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रूपक, अपहृति, समासोक्ति, संशय, सम, उत्तर, अन्योक्ति, प्रतीप, अर्थातरन्यास, उभयन्यास, भ्रांतिमान्, आक्षेप, प्रत्यनीक, दृष्टान्त, पूर्व, सहोक्ति, समुच्चय, साम्य व स्मरण इन 21 अलंकारों का विवेचन है। नवम अध्याय में अतिशयगत 12 अलंकारों का वर्णन है। अलंकारों के नाम हैं- पूर्व, विशेष, उत्प्रेक्षा, विभाव, तद्गुण, अधिक, विशेष, विषम, असंगति, पिहित, व्याघात व अहेतु। दशम अध्याय में अर्थश्लेष का विस्तृत वर्णन है तथा उसके 10 भेद वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं : अविशेषश्लेष, विरोधश्लेष, अधिकश्लेष, वक्रश्लेष, व्याजश्लेष, उक्तिश्लेष, असंभवश्लेष, अवयवश्लेष, तत्त्वश्लेष, । व विरोधाभासश्लेष। एकादश अध्याय में अर्थदोष वर्णित हैं। अपहेतु, अप्रतीत, निरागम, असंबद्ध, ग्राम्य इत्यादि। द्वादश अध्याय में काव्य-प्रयोजन, रस, नायक-नायिका -भेद, नायक के 4 प्रकार तथा अगम्य नारियों का विवेचन है। त्रयोदश अध्याय में संयोग श्रृंगार, देशकालानुसार नायिका की विभिन्न चेष्टाएं, नवोढा का स्वरूप व नायक की शिक्षा वर्णित है। चतुर्दश अध्याय में विप्रलंभ श्रृंगार के प्रकार, मदन की 10 दशाएं, अनुराग, मान, प्रवास करुण, श्रृंगाराभास व रीतिप्रयोग के नियम वर्णित हैं। पंचदश अध्याय में वीर, करुण, बीभत्स, भयानक, अद्भुत, हास्य, रौद्र, शांत व प्रेयान तथा रीतिनियम वर्णित हैं। षोडश अध्याय में वर्णित विषयों की सूची इस प्रकार है- चतुवर्गफलदायक काव्य की उपयोगिता, प्रबंधकाव्य के भेद, महाकाव्य, महाकथा, आख्यायिका, लघुकाव्य तथा कतिपय निषिद्ध प्रसंग
प्रस्तुत ग्रंथ की एकमात्र टीका नमिसाधु की प्राप्त होती है। वल्लभदेव और आशाधर की टीकाएं उपलब्ध नहीं हैं। संप्रति इसकी दो हिन्दी व्याख्याएं उपलब्ध हैं 1) डॉ. सत्यदेव चौधरी कृत 2) रामदेव शुक्ल कृत। काव्यालंकार-सारसंग्रह- ले. उद्भट , जो काश्मीरनरेश जयापीड के सभापंडित थे। समय ई. 8-9 शती। अलंकार विषयक इस ग्रंथ में 6 वर्ग, 79 कारिकाएं एवं 41 अलंकारों का विवेचन है। इसमें उद्भट ने अपने “कुमारसंभव" नामक काव्य ग्रंथ के 100 श्लोक उदाहरण स्वरूप उपस्थित किये हैं। उद्भट के अलंकार निरूपण पर भामह का अत्यधिक प्रभाव है। उन्होंने अनेक अलंकारों के लक्षण भामह से ही ग्रहण किये हैं। उद्भट, भामह की भांति अलंकारवादी आचार्य हैं। इन्होंने भामह द्वारा विवेचित 39 अलंकारों में से यमक, उत्प्रेक्षावयव एवं उपमारूपक को स्वीकार नहीं किया। इन्होंने पुनरुक्तवदाभास, संकर, काव्यलिंग व दृष्टांत इन 4 नवीन अलंकारों की उद्भावना की है। प्रस्तुत ग्रंथ में रूपक के तीन प्रकार तथा अनुप्रास के 4 भेद बताये गये हैं, जब कि भामह ने रूपक व अनुप्रास के 2-2 भेद किये थे। इसी प्रकार ग्रंथ में परुषा, ग्राम्या एवं उपनागरिका वृत्तियों का वर्णन
किया गया। भामह ने इनका उल्लेख नहीं किया। प्रस्तुत ग्रंथ में विवेचित 41 अलंकारों के 6 वर्ग किये गये हैं। श्लेषालंकार के संबंध में इसमें नवीन व्यवस्था यह दी है कि जहां श्लेष अन्य अलंकारों के साथ होगा, वहां उसकी ही प्रधानता होगी। इस ग्रंथ पर दो टीकाएं हैं- 1) प्रतिहारेंदुराज कृत लघुविवृत्ति या लघुवृत्ति 2) राजानक तिलक कृत उद्भटविवेक। काव्यालङ्कारसंग्रह - ले. मुडुम्बी वेङ्कटराम नरसिंहाचार्य। काव्यालंकार-सूत्रवृत्ति - ले. आचार्य वामन। इस ग्रंथ का विभाजन 5 अधिकरणों के अंतर्गत 12 अध्यायों में हुआ है जिनके नाम हैं- शरीर, दोषदर्शन, गुणविवेचन, आलंकारिक व प्रायोगिक। संपूर्ण ग्रंथ में सूत्रसंख्या 319 है। इस पर ग्रंथकार वामन ने स्वयं वृत्ति की भी रचना की है। साहित्य शास्त्र का यह सूत्रबद्ध प्रथम ग्रंथ है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम अधिकरण के विषय : काव्य-लक्षण, काव्य व अलंकार, काव्य के प्रयोजन (प्रथम अध्याय में) काव्य के अधिकारी, कवियों के दो प्रकार, कवि व भावक का संबंध। (रीति को काव्य की आत्मा कहा गया है।) रीतिसंप्रदाय का यह प्रवर्तक ग्रंथ है। रीति के तीन प्रकार - वैदर्भी, गौडी व पांचाली। रीति -विवेचन (द्वितीय अध्याय) काव्य के अंग, काव्य के भेद- गद्य व पद्य। गद्य काव्य के तीन प्रकार । पद्य काव्य के भेद प्रबंध व मुक्तक। आख्यायिका के तीन प्रकार। तृतीय अध्याय । द्वितीय अधिकरण में दो अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में दोष की परिभाषा, 5 प्रकार के पद दोष, 5 प्रकार के पदार्थदोष, 3 प्रकार के वाक्यदोष, विसंधि-दोष के 3 प्रकार व 7 प्रकार के वाक्यार्थदोषों का विवेचन है। द्वितीय अध्याय में गुण व अलंकार का पार्थक्य तथा 10 प्रकार के शब्दगुण वर्णित हैं। चतुर्थ अधिकरण में मुख्यतः अलंकारों का वर्णन है। इसमें 3 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में शब्दालंकार - यमक व अनुप्रास का निरूपण एवं द्वितीय अध्याय में उपमा विचार है। तृतीय अध्याय में प्रतिवस्तूपमा, समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा,
अपहृति, श्लेष, वक्रोक्ति, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, संदेह, विरोध, विभावना, अनन्वय, उपमेयोपमा, परिवृत्ति, व्यर्थ, दीपक, निदर्शना, तुल्ययोगिता, आक्षेप, सहोक्ति, समाहित, संसृष्टि, उपमारूपक एवं उत्प्रेक्षावयव नामक अलंकारों का शब्दशुद्धि व वैयाकरणिक प्रयोग पर विचार किया गया है। इस प्रकरण का संबंध काव्यशास्त्र से न होकर व्याकरण से है। इस ग्रंथ पर गोपेन्द्र तिम्म भूपाल (त्रिपुरहर) की कामधेनु टीका के अतिरिक्त सहदेव
और महेश्वर कृत टीकाएं भी उपलब्ध हैं। हिन्दी में आचार्य विश्वेश्वर ने भाष्य लिखा है। काव्यालोक - सन 1960 में कायमगंज (उत्तरप्रदेश) से डॉ. हरिदत्त पालीवाल के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाश हुआ। काव्येतिहाससंग्रह - जर्नादन बालाजी मोडक के सम्पादकत्व
70/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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