपों का वर्णन तथा शरीर किन तत्त्वों से बना इसका विवरण है। तृतीय खंड में महावाक्यों का विवरण करते हुए “तत्त्वमसि, त्वं ब्रह्मासि, अहं ब्रह्मास्मि" आदि तत्त्वों के मनन व अध्ययन से अनुपमेय अमृतानंद का लाभ होने की बात कही गई है। चतुर्थ खंड में ज्ञानी तथा उसके कर्तव्यों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि यदि किसी (वंश) में एक भी ब्रह्मज्ञानी हो तो भी 101 पीढियों का उद्धार होता है।
इस उपनिषद् के अंत में कतिपय सुंदर व्याख्याएं भी दी गई हैं यथा 'मम' अर्थात् बंधन और “न मम" अर्थात् मुक्ति आदि । पैतृकतिथिनिर्णय - ले. चक्रधर। विषय-धर्मशास्त्र। पैतृमेधिकम् - ले. यल्लाजि। भरद्वाज गोत्री यल्लुभट्ट के पुत्र। भारद्वाजीय सूत्र के अनुसार इसका प्रतिपादन है। पैतृमैधिकसूत्र - ले. भारद्वाज। इसके प्रश्न नामक दो भाग हैं और प्रत्येक में 12 कंडिकाएं हैं। पैप्पलादसंहिता - ले. प्रपंचहृदय के अनुसार अथर्ववेद की पैप्पलाद संहिता बीस काण्डों में है और उसके ब्राह्मण में आठ अध्याय हैं। काश्मीर से भूर्जपत्र लिखित पिप्पलाद संहिता की एक प्रति शारदा लिपि से देवनागरी लिपि में निबद्ध होकर महाराज रणवीरसिंह की कृपा से भांडारकर ओरिएंटल रीसर्च इन्स्टिट्यूट, पुणे में आई। उसकी एक और देवनागरी प्रति मुंबई के रायल एशियाटिक सोसायटी के ग्रन्थालय में है। इस लेख के कुछ पत्र फट जाने के कारण पिप्पलाद संहिता का प्रथम मन्त्र अन्य प्रमाणों से ही निर्धारित करना पडता है। छान्दोग्य-मन्त्रभाष्य के कर्ता गुणविष्णु के कथनानुसार पहिला मन्त्र "शन्नो देवीः" है। व्हिटने और रॉथ का मत है कि पिप्पलाद शाखा के अथर्ववेद में अथर्ववेद संहिता की अपेक्षा ब्राह्मण पाठ अधिक हैं तथा अभिचारादि कर्म भी अधिक हैं। काठक और कालापक के समान किसी समय यह शाखा भारत में अत्यंत प्रसिद्ध रही होगी यह विद्वानों का तर्क है। पौलचरितम् - ले. ईसाई संत पॉल का पद्यात्मक चरित्र । कलकत्ता में सन 1850 में प्रकाशित। पौलस्त्यवधम् (नाटक) - ले. लक्ष्मणसूरि (जन्म 1859) प्रथम अभिनय चैत्रोत्सव में हुआ था। विंटरनित्ज द्वारा प्रशंसित । अंकसंख्या-छह । विराधवध के पश्चात् की राम-कथा इसमें चित्रित है। पौष्कर-संहिता - पांचरात्र-साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता। इसके 43 अध्याय हैं
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/197
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