SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1879 में श्री नीलकण्ठ जनार्दन कीर्तने ने संपादित कर इसका प्रथम प्रकाशन किया। 2) राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, राजस्थान से ई. स. 1968 में संपादक श्रीफतहसिंह तथा श्री मुनि जिनविजयजी ने प्रकाशित किया। हयग्रीव-पंचविंशति - ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय । हयग्रीवसहस्रनाम - हर-पार्वती संवादरूप । महादेव रहस्यान्तर्गत । हयग्रीवस्तुति - ले.-जग्गु श्रीबकुलभूषण। बंगलोरनिवासी। हयवदनविजययचम्पू - ले.-वेंकटराघव। हयवदनशतक - ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय। हयशीर्षपंचरात्र - मूर्ति-स्थापन एवं मन्दिर-निर्माण संबंधी एक वैष्णव ग्रंथ। इसमें 74 पटल और श्लोक-12000 हैं। यह मन्दिर और मूर्ति की प्रतिष्ठा से संबंध रखता है। ग्रंथ दो काण्डों में विभक्त है। 1) देवप्रतिष्ठा-पंचक काण्ड तथा 2) संकर्षणकाण्ड । लिंगकाण्ड, संकर्षणकाण्ड का ही एक अंश है। हयशीर्ष-संहिता - पांचरात्र-साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं से एक प्रमुख संहिता। इसके 144 अध्याय हैं। छोटे छोटे देवताओं की मूर्तियां और उनकी पूजा-अर्चा किस प्रकार की जाये, यह इस संहिता का विषय है। हयशीर्ष-संहिता - एका भक्तिपर संहिता। इसके कुल चार भाग हैं। प्रथम भाग प्रतिष्ठाकाण्ड के 42 अध्याय, दूसरे भाग संकर्षण-काण्ड के 37 अध्याय, तीसरे लिंगकाण्ड के 20 अध्याय और चौथे सौर काण्ड के 45 अध्याय हैं। इन संहिताओं में देवताओं की मूर्तियों का तथा उनकी प्रतिष्ठा आदि विधियों का वर्णन है। हरतीर्थेश्वरस्तुति (काव्य) - ले.-सुब्रह्मण्य सूरि । हरनामामृतकाव्यम् - ले.-विद्याधर शास्त्री। बीकानेर निवासी। विषय- लेखक के पितामह का चरित्र । हरविजयम् - ले.-काश्मीरक रत्नाकरकवि। एक पौराणिक महाकाव्य। इसमें 50 सर्ग व 4321 पद्य हैं। कल्हण की "राजतरंगिणी" में इस महाकाव्य को अवंतिवर्मा के राज्यकाल में प्रसिद्धि प्राप्त होने का उल्लेख है। रत्नाकर ने माघ की ख्याति को दबाने की ईषा से ही "हरिविजय" का प्रणयन किया था। इसमें शंकर (हर) द्वारा अंधकासुर के वध की कथा कही गई है। कवि ने स्वल्प कथानक को अलंकृत, परिष्कृत एवं विस्तृत बनाने के लिये जल-क्रीडा, संध्या, चंद्रोदय आदि का वर्णन करने में 15 सर्ग व्यय किये हैं। रत्नाकर कवि गर्व से कहते हैं कि प्रस्तुत काव्य का अध्येता अकवि कवि बन जाता है, और कवि महाकवि हो जाता है। इसका प्रकाशन, काव्यमाला संस्कृत सीरीज, मुंबई से हो चुका है। हरहरीयम् - ले.-म.म.कृष्णशास्त्री घुले, नागपुर-निवासी । श्लेषगर्भ काव्य । लेखक की टीका है। सन 1953 में "संस्कृतभवितव्यम्" में क्रमशः प्रकाशित। हरिकेलिलीलावती - ले.-कविकेसरी । हरिचरितम् (काव्य) - ले.-चतुर्भुज। ई. 15 वीं शती। सर्गसंख्या तेरह। इसमें मात्रावृत्तों का प्रचुर प्रयोग है। हरितोषणम् - ले.-वेदान्तवागीश भट्टाचार्य । हरिदिनतिलकम् - ले.-वेदान्तदेशिक । हरिनामामृतम् - ले.-अमियनाथ चक्रवर्ती। ई. 20 वीं शती। "प्रणव-पारिजात" में प्रकाशित। पश्चिम वंग संस्कृत नाट्य परिषद् द्वारा अभिनीत । विषय- चैतन्य महाप्रभु के संसारत्याग तक की कथावस्तु। हरिनामामृत-व्याकरणम् - ले.-रूप गोस्वामी। ई. 15-16 वीं शती। जीव गोस्वामी जी के वैष्णव व्याकरण का लघु संस्करण। हरिपूजापद्धति - ले.-आनन्दतीर्थ भार्गव। हरिप्रिया - ले.-तपेश्वरसिंह, वकील, गया निवासी। 108 श्लोकों का खण्डकाव्य। हरिभक्तिकल्पलतिका - ले.-कृष्णसरस्वती। 14 स्तबकों में विभक्त। हरिभक्तिकल्पलता - ले.-विष्णुपुरी। हरिभक्तिदीपिका • ले.-गणेश। हरिभक्तिभास्कर (सद्वैष्णव-सारसर्वस्व) - ले.-भुवनेश्वर । भीमानन्द के पुत्र । 12 प्रकाशों पूर्ण । संवत् 1884 में प्रणीत । हरिभक्तिरसायनम् - ले.-श्रीहरि। भागवत के दशम स्कंध के पूर्वार्ध पर लिखित पद्यात्मक टीका । रचना-काल- 1959 शक । इस टीका के 49 अध्याय हैं, और विविध छंदों में निबद्ध 5 हजार श्लोक इसमें हैं। टीकाकार का कथन है कि भगवान् का प्रसाद ग्रहण कर ही वे इस टीका के प्रणयन में प्रवत्त हुए। वस्तुतः यह साक्षात् टीका न होकर प्रभावशाली मौलिक ग्रंथ है जिसमें भागवती लीला का कोमल पदावली में ललित विन्यास है। "हरिभक्ति-रसायन" का प्रथम संस्करण काशी में प्रकाशित हुआ था जो अनेक वर्षों तक दुर्लभ था। किन्तु सं 1030 में प्रसिद्ध भागवती संन्यासी अखंडानंदजी के प्रयास से पुनः प्रकाशित हुआ है। हरिभक्तिविलास - ले.-श्री. सनातन गोस्वामी। चैतन्य-मतानुयायी मूर्धन्य आचार्य। इसमें मूर्ति-निर्माण, मूर्ति-प्रतिष्ठा तथा मूर्ति पूजा का विधान तथा वैष्णवों की जीवनचर्या का मनोरंजक वर्णन है। तुलनात्मक दृष्टि से भी इस ग्रन्थ-रत्न का अपना विशेष महत्त्व है। महाप्रभु चैतन्य के उपदेशों को सुनकर ही सनातनजी ने इस ग्रंथ का प्रणयन किया था। आगे चलकर षट् गोस्वामियों में से एक श्री गोपालभट्ट ने इसे उदाहरणों द्वारा परिपुष्ट करते हुए इस ग्रंथ को उपबृंहित किया। अतः इस ग्रंथ के प्रणयन का श्रेय सनातनजी तथा गोपालभट्ट दोनों गोस्वामियों को दिया जाता है। रचनाकाल- ई. 16 वीं शती। हरिलता - ले.-अनिरुद्ध। टीका-सन्दर्भसूतिका। ले.-अच्युत 426 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy