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हस्तरत्नम् ले. भावविवेक
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वस्तुओं का यथार्थ रूप सत्तारहित तथा आत्मा का अस्तित्व न होना इसमें सिद्ध किया गया है । केवल चीनी अनुवाद से ज्ञात । हस्तलाघवप्रकरणम् (मुष्टिप्रकरण) ले. - आर्यदेव | नागार्जुन के शिष्य । चंद्रकीर्ति नामक विद्वान् के मतानुसार सिंहल द्वीप के नृपति के पुत्र । समय 200 से 224 ई. से बीच है। इसका अनुवाद चीनी व तिब्बती भाषा में प्राप्त होता है, और उन्हीं के आधार पर इसका संस्कृत में अनुवाद प्रकाशित किया गया है । यह ग्रंथ 6 कारिकाओं का है जिनमें प्रथम 5 कारिकाएं जगत् के मायिक रूप का विवरण प्रस्तुत करती हैं। अंतिम (6 वीं) कारिका में परमार्थ का विवेचन है। इस पर दिङ्नाग ने टीका लिखी है। हस्तिगिरिचम्पू ले. वेंकटाध्वरी ई. 17 वीं शती । वरदाभ्युदयचम्पू नाम से भी प्रसिद्ध । विषय- कांचीवरम् के देवराज की महिमा ।
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हस्त्यायुर्वेद - ले. पराशर। ई. 8 वीं शती। आनंदाश्रम सीरीज, पुणे द्वारा प्रकाशित ।
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हंस - गीता - महाभारत के शांतिपर्व में अध्याय 299 में हंसस्वरूप प्रजापति व साध्य के बीच संवाद का अंश ही "हंसगीता" के नाम से विख्यात है। एक अन्य हंसगीता भी है जो भागवत के 11 वें स्कन्ध में 13 वें अध्याय के श्लोक क्रमांक 22 से 42 के बीच का अंश मानी जाती है। ब्रह्मदेव के मानस पुत्रों नें त्रिगुणात्मक विषय व चित्त का सम्बन्ध जोड़ने की जिज्ञासा प्रकट की, तब उन्होंने उनकी ज्ञानदृष्टि यज्ञीय धूम से
धूसरित होने के कारण अपने मानसपुत्रों की जिज्ञासापूर्ति के लिये भगवान् विष्णु का स्मरण किया। विष्णु ने हंसरूप धारण कर ब्रह्मदेव तथा उनके पुत्रों को जो उपदेश किया वही हंसगीता कहलायी है।
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हंसतम् ले. पूर्णसरस्वती ई. 14 वीं शती। केरल निवासी। कालिदास के मेघदूत की शैली पर रचा गया एक काव्यग्रंथ । यह भी मंदाक्रांता छंद में ही है और इसके 102 श्लोक हैं। इसमें कांची नगरी की एक रमणी द्वारा वृंदावनवासी श्रीकृष्ण को प्रेषित प्रेमसंदेश का वर्णन है। 2) ले रूप गोस्वामी सन 1492-1591। वृन्दावन से मथुरा, कृष्ण के पास हंसद्वारा संदेश इसमें वर्णित है। अत्यंत भक्तिपूर्ण काव्य । 3) ले.रघुनाथदास। ई. 17 वीं शती। श्रीनरसिंहदास ने इसका बंगाली में अनुवाद किया।
हंसयामलतन्त्रम् - श्लोक - लगभग 925 1
हंसविलास ले. हंसभिक्षु इसमें टुटके हैं। श्लोक 56001 हंससंदेश ले. वेंकटनाथ (ई. 14 वीं शती) जिनका दूसरा नाम वेदांत देशिक भी है। "हंससंदेश" का आधार रामायण की कथा है। इस संदेश काव्य में हनुमान् द्वारा सीता की
428 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
खोज करने के बाद तथा रावण पर आक्रमण करने के पूर्व, राम का राजहंस के द्वारा सीता के पास संदेश भेजने का वर्णन है । यह काव्य दो आश्वासों में विभक्त है और दोनों में (60+51) 111 श्लोक हैं। इसमें कवि ने संक्षेप में रामायण की कथा प्रस्तुत की है और सर्वत्र मंदाक्रांता छंद का प्रयोग किया है। 2) ले रूपगोस्वामी । ई. 16 वीं शती । कृष्ण विषयक संदेश काव्य । 3) ले. धर्मसूरि । ई. 15 वीं शती ।
हारकातन्त्रम् - शंकर-पार्वती संवादरूप। विषय- पंचाग्निसाधन, धूम्रपानविधि, शीतसाधन विधि आदि तांत्रिक विधियां । हारावली ले. - पुरुषोत्तम । ई. 12 वीं शती । अप्रचलित शब्दों का कोश ।
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हारावलीतंत्रम् 15 पटलों में पूर्ण विषय- महामाया तथा मातृका की पूजा, होम और पूजाविधि का फल विशेष रूप से वर्णित । नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्म परस्पर पूर्व की अपेक्षा रखते हैं, अतएव मन्त्री को पहले नित्य, उसके सिद्ध होने पर नैमित्तिक, तदुपरान्त काम्य अर्चना करना चाहिये, यह भी कथन इसके प्रारम्भ में किया गया है।
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हारिद्रवीय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) हरि के कुल जन्म, स्थान, आदि के विषय में कुछ ज्ञान नहीं है । सायणकृत ऋग्वेद भाष्य और निरूक्त इन दोनों ग्रंथों में हारिद्रवीय ब्राह्मणग्रंथ के उद्धरण मिलते हैं। कई ग्रंथों में पांच अवान्तर भेद कहे गये हैं। यथा हारिद्रव, आसुरि, गार्ग्य शार्कराक्ष और अप्रवसीय ।
हारीतधर्मसूत्रम् इ.स. 400 से 700 के बीच के कालखण्ड में हारीत नामक सूत्रकार ने इसकी रचना की है जिसमें धर्मशास्त्र विषयक जानकारी दी गई है। इसमें धर्म के आधारभूत सिद्धान्तों, ब्रह्मचर्य, स्नातक, गृहस्थ, वानप्रस्थ के आचार, जननमरणाशौच, श्राद्ध, पंक्तिपावन, आचरण के सामान्य नियम, पंचयज्ञ, वेदाभ्यास और अनध्याय के दिन, राजा के कर्तव्य, राजनीति के नियम, न्यायालय की कार्यपद्धति, कानून के विभिन्न नाम, पति-पत्नी के कर्त्तव्य, पापों के फल, प्रायश्चित्त, पापविमोचनात्मक प्रार्थना तथा कुछ अर्वाचीन प्रतीत होता है। कुछ श्लोकों में नक्षत्रों की जानकारी है।
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हारीतशाखा (कृष्णयजुर्वेदीय) - हारीत शाखा केवल सूत्र शाखा के रूप में उपलब्ध हैं। हारीत के श्रौत, गृह्य और धर्मसूत्र के वचन अनेक ग्रंथों में मिलते हैं एक हारीत किसी आयुर्वेद संहिता के भी रचयिता थे। एक कुमार हारीत का नाम बृहदारण्यक उपनिषद् (4-6-3) में मिलता है। हारीतस्मृति ले. हारीत सूत्रकार इ.स. 400 से 700 के बीच कालखण्ड में रचित । इस स्मृति में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के धर्म व आचार, यज्ञोपवीत धारण करने बाद ब्रह्मचर्य का पालन, विवाहोपरान्त गृहस्थ के आचार, वानप्रस्थ