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के ग्रंथों में 8 वें सर्ग तक के ही उदाहरण मिलते हैं। इस महाकाव्य में अनेक रमणीय व सौंदर्यस्थलों के अलावा हिमालय, पार्वती की तपस्या, वसंतागमन, शिव-पार्वती -विवाह, रति-क्रीडा आदि के विवरण हैं।
प्रस्तुत महाकाव्य के प्रथम सर्ग में शिव के निवासस्थान हिमालय का मनोरम वर्णन है। हिमालय का मेना से विवाह व पार्वती का जन्म, पार्वती का रूप-चित्रण, नारद द्वारा शिव-पार्वती के विवाह की चर्चा तथा पार्वती द्वारा शिव की । आराधना आदि घटनाएं वर्णित हैं। दूसरे सर्ग में तारकासुर से पीडित देवगण ब्रह्मा के पास जाते हैं कि शिव के वीर्य से सेनानी का जन्म हो, तो वे तारकासुर का वध कर देवताओं के उत्पीडन का अन्त कर सकते हैं। तृतीय सर्ग में इंद्र के आदेश से कामदेव शिव के आश्रम में जाते हैं और वे चारों ओर वसंत ऋतु का प्रभाव फैलाते हैं। उमा सखियों के साथ जाती है और उसी समय कामदेव अपना बाण शिव पर छोडते हैं। शिव की समाधि भंग होती है और उनके मन में चंचल विकार दृष्टिगोचर होने से क्रोध उत्पन्न होता है। वे कामदेव को अपनी ओर बाण छोड़ने के लिये उद्यत देखते है और तृतीय नेत्र खोल कर उन्हें भस्मसात् कर देते हैं। चतुर्थ सर्ग में कामदेव की पत्नी रती, करुण विलाप करती है। वसंत उसे सांत्वना देता है किन्तु वह संतुष्ट नहीं होती। वह वसंत से चिता सजाने को कह कर अपने पति का अनुसरण करना ही चाहती है कि उसी समय आकाशवाणी उसे वैसा करने से रोकती है। उसे अदृश्य शक्ति के द्वारा यह वरदान प्राप्त होता है कि पति के साथ उसका पुनर्मिलन होगा। पंचम सर्ग में उमा, शिव की प्राप्ति के लिये तपस्या -निमित्त अपनी माता से आज्ञा प्राप्त करती है। वह फलोदय पर्यंत साधना में निरत होना चाहती है। माता-पिता के मना करने पर भी स्थिर निश्चय वाली उमा अंत तक अपने हठ पर अटल रहती है और घोर तपस्या में लीन होकर, नाना प्रकार के कष्टों को सहन करती है। उसकी साधना पर मुग्ध होकर बटुरूपधारी शिव का आगमन होता है। वे शिव के अवगुणों का वर्णन कर उमा का मन उसकी ओर से हटाने का प्रयास करते हैं पर उमा अपने अभीष्ट देव की उद्वेगजनक निंदा सुनकर भी अपने पथ पर अडिग रहती है और उग्रता व तीक्ष्णता से बटुक के आरोपों का प्रत्युत्तर देती है। पश्चात् प्रसन्न होकर साक्षात् शिव प्रकट होते हैं और उमा को आशीर्वाद देते हैं। छठे सर्ग में शिव का संदेश लेकर सप्तर्षिगण हिमवान् के पास जाते हैं। सप्तम सर्ग में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है। शिव व उसकी बारात को देखने के लिए उत्सुक नारियों की चेष्टाओं का मनोरम वर्णन किया गया है। आठवें सर्ग में शिव-पार्वती का कामशास्त्रानुसार रति-विलास तथा आमोद -प्रमोद का वर्णन है।
कुमारसम्भवम् के प्रमुख टीकाकार- 1) मल्लिनाथ। 2) कृष्णपति शर्मा। 3) कृष्णमित्राचार्य। 4) गोपालनन्द 5) गोविन्दराम। 6) चरित्रवर्धन। 7) जिनभद्रसूरि। 8) नरहरि । 9) प्रभाकर । 10) बृहस्पति 11) भरतसेन। 12) भीष्म मिश्र 13) मुनि मतिरत्न। 14) रघुपति। 15) वत्स (या व्यासवत्स)। 16) आनन्ददेव। 17) वल्लभदेव। 18) विन्ध्येश्वरी- प्रसाद 19) हरिचरणदास 20) नवनीतराम मिश्र । 21) भरत मल्लिक 22) जयसिंह 23) लक्ष्मीवल्लभ। 24) दक्षिणावर्तनाथ। 25) विद्यामाधव 26) नन्दगोपाल। 27) सीताराम। 28) नारायण। 29) हरिदास 30) अरुणगिरिनाथ । 31) गोपालदास। 32) तर्कवाचस्पति। 33) सरस्वतीतीर्थ । 34) रामपारस 35) जीवानन्द विद्यासागर और 36) कुमारसेन । कुमारसम्भवम् (नाटक) - ले. जीवन्यायतीर्थ । जन्म 1894 । प्रणव-परिजात पत्रिका में प्रकाशित। उज्जयिनी के कालिदास समारोह में अभिनीत। अंकसंख्या- पांच कालिदास विरचित कुमारसम्भव काव्य का शत प्रतिशत दृश्यरूप। किरतनिया नाटक परम्परा के स्तुतिगीतों की भरमार है। कुमारसंभव-चम्पू - ले. तंजौर के शासक महाराज शरफोजी द्वितीय (शंभुजी)। (व्यंकोजी का द्वितीय पुत्र) । शासनकाल 1800 ई. से 1832 ई. तक। यह काव्य 4 आश्वासों में विभक्त है और महाकवि कालिदास के "कुमारसंभव" के अनुसार इसकी रचना की गई है। इसका प्रकाशन वाणीविलास प्रेस, श्रीरंगम् से 1939 में हुआ है। कुमारसंहिता - श्लोक- 250। अध्याय- 10। ब्रह्मा-शिव संवाद रूप तांत्रिकग्रंथ। विषय- विद्या गणेश-मन्त्रोद्धार, पुरश्चरण पूजा, पंचमाचरण, वशीकरणादि प्रयोग, होमविधि, संग्रामविजय, वांछाकल्पलता, मन्त्रविधान इत्यादि। कुमारीतन्त्रम् - इस नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध है। 1) श्लोक- 300 । नौ पटलों में पूर्ण। यह तन्त्र पूर्व भाग और उत्तर भाग में विभक्त है। विषय- कालीकल्प अर्थात काली की पूजा है। 2) श्लोक 250 । पटल 10। परम-हरकालीतन्त्र का यह पूर्वभाग है।
3) श्लोक- 300 । पटल- 91 विषय- अन्तर्याग, बहिर्याग। नैवेद्य, पुरश्चरणविधि, कुलाचारविधि, पूजा के स्थान, आचारविधि तथा कालीकल्प। इसका श्मशान में 10 हजार जप करने से शत्रुमारण होता है। यह कालीकल्प अति गोपनीय कहा गया है। इसके गोपन से सर्व सिद्धियां प्राप्त होती हैं और प्रकाशन से अशुभ होता है। कुमारीविजयम् - ले. घनश्याम आर्यक। कुमारीविलसितम् - ले. सुन्दर सेन। विषय- कन्याकुमारी देवी की कथा। कुमारीहृदयम् - यह नंदि-शंकर संवाद रूप मौलिक तन्त्र है।
76/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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