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उच्छिष्टगणेशपंचांगम् -श्लोक- 290। उमा-महेश्वर संवादरूप, तांत्रिक ग्रंथ। रुद्रयामलान्तर्गत 1 उच्छिष्टगणेशपटल
2 उच्छिष्ट गणेशपूजन
गणेशकवच रुद्रयामलान्तर्गत 4 उच्छिष्टगणेश सहस्रनाम और
5 उच्छिष्टगणेशस्तोत्र इसमें वर्णित हैं। उच्छिष्टचाण्डलीकल्प - (1) श्लोक- 106। इसमें उच्छिष्टचाण्डाली देवता की पूजा का विवरण है। विशेष रूप से मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि तांत्रिक षट्कर्मों की पूर्वपीठिका के रूप में रुद्रयामल तन्त्र से प्रदीर्घ अंश उद्धृत किया गया है। इसमें दक्षिणकाली की पूजाविधि भी रुद्रयामल से ही गृहीत है। पुष्पिका में इस ग्रंथ का अपर नाम "सुमुखीकल्प" भी दिया गया है। उच्छिष्टपुष्टिलेश - ले.- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। विदर्भवासी। उच्छंखलम् - सन 1940 में वाराणसी से इस पाक्षिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस पत्र के सम्पादक कल्पित नामधारी श्री सिद्धिसिंग तैलंग थे, किन्तु उनका वास्तविक नाम माधवप्रसाद मिश्र गौड था। यह पत्र पूर्णिमा और अमावस्या को प्रकाशित होता था। इसका वार्षिक मूल्य दो रुपये तथा प्रति अंक का मूल्य दो आने था। हास्यरस प्रधान इस पत्र 'में अश्लील हास्यों का प्रकाशन भी होता था।
अजन
ना, जडी-बटीना , भूत ब्रह्म
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अडामरतंत्रम् - 1. श्लोक - 550 । पटल- 15। इस के तृतीय पटल में अंजनाधिकार, छठवें में पुरुषवश्याधिकार, 13 वें में भूतभैरव, 14 और 15 वें में मन्त्रकोष इत्यादि तांत्रिक विषय वर्णित हैं।
2. विषय - कार्तवीर्यपध्दति, कार्तवीर्यमन्त्र, कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रविधान कार्तवीर्यार्जुन सहस्त्रनाम, कार्तवीर्यस्तवराज, चण्डिका- पूजाविधि, दत्तात्र्येयकल्प, दत्तात्रेयकवच, दत्तात्रेयविषयक मन्त्रादि, पंजर-विधान, परादेवीसूक्त, प्रत्यंगिराकल्प, भैरवसहस्रनामस्तोत्र आदि। उड्डामरेश्वरतन्त्रम् - श्लोक - 760। पटल 16। यह महातन्त्र रुद्रयामल से उध्दत महादेव-पार्वती संवादरूप है। इसमें उच्चाटन, विद्वेषण, मारण आदि की सिध्दि करा देना, फोडे, फुसियां पैदा करा देना, जल रोक देना, खेत की खडी फसल उजाड देना, पागल और अन्धा बना देना, विष उतार देना, अंजन सिध्द कर देना, मन उच्चाटन कर देना, भूत ब्रह्मराक्षस आदि को पीछे लगा देना, जडी-बुटी उखाडने की विधि, नारी के गर्भधारण का उपाय, नानाप्रकार की औषधियों का प्रयोग, वश में करने वाले तिलक अंजन आदि का निर्माण, डाकिनीदमन, यक्षिणियों का साधन, चेटक-साधन, नाना सिध्दियों के उत्पादक मन्त्र, विविध प्रकार के लेप, मन्त्रों के अभिषेक का फल
और विधि, महावृष्टि, रोगशान्ति, वशीकरण, आकर्षण आदि सिध्दियों का साधन , विद्याधर बन जाना, खडाऊ और वेताल की सिध्दि कर लेना, अदृश्य हो जाना आदि विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। उड्डीशतन्त्रम् - श्लोक सं-496 । यह गौरी-शंकर संवादरूप ग्रन्थ 11 पटलों में पूर्ण है। इसमें प्रतिपादित मन्त्रों का एकान्त में जप करना चाहिये एवं इसमें उक्त देवी देवताओं और मन्त्रों का श्रध्दायुक्त मन से ध्यान करना चाहिए। यह कौल तन्त्र विविध प्रकार के टोने, टुटके, झाड-फूकं, आदि का प्रतिपादन करता है। प्रांरभिक वाक्य द्वारा यह मन्त्रचिन्तामणि कहा गया है। इस ग्रंथ की प्रतियों के विभिन्न पटलों की पुष्टिकाएं इसका विभिन्न नामों से निर्देश करती हैं जैसे उड्डामरेश्वरतन्त्र , उड्डीश वीरभद्रतन्त्र, वीरभद्रोड्डीश, रावणोड्डीश आदि । उड्डीश-उत्तरखण्ड - पटल- 6। कुछ गद्यांश । श्लोक350। शिव-कालिका संवादरूप। यद्यपि यह 'उड्डीश है पर इसका वशीकरण आदि तांत्रिक षट्कमों से कोई सम्बन्ध नहीं। यह एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक विचारों का प्रतिपादक ग्रंथ है। उड्डीशवीरभद्रम् - श्लोक- 320। पांच पटल। उणादिकोश - ले. रामचंद्र तर्कवागीश। ई. 17 वीं शती। विषय- व्याकरण। उणादि-मणिदीपिका - ले.- रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं निवासी। ई. 17 वीं शती। विषय- व्याकरण ।
उज्वलनीलमणि - एक काव्यशास्त्रीय मान्यताप्राप्त ग्रंथ। प्रणेता रूप गोस्वामी (ई. 16 वीं शती) प्रस्तुत ग्रंथ में "मधुरश्रृंगार" का निरूपण है और नायक-नायिका भेद का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें श्रृंगार का स्थायी भाव प्रेमरति को माना गया है और उसके 6 विभाग किये गये हैं। स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग व भाव। इस ग्रंथ में नायक के 4 प्रकार के दो विभाग किये गये हैं। पति व उपपति एवं उनके भी दक्षिण, धृष्ट, अनुकूल व शठ के नाम से 96 प्रकारों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार नायिका के 2 विभाग किये गये हैं, स्वकीया व परकीया और पुनः उनके अनेक प्रकारों का उल्लेख किया गया है। ___ ग्रंथ प्रणेता रूपगोस्वामी के भतीजे जीवगोस्वामी ने इस ग्रंथ पर "लोचनरोचनी" नामक टीका लिखी है। इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। उज्ज्वला - ले.- गोपीनाथ मौनी। यह तर्कभाषा की एक टीका है। उज्ज्व ला - ले.- हरदत्त। ई. 15-16 वीं शती। आपस्तम्ब धर्मसूत्र की उत्तम व्याख्या। उज्ज्वलानन्दचम्पू - ले.- •मुडुम्बी वेङ्कटराम नरसिंहाचार्य ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 35
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