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नारदपुराण तथा महाभारत में इस पुराण का उल्लेख है। आज यह पुराण जिस स्वरूप में है वह इ.स. 200 से 300 में तैयार हुआ ऐसा श्री हाजरा का मत है। पार्गिटर का मत है कि इस पुराण का अधिकांश भाग इ.स. 200 के बहुत पूर्व रचा गया है। आपस्तंब सत्र में, (जिसका काल ईसा के 600 से 300 वर्ष पूर्व है) मत्स्यपुराण का एक उध्दरण ज्यों का त्यों लिया गया है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्यपुराण की रचना आपस्तंब-सूत्र के बहुत पहिले हुई है। श्री बलदेव उपाध्याय इसका रचनाकाल सन् 200 से 400 मानते हैं और भारतरत्न काणे इसे 6 वीं शती की रचना मानते हैं।
पारंपारिक क्रमानुसार यह 16 वां पुराण है। प्राचीनता व वर्ण्य-विषय के विस्तार तथा विशिष्टता की दृष्टि से, यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुराण है। 'वामनपुराण" में इस तथ्य की स्वीकारोक्ति है कि "पुराणों में मत्स्य सर्वश्रेष्ठ है- (पुराणेषु तथैव मात्स्यम्) । "श्रीमद्भागवत", "ब्रह्मवैवर्त' व रेवा-माहात्म्य" के अनुसार, इस पुराण की श्लोक-संख्या 19 सहस्र बताई है। परंतु पुणे के आनंदाश्रम से प्रकाशित "मत्स्य पुराण" में 291 अध्याय व 14 सहस्र श्लोक हैं।
___इस पुराण का प्रारंभ प्रलय-काल के मत्स्यावतार की घटना से होता है। इसमें सृष्टि-विद्या, मन्वंतर तथा पितृवंश का विशेष विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसके 13 वें अध्याय में वैराज-पितृवंश का, 14 वें अध्याय में अग्निष्वात्त एवं 15 वें अध्याय में बर्हिषद पितरों का वर्णन है। इसके अन्य अध्यायों में तीर्थयात्रा, पृथु-चरित, भुवन-कोष, दानमहिमा, स्कंद-चरित, तीर्थ-माहात्म्य, राजधर्म, श्राद्ध व गोत्रों का वर्णन है। इस पुराण में तारकासुर के शिव द्वारा वध की कथा, अत्यंत विस्तार के साथ कही गई है। भगवान् शंकर के मुख से काशी का माहात्म्य वर्णित कर विभिन्न देवताओं की प्रतिमाओं के निर्णय की विधि बतलायी है। इसमें सोमवंशीय राजा ययाति का चरित्र अत्यंत विस्तार के साथ वर्णित है तथा नर्मदा नदी का माहात्म्य 187 वें से 194 वें अध्याय तक कहा गया है। इसके 53 वें अध्याय में अत्यंत विस्तार के साथ सभी पुराणों की विषय-वस्तु का प्रतिपादन किया गया है, जो पुराणों के क्रमिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत उपादेय है। इसमें भृगु, अंगिरा, अत्रि, विश्वामित्र, काश्यप, वसिष्ट, पराशर व अगस्त्य प्रभति ऋषियों के वंशों का वर्णन है, जो 195 वें से 202 वें अध्याय तक दिया गया है। इस पुराण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है राज-धर्म का विस्तारपूर्वक वर्णन, जिसमें दैव, पुरुषकार, साम, दान, दंड, भेद, दुर्ग, यात्रा, सहाय, संपत्ति एवं तुलादान का विवेचन है, जो 215 वें से 243 वें अध्याय तक विस्तारित है। इस पुराण में प्रतिमा-शास्त्र का वैज्ञानिक विवेचन है, जिसमें काल-मान के आधार पर विभिन्न देवताओं की प्रतिमाओं का
निर्माण तथा प्रतिमा-पीठ के निर्माण का निरूपण किया गया है। इस विषय का विवरण 257 वें से 270 वें अध्याय तक प्रस्तुत किया गया है। मत्स्यसूक्त या मत्स्य-तन्त्र -पराशर-विरूपाक्ष संवादरूप। पटल 101 विषय-तारा, महोग्रतारा, कल्परहस्य, पूजाविधि आदि । मत्स्यसूक्तमहातन्त्रम् -पटलसंख्या- 60 । विषय-अशौच, प्रायश्चित्त, भद्रकाली आदि देवताओं का पूजन, इत्यादि । मत्स्यावतारचम्पू - ले.- नारायणभट्ट।। मत्स्योत्तरतन्त्रम् - यह योगिक क्रियाओं का प्रतिपादक तन्त्र ग्रंथ है। मथुरामहिमा - ले. रूपगोस्वामी। ई. 16 वीं शती। श्रीकृष्ण भक्ति पर काव्य। मथुरासेतु - ले.- अनन्तदेव । आपदेव के पुत्र । विषय- धर्मशास्त्र । मदनकेतुचरितम्(प्रहसन) - ले.- रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती। प्रथम अभिनय भगवान् रंगनाथ के यात्रोत्सव में हुआ। मोक्षमार्ग प्रवण बनाने वाली यह कृति है। राजा तथा भिक्षु का नवीन दिशा में व्यक्तित्व चित्रित है। कथासार - सिंहल के राजा, मदनकेतु और भिक्षु विष्णुत्रात वेश्यागामी हैं। युवराज मदनवर्मा, शिवदास नामक कापलिक योगी की सहायता से दोनों को उस भ्रष्ट आचरण से छुडाता है। दोनो सन्मार्ग पर चलने का व्रत लेते हैं। मदनगोपालमाहात्म्यम् - ले.- श्रीकृष्णब्रह्मतन्त्र परकालस्वामी । ई. 19 वीं शती। मदन-गोपाल-विलास (भाण) - ले.- गुरुराम। मूलेन्द्र (उत्तर अर्काट जिला) के निवासी। ई. 16 वीं शती। मदनपारिजात - ले.- विश्वेश्वरभट्ट। मदनपाल के आश्रित। मदनभूषण (भाण) - ले.- अप्पा दीक्षित। 17 वीं शती (उत्तरार्ध)। इसका प्रथम अभिनय कावेरी तट पर, भगवान गौरीमायूरनाथ के मन्दिर की नाट्यशाला में वसन्तोत्सव के अवसर पर हुआ। इसमें मदनभूषण नामक विट को प्रातः से शाम तक झूमते हुए जो अनुभव मिले, उनका वर्णन है। यज्ञवाट, मनोरंजन वाट, कावेरी के तट पर का उपवन पार करके वह वेशवाट पहुंचता है। मार्ग में ब्रह्मचारी, वारांगनाएं, शैलूष, ज्योतिषी, विषहर, वैद्य, नट, नर्तक, आहितुण्डिक इत्यादि मिलते हैं। फिर, पौराणिक, विद्वान, वैष्णव भक्त और रामानुजसम्प्रदायी भी मिलते हैं अन्त में वह वेशवाट पहुंचता है। समाज को नीतिशिक्षा देकर, सत्पथ की ओर उद्युक्त करने के उद्देश्य से इस भाण की रचना हुई है। मदनमंजरी-महोत्सव (नाटक) - ले.-विलिनाथ। 17 वीं शती (पूर्वार्ध)। तमिलनाडु के निवासी। अंकसंख्या-पांच। प्रथम अभिनय भगवान तेजनीवनेश्वर के चैत्रयात्रा महोत्सव के अवसर पर। परधान रस शृंगार । बीच बीच में हास्य का पुट । अनुप्रास,
248 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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