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षट्कर्म, उच्चाटन विधि, विद्वेषण, स्तंभन आदि की विधियां, काव्यकल्पद्रुम - सन् 1897 में कोमाण्टूर श्रीनिवास अयंगार अदर्शनक्रम, . आकर्षणविधि, वशीकरणविधि, गुरुचरण, के संपादकत्व में बंगलोर से संस्कृत और कन्नड में प्रकाशित । चिन्तनप्रकार इत्यादि।
इस मासिक पत्रिका में कुमारसंभव, मेघदूत आदि संस्कृत ग्रंथों कालीस्तवराज - श्लोकसंख्या 36। यह कालीहृदयान्तर्गत
की टीकाएं प्रकाशित होती रहीं। कालभैरव-परशुराम' संवादरूप महाकाली की स्तुति है।
काव्यकल्पलता - इसका आरंभिक अंश अरिसिंह ने लिखा कालीहृदयम् - इसमे माँ काली का प्रदीर्घ मन्त्र है जो 'हृदय' । था और उसकी पूर्ति अमरचंद्र ने की थी। रचनाकाल -13 कहलाता है। यह देवीयामल के अन्तर्गत है।
वीं शताब्दी का मध्य। अमरचंद्र ने इस पर वृत्ति की भी कालोत्तरतन्त्रम् - (नामान्तर- बृहत्कालोत्तर-शिवशास्त्रम्)
रचना की है। इन दोनों ग्रंथों की रचना 4 प्रतानों में हुई है यह शिव-कार्तिकेय-संवादरूप महातंत्र है। अभिनवगुप्त ने अपने
तथा प्रत्येक प्रतान अनेक अध्यायों में विभक्त है। चारों प्रतानों त्रिंशिकातत्त्वविवरण में इसका उद्धरण दिया है। यह 40 पटलों
के वर्णित विषय हैं :- छंदःसिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि एवं में पूर्ण है। पटलों के नामों से ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण
अर्थसिद्धि। इस ग्रंथ में काव्य की व्यावहारिक शिक्षा प्रदान तान्त्रिक क्षेत्र पर यह प्रकाश डालता है। कहीं पर इसके 32
करने वाले तथ्यों द्वारा कविशिक्षा का वर्णन है। ही पटलों का उल्लेख है।
काव्यकादम्बिनी - 1896 में लश्कर (ग्वालियर) से इस कौलोपनिषद् - सूत्र रूप में लिखा एक तांत्रिक उपनिषद् ।
मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसे राजकीय अनुदान विषय-कौलमार्गी साधन का विवेचन। कौलसाधक अपना रहस्य
प्राप्त था। यह पत्रिका केवल दो वर्षों तक प्रकाशित हुई। सदा गुप्त ही रखे। सभी के प्रति समत्त्वबुद्धि रखे यह इसका
इसके संपादक जानूलाल सोमाणी तथा निरीक्षक रघुपति शास्त्री संदेश है।
थे। इस पत्रिका की यह विशेषता रही कि इसमें केवल काल्यूवा॑म्नायतन्त्रम् - (ऊर्ध्वाम्नाय) देवी-ईश्वर संवादरूप
समस्या-पूर्तियों का ही प्रकाशन होता था। प्रत्येक अंक में महातंत्र। श्लोक - 4881 5 पटलों में पूर्ण । विषय- उर्धाम्नाय
पचास से अधिक विद्वानों की समस्या पूर्तियां प्रकाशित होती थी। की प्रस्तावना। देवता, गुरु और मन्त्रों में ऐक्यभावना ।
काव्यकुसुमांजलि - ले.विश्वेश्वर विद्याभूषण । ई. 20 वीं शती। शरीर-निरूपण। पशुरूप विश्व, निर्गुण और निर्विकार परमात्मा काव्यकौतुकम् - इस काव्यशास्त्र विषयक प्रसिद्ध ग्रंथ के से जगत् की सृष्टि, प्रकृति से महत्त्व आदि की उत्पत्ति । परा लेखक थे अभिनवगुप्ताचार्य के गुरु भट्ट तौत। इस ग्रंथ में पश्यंती, मध्यमा, वैखरी के भेद से विविध शक्ति का निरूपण। शांतरस को सर्वश्रेष्ठ रस सिद्ध किया गया है। इस ग्रंथ पर कर्मेंद्रियों के अधिष्ठाताओं का निरूपण। क्रियाशक्ति ज्ञानशक्ति अभिनवगुप्त ने 'विवरण' नामक टीका लिखी थी जिसका आदि, पंचीकरण की प्रक्रिया । शरीर की प्रणवाकारता, स्थूल ' निर्देश उनके "अभिनवभारती' में है। "काव्य-कौतुक" सांप्रत सूक्ष्म आदि शरीरों की ब्रह्मा विष्णु आदि रूपता। दक्षिण उपलब्ध नहीं' है किन्तु इसके मत "अभिनवभारती" क्षेमेंद्र नेत्रगत काल की राम, कृष्ण नारायण आदि रूपता। अजपा
कृत "औचित्य-विचारचर्चा'' हेमचंद्र कृत "काव्यानुशासन" व की द्विविधता। शरीरोत्पत्ति, नाडी, सन्धि आदि की संख्या । माणिक्यचंद्रकृत काव्यप्रकाश की "संकेत" टीका इत्यादि ग्रंथों शरीर के विशेष अवयवों में 27 नक्षत्रों की अवस्थिति, इसी में बिखरे हुए दिखाई देते हैं। "अभिनवभारती' के अनेक तरह 15 तिथियों की अवस्थिति, शरीरस्थ राशिचक्र, षट्चक्र
स्थलों में भट्ट तौत के मत को उपाध्यायाः या “गुरवः" के तथा देह में 14 लोकों की स्थिति, शरीर में जीव का स्थान । नाम पर उद्धृत किया गया है। “काव्यकौतुक" का रचना-काल काली का नन्द-गृह में कृष्णरूप में तथा सुन्दरी का राधा के ई. 950 से 980 ई. के बीच माना गया है। इस ग्रंथ के रूप में अवतार। पक्ष्मों का वृन्दावनत्व और उसमें कृष्ण के अनुसार शांतरस मोक्षप्रद होने के कारण, सभी रसों में श्रेष्ठ अवस्थान, तत्त्वज्ञान और उसके साधन की प्रक्रिया। छायासिद्धि है। मोक्षफलत्वेन चायं (शांतरसः) परमपुरुषार्थ-निष्ठत्वात् तथा योगसाधन के प्रकार। बीजोद्धार, दैहिकस्थान के भेद से सर्वरसेभ्यः प्रधानतमः। स चायमस्मददुपाध्याय- भट्टतौतेन जल के गंगाजल, अमृत, देहरक्षक आदि नामभेद। काली काव्यकौतुके अस्माभिश्च तद्विवरणे बहुतरकृतनिर्णयः पूर्वपक्षसिद्धांत नाम का निर्वचन, योगियों की मानसीपूजा, वीरों के अन्तर्याग . इत्यलं बहुना। (लोचन,कारिका 3-26) हेमचंद्र ने अपने की शैली। ज्ञानरूप चक्र के स्थान। सगुण और निर्गुण भेद "काव्यानुशासन" में प्रस्तुत "काव्य-कौतुक" ग्रंथ के 3 श्लोक से विविध शांभव चक्र इत्यादि ।
उद्धृत किये हैं।
काव्यकौमुदी [1] - ले. देवनाथ तर्कपंचानन। ई. 17 वीं कावेरीगद्यम् - ले. श्रीशैल दीक्षित। विषय- प्रवास वर्णन। शती। काव्यप्रकाश पर टीका। मम्मट पर विश्वनाथ द्वारा किये काव्यकलानिधि - ले. कृष्णसुधी
गये आक्षेपों का खण्डन इस टीका में है। काव्यकल्पचम्पू - ले. महानन्द धीर ।
[2] ले. म.म. हरिदास सिद्धान्तवागीश। ई. 20 वीं शती।
64/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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