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ग्रंथ खण्ड अंकगणितम् - ले. - नृसिंह (बापूदेव) । ई. 19 वीं शती। मान्यता देने पर स्वामीजी की पगडी प्रसन्नता से गिरती है, अंकयंत्रम् तथा अंकयंत्रालोकः (व्याख्यासहित) - ले.-हर्ष । तब राजा को दीखता है कि स्वामी स्वयं पक्के गंजे हैं। राजा (श्लोक-120)।
उन्हें अपमानित कर भगा देता है। अंकोलकल्प - यह उन तांत्रिक मंत्रों का संग्रह है, जो
अम्बरनदीशस्तोत्र - ले. रामपाणिवाद (ई. 18 वीं शती) औषधियों के उपयोग के समय काम में लाये जाते है। मंत्र
केरल निवासी। संस्कृत में है और उनकी प्रयोगविधि हिन्दी में है।
अंबाशतक - ले. सदाक्षर (कविकुंजर) ई. 17 वीं शती। अंकयंत्रविधि - लेखक- श्रीसूर्यराम वाजपेयी के पुत्र एवं
अम्बिकाकल्प - ले. शुभचन्द्र। (जैनाचार्य) ई. 16-17 वीं
शती। विषय-तंत्रशास्त्र श्रीरामचन्द्र के शिष्य श्रीहर्ष । श्लोक-300। विषय- अंकों से बननेवाले 9 और 16 कोष्ठों के विविध मंत्रों का प्रतिपादन।
अंबुजवल्लीशतकम् - ले. वरदादेशिक । पिता- श्रीनिवास । इस पर ग्रंथकार की स्वरचित टीका है।
अंबुवाह - शेली कवि कृत 'दी क्लाउड' नामक अंग्रेजी अंगिराकल्प - (1) अंगिरा-पिप्पलाद संवादरूप। श्लोक-828 । काव्य का अनुवाद । ले. वाय. महालिंगशास्त्री। इसमें आसुरी देवी की पूजाविधि विस्तारपूर्वक वर्णित है। विषय- अंशुमत्-आगम - (नामान्तर-अंशुमद्भेद और अंशुमत्तंत्र) 28 आसुरी महामंत्र के अर्थ, उक्त मंत्र के प्रयोग की विधि, शैवागमों में अन्यतम । इसमें मन्दिर निर्माण, प्रतिमाविज्ञान आदि आत्मपूजा-विधि, आसुरी महामंत्र का माहात्म्य, अपशकुन होने वास्तुशास्त्र के विविध विषय वर्णित हैं। काश्यपमत, काश्यपशिल्प पर भी उक्त मंत्र के माहात्म्य से इष्टसिद्धि, होमविधि, छ: अथवा अंशुमत्काश्यपीय इसी के भाग हैं। किरणागम के भावनाओं का निरूपण, शत्रु को वश करने की तथा मारण अनुसार इसके प्रथम श्रोता अंशु, उनसे द्वितीय और तृतीय आदि की विधि।
श्रोता रवि हैं। उन्हीं के द्वारा इसका प्रचार हुआ। ऊपर 28 अंगिरास्मृति - रचयिता- अंगिरा ऋषि । “याज्ञवल्क्य स्मृति' शैवागमों का जो उल्लेख हुआ है उसमें 10 शिवागमों एवं में इन्हें धर्मशास्त्रकार माना गया है। अपरार्क, मेधातिथि, हरदत्त 18 भैरवागमों का समावेश है। प्रभृति धर्मशास्त्रियों ने इनके धर्मविषयक अनेक तथ्यों का अंशुमभेद - ले. काश्यप। विषय-वास्तुशास्त्र । उल्लेख किया है। "स्मृतिचंद्रिका" में अंगिरा के गद्यांश अकबरनामा - फारसी भाषा में लिखे इस ग्रंथ का संस्कृत उपस्मृतियों के रूप में प्राप्त होते है। "जीवानंद-संग्रह" में अनुवाद किसी अज्ञात कवि ने किया है। इसी फारसी ग्रंथ इस ग्रंथ के केवल 72 श्लोक प्राप्त होते है। इसमें वर्णित का अनुवाद महेश ठक्कुर ने 'सर्वदेशवृतान्त संग्रहः' इस नाम विषय है- अंत्यजों से भोज्य तथा पेय ग्रहण करना, गौ के से किया है। पीटने व चोट पहुंचाने का प्रायश्चित्त तथा स्त्रियों द्वारा नीलवस्त्र
अकलंकशब्दानुशासनम् - रचयिता-भट्ट अकलंक। इस पर धारण करने की विधि।
मंजरीमकरन्द नामक व्याख्या स्वयं अकलंक ने लिखी है। अंजनापवनंजयम् - नाटक (सात अंक) ले. हस्तिमल्ल ।
विषय-व्याकरण। पिता- गोविंदभट्ट जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। अन्तर्विज्ञानसंहिता - ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । अमरावती
अकलंकस्तोत्र - एक जैनधर्मीय स्तोत्र । कवि- अकलंक देव। (महाराष्ट्र) के निवासी । विषय-मनोविज्ञान एवं अध्यात्मविद्या ।
अकुताभया - लेखक- बुद्धपालित । यह नागार्जुन के माध्यमिक अंत्येष्टि-पद्धति - ले. नारायणभट्ट (ई. 16 वीं शती)।
कारिका पर लिखी हुई टीका है। मूल संस्कृत ग्रंथ अनुपलब्ध । पिता-रामेश्वर भट्ट, विषय-धर्मशास्त्र ।
तिब्बती अनुवाद से यह ग्रंथ ज्ञात हुआ है। अन्धबालक - दी ब्लाइंड बॉय नामक मिल्टन कृत कारुण्यपूर्ण
अकुलवीर तंत्र - ले. मत्स्येन्द्रनाथ । विषय-तांत्रिक कौलमत । अंग्रेजी काव्य का अनुवाद । ले. ए.व्ही. नारायण, मैसूरनिवासी। अकुलागममहातन्त्र - (1) (नामान्तर- योगसारसमुच्चय) अन्धैरन्धस्य यष्टिः प्रदीयते - ले. डॉ. क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय कुछ लोगों ने योगसारसमुच्चय को अकुलागममहातन्त्र के (1896-1961) "मंजूषा" के जनवरी 1955 अंक में प्रकाशित। अन्तर्गत 10 या 9 पटलों का पृथक् तंत्रग्रंथ माना है। कुछ विदेशी शैली पर विकसित लघु एकांकी। कथासार-राजा के का मत है कि योगसारसमुच्चय अकुलागम का एक पटल गंजे होने पर अमात्य वाराणसी के मुकुन्दानन्द स्वामी को है। यह "योगशास्त्रे योगसारसमुच्चयो नाम नवमः पटलः'' इस चिकित्सा हेतु बुलाता है। राजा उन्हें कभी मोदकानन्द, कभी अकुलागम के 9 वें पटल की पुष्पिका से स्पष्ट है। किन्तु मोदक-मुकुन्द, कभी मदनानन्द कहकर पुकारता है, जिससे अकुलागम और योगसार-समुच्चय के पटलों में प्रतिपादित स्वामी क्षुब्ध होते हैं। अन्त में स्वामी उपाय बताते हैं कि विषयों की तुलना करने से यही निश्चित होता है कि ये दो होम, दक्षिणा तथा भोजनदान से बाल लम्बे होंगे। राजा के ग्रंथ नहीं अपि तु एक के ही दो नाम हैं। योगसारसमुच्चय
'रणा
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/1
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