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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारायणतीर्थ । उनका यह नाम संन्यास लेने के बाद का है। प्रस्तुत काव्य में उन्होंने स्वयं का निर्देश शिवरामानन्दतीर्थ पादसेवक कहकर किया है क्योंकि वे उनके गुरु थे। ई. 17 वीं शती में हुए नारायणतीर्थ के इस काव्य में 12 तरंग हैं। यह, भागवत के दशमस्कंध पर आधारित है। इसमें कृष्ण के जन्म से लेकर कृष्ण-रुक्मिणी विवाह तक का कथा-भाग गुंफित है। प्रासादिक भाषा को संगीत का साथ मिलने से सोने में सुहागा वाली उक्ति इस गेय काव्य में चरितार्थ हुई है। इस काव्य ग्रंथ में 36 राग मिलते हैं जिनमें मंगलकाफी सर्वथा नवीन राग है। श्रीकृष्णविजम् (व्यायोग) • ले.- रामचंद्र बल्लाल। ई. 18 वीं शती। श्रीरंगनायक के शारदोत्सव में अभिनीत । कृष्ण के रुक्मिणी को युद्ध द्वारा प्राप्त करने की कथा। श्रीकृष्णविजयम् (डिम) - ले.- वेङ्कवरद। ई. 18 वीं शती। (पूर्वार्ध) प्रथम अभिनय श्रीमुष्णपुर- नायक वेङ्कटेश भगवान् की सभा में यज्ञ के अवसर पर। पंचम यवनिका के बाद के कुछ अंश तक उपलब्ध । पुरानी परम्परा से किंचित् भिन्न प्रकार का यह डिम है। पात्रसंख्या- सोलह । तृतीय यवनिका में आद्यन्त केवल सूचनाएं हैं। कथासार- अर्जुनसुभद्रा परिणय की कथा। कृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि वे उसका सुभद्रा के साथ विवाह अवश्य करा देंगे। वे अर्जुन को त्रिदण्डी संन्यास दिलवाकर यतिवेष में प्रस्तुत करते हैं। बलराम यति को प्रमदवन में ठहराकर सुभद्रा को उसकी सेवा हेतु नियुक्त करते हैं। उनका गान्धर्व विवाह होता है। बाद में देवदेवता सम्मिलित होकर विधिवत् उनका पाणिग्रहण कराते हैं। प्रमुख रस शृंगार है जो डिम रूपक में वर्जित है। डिम की कथावस्तु में रौद्ररस आवश्यक है जिसका इस कति में अभाव है। चार के स्थान पर पांच अंक (यवनिका) है। डिम में वर्जित विष्कम्भक और प्रवेशकों की भी प्रचुरता है। श्रीकृष्णशृंगार-तरंगिणी (नाटक) - ले.- वेंकटाचार्य। ई. 18 वीं शती। वर्णनपरक पद्यों का बाहुल्य । अंकसंख्या- पांच । चुम्बन, आलिंगन इ. का प्रयोग। प्रधान रस शृंगार। कथासारनारद से प्राप्त पारिजात पुष्प, कृष्ण रुक्मिणी को देते हैं। यह देख सत्यभामा रुष्ट होती है। उसे मनाने कृष्ण कहते हैं कि कल मैं इन्द्रालय से पारिजात लाकर तुम्हें दूंगा। विश्वावसु यह वार्ता इन्द्र को बताता है। नारद कृष्ण से कहते हैं कि इन्द्र आप पर क्रुद्ध हैं। इन्द्र और कृष्ण में युद्ध होता है जिसमें कृष्ण की जय होती है। अंतिम अंक में कृष्ण तथा सत्यभामा का प्रणय प्रसंग है। श्रीकृष्णसंगीतिका - ले.- श्रीधर भास्कर वर्णेकर। नागपुर-निवासी। भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन की प्रमुख घटनाएं गीतिनाट्य की पद्धति से चित्रित की हैं। अंत में भगवद्गीता अठारह गीतों में निवेदित है। कुल गीतसंख्या-1501 श्रीकृष्ण-स्तवराज - ले.- निंबार्क। द्वैताद्वैत मत के प्रतिपादक 25 श्लोकों का कृष्ण-स्तुति-परक ग्रंथ। इसकी 3 व्याख्याएं प्रकाशित हैं। (1) श्रुत्यंत-सुरद्रुम, (2) श्रुति-सिद्धांत-मंजरी और (3) श्रुत्यंत-कल्पवल्ली । श्रीकृष्णाभ्युदयम् - ले.- श्रीशैल दीक्षित। "श्रीभाष्यं तिरुमलाचार्य' तथा 'कादम्बरी-तिरुमलाचार्य' उपाधियां प्राप्त । श्रीक्रमचन्द्रिका - ले.- रामभट्ट सभारंजक। श्लोक- 1000, परिच्छेद-41 श्रीक्रमसंहिता - ले.- पूर्णानन्द परमहंस। प्रकाश-25 1 श्रीक्रमोत्तम - ले.- निजानन्द प्रकाशानन्द मल्लिकार्जुन योगीन्द्र । अध्याय-41 श्रीगुरुकवचम् - पार्वती-महादेव संवादरूप। निगमसार के अंतर्गत। विषय- कौलिकों के कुलाचार और योगियों के योगसाधन। श्रीगुरुचरित्रत्रिशती (काव्य) - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। ई. 19 वीं शती । विषय- भगवान् दत्तात्रेय के अवतारों का चरित्र । श्रीगुरुचरित्रसाहस्री - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। विषयदत्तात्रेय के अवतारों की कथा । श्रीगुरुसंहिता - गंगाधर सरस्वती द्वारा लिखित मंत्रसिद्ध मराठी ग्रन्थ का संस्कृत अनुवाद। लेखक- वासुदेवानन्द सरस्वती। विषय- दत्तात्रेय के अवतारों का चरित्र। श्रीचक्रपूजनम् - ले.- कमलजानन्दनाथ। श्लोक- 1200 । श्रीचक्रक्रमदर्पण - ले.- प्रकाशानन्दनाथ। श्लोक- 5400। विषय- कमलमंत्र,लीलानिघण्टु और दारकरण मंत्र। श्रीचक्रार्चनलघुपद्धति - यह पद्धति परशुरामकल्पसूत्रानुसारिणी है। श्लोक- 4201 श्रीचक्रार्चनविधि - ले.- पृथ्वीधर मिश्र। हरपुर निवासी। पिता- जगन्नाथ । श्लोक- 240 । परशुरामकल्पसूत्र के अनुसार । श्रीचन्द्रचरितम् - ले.- पं. तेजोभानुजी।। श्रीचित्रा - सन 1930 में एस. नीलकण्ठ शास्त्री के सम्पादकत्व में त्रावणकोर विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्यालय द्वारा इसका प्रकाशन प्रारंभ किया गया। इसे त्रिवेन्द्रम के महाराजा से अनुदान प्राप्त था। प्रत्येक अंक 36 पृष्ठों का होता था जिसमें विविधि साहित्य प्रकाशित होता। एन.गोपाल पिल्ले इस पत्रिका के प्रबन्धक थे। प्राप्तिस्थल अनन्तशयनस्थ संस्कृत कलाशाला, त्रिवेन्द्रम। इसका प्रकाशन सात वर्षों तक हुआ। श्रीचिह्नकाव्यम् - ले.- कृष्णलीलाशुक्र। 12 सर्ग। प्रथम आठ सर्गो में वररुचि के प्राकृत व्याकरण के उदाहरण। अन्तिम चार सर्ग शिष्य दुर्गाप्रसाद ने लिखे जिनमें त्रिविक्रमकृत व्याकरण के उदाहरण हैं। श्रीजानकी-गीतम् - ले.- गालवाश्रम। (गलता-गद्दी) के 382 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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