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प्रायश्चित्तसुधानिधि - ले- सायणाचार्य। ई. 13 वीं शती। धर्मशास्त्रान्तर्गत आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त विषयक विवेचन। प्रायश्चित्तसुबोधिनी-ले-श्रीनिवास मखी। (आपस्तम्बीय)। प्रायश्चित्तशतद्वयी - ले- भास्कर। चार प्रकरणों में। 1550 ई. के पूर्व । टीका- वेंकटेश वाजपेयी द्वारा । (1584-5 ई.)। प्रायश्चित्तशतद्वयी-कारिका - ले- गोपालस्वामी। प्रायश्चित्त-श्लोकपद्धति - ले- गोविन्द । प्रायश्चित्तसेतु - ले- सदाशंकर । प्रायश्चित्ताध्याय - यह महाराज सहस्रमल्ल श्रीपति के पुत्र महादेव के निबन्धसर्वस्व का तृतीय अध्याय है। प्रायश्चित्तानुक्रमणिका - ले- वैद्यनाथ दीक्षित। प्रायश्चित्तेन्दुशेखर और प्रायश्चित्तेन्दुशेखरसारसंग्रह- लेनागोजिभट्ट । शिवभट्ट एवं सती के पुत्र । 1781-82 ई. में रचित । प्रायश्चित्तोद्धार - ले- दिवाकर। महादेव के पुत्र। (इसके अन्य नाम हैं : स्मार्तप्रायश्चित्त एवं स्मार्तनिष्कृतिपद्धति)। प्रायश्चित्तोद्योत - ले- दिनकर। (दिनकरोद्योतका अंश)। प्रायश्चित्तौघसार - इसमें अपराधों को चार शीर्षकों में बांटा गया है। (1) घोर, (2) महापराध, (3) मर्षणीय (क्षन्तव्य) एवं (4) लघु । इनके प्रायश्चित्तों का विवरण इसका विषय है। प्रायश्चित्तरत्नमाला - ले- रामचंद्र दीक्षित। प्रायश्चित्तरत्नाकर - ले- रत्नाकर मिश्र । प्रायश्चित्तरहस्यम् - ले- दिनकर । स्मृतिरत्नावली में उल्लिखित । प्रायश्चित्तवारिधि - ले- भवानन्द। प्रायश्चित्तविधि - ले- मयूर अप्पय दीक्षित। इसमें हेमाद्रि एवं माधव का उल्लेख है। (2) ले- शौनक। (3) लेअज्ञात श्लिोक- 800। कामिकतंत्र, क्रियाक्रमद्योतिका तथा दीक्षाशास्त्र से संगृहीत। (4) ले- भास्कर । प्रायश्चित्तविधिपटलादि- श्लोक- 2000। विषय- प्रतिष्ठा और। उत्सवविधि। प्रायश्चित्तविनिर्णय - ले- यशोधरभट्ट। (2) ले- भट्टोजी। प्रायश्चित्तविवेक - ले- श्रीनाथ। ई. 15-16 वीं शती। (2) ले- शूलपाणि। जीवानन्दद्वारा मुद्रित। इस पर गोविंदानन्दकृत तत्त्वार्थकौमुदी, रामकृष्णकृत "कौमुदी" और अज्ञात लेखक-कृत निगूढ प्रकाशिका नामक तीन टीकाएं लिखी गई हैं। प्रायश्चित्तव्यवस्थासंग्रह - ले- मोहनचंद्र । प्रायश्चित्तव्यवस्थासंक्षेप - ले- न्यायालंकार, चिन्तामणि भट्टाचार्य । इन्होंने तिथि, व्यवहार उद्धार, श्राद्ध, दाय पर भी “संक्षेप" लिखा है। ई. 17 वीं शती। प्रायश्चित्तव्यवस्थासार - ले.. अमृतनाथ । प्रासंगिकम् - ले- हरिजीवन मिश्र। ई. 17 वीं शती। प्रहसन
कोटि की रचना। शाब्दिक क्रीडा द्वारा हास्य रस की निर्मिति । कथासार- महाराज प्रताप पंक्ति का मंत्री प्रकृष्टदेव 'प्र' का प्रचारक है। केरलीय भट्ट 'प्र' का विरोधी। दोनों में वाग्युद्ध होता है जो योनिमंजरी नामक वेश्या के आगमन से समाप्त होता है। अब दूसरा विवाद चलता है कि योनिमंजरी के पुत्र का पितृत्व किसका है। दोनों राजा से निर्णय चाहते हैं इतने में एक वानर प्रकृष्टदेव की पत्नी प्रकृतिप्रिया का धर्षण करता है- भागने पर अन्तःपुर में घुसता है और उसके पीछे राजा भी दौडता चला जाता है। प्रासभारतम् - ले- सूर्यनारायण । प्रासाददीपिकामंत्रटिप्पनम् - तांत्रिक संग्रह ग्रंथ । 28 आह्निकों में पूर्ण। विषय- मन्दिरप्रतिष्ठा आदि विविध विषय । प्रासादप्रतिष्ठा - (1) ले- नृहरि (पण्ढरपुर उपाधि) प्रतिष्ठामयूख एवं मत्स्यपुराण पर आधारित ग्रंथ। (2) ले- भागुणिमिश्र । प्रासादशिवप्रतिष्ठाविधि - ले- कमलाकर। प्रासादप्रतिष्ठादीधिति - ले- अनन्तदेव। राजधर्मकौस्तुभ का अंश। प्रिन्सपंचाशत् - ले- कवि- राजा सर सुरेन्द्रमोहन टैगोर। इस खण्ड काव्य में प्रिन्स ऑफ वेल्स की प्रशंसा है। प्रियदर्शिका (नाटिका)- ले- महाराज हर्षवर्धन। अंकसंख्या चार। इसका नामकरण नायिका प्रियदर्शिका के नाम पर किया गया है। इसकी कथावस्तु गुणाढ्य की "बृहत्कथा" से ली गई है और रचनाशैली पर महाकवि कालिदास कृत "मालविकाग्निमित्र" का प्रभाव है। इसमें कवि ने वत्सनरेश महाराज उदयन तथा महाराज दृढवर्मा की दुहिता प्रियदर्शिका की प्रणय-कथा का वर्णन किया है। नाटिका के प्रारंभ में कंचुकी विनयवसु, दृढवर्मा का परिचय प्रस्तुत करता है। इसमें यह सूचना प्राप्त होती है कि दृढवर्मा ने अपनी पुत्री राजकुमारी प्रियदर्शिका का विवाह कौशांबी-नरेश वत्सराज के साथ करने का निश्चय किया था पर कलिंग नरेश की ओर से कई बार प्रियदर्शिका की याचना की गई थी। अतः कलिंगनरेश, दृढवर्मा . के निश्चय से क्रूद्ध होकर उसके राज्य में विद्रोह निर्माण कर देता है और दोनों पक्षों में उग्र संग्राम होने लगता है। कलिंग-नरेश, दृढवर्मा को बंदी बना लेता है किंतु कंचुकी, दृढवर्मा की पुत्री प्रियदर्शिका की रक्षा कर उसे वत्सराज उदयन के प्रासाद में पहुंचा देता है और वहां महारानी वासवदत्ता की दासी के रूप में वह रहने लगती है। उसका नाम आरण्यका रखा जाता है। द्वितीय अंक में वासवदत्ता के लिये पुष्पावचय करती हुई। आरण्यका के साथ सहसा उदयन का साक्षात्कार होता है और वे दोनों एक-दूसरे के प्रति अनुरक्त हो जाते हैं। जब प्रियदर्शिका रानी के लिये कमल का फूल तोडती है तो सहसा भौरों का झंड आ
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 211
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