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गुरुसौन्दर्यसागर - ले-श्रीनिवास शास्त्री । श्लोकसंख्या-3 सहस्र। गुह्यकातन्त्र - महागुह्यतन्त्र की श्लोकसंख्या 12 हजार है। उसी का महागुह्यातिगुह्य अंश 1300 श्लोकों में दिया गया है। यह श्रीगुह्यकाली से सम्बद्ध है। गुह्यकालीसहस्रनाम - श्लोक-270। भैरव-भैरवी संवादरूप । प्रस्तुत स्तोत्र बाला-गुह्यकालिका तन्त्ररहस्य के अन्तर्गत है। गुह्यषोढान्यास उपनिषद् - देवी का एक उपनिषद । परात्परतरा, परातीतरूपा, काली, कला, परातीता एवं पूर्ण इन छह कलाओं से यक्त देवी की तान्त्रिक उपासना इसमें वर्णित है। छह कलाओं से युक्त होने के कारण देवी को 'घोढा' संबोधित किया गया है। गुह्यसमाजतन्त्रम् - बौद्ध धर्म के वज्रयान पंथ का प्रमाणभूत ग्रंथ है। तथागत गुह्यक नाम से भी इस ग्रंथ का उल्लेख होता है। इस ग्रन्थ के प्रभाव से बौद्धधर्म में शक्तितत्त्व का समावेश हुआ है। गूढादर्श-दक्षिणाचारतंत्रटीका - ले-भडोपनामक काशीनाथ भट्ट। पटलसंख्य-261 गूढार्थदीपिका - भाष्य । ले-मधुसूदन सरस्वती। काटोलपाडा (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती। गूढार्थप्रकाशिनीरहस्य - ले-मथुरानाथ तर्कवागीश। ई. 16 वीं शती। गूढार्थादर्श - ले-काशीनाथ । पिता-जयरामभट्ट । (शिवानंदनाथ) ज्ञानार्णवतन्त्र को टीका। पटल-23। शिवपार्वती संवादरूप । विषय-त्रिपुरा मंत्र की उपासना के प्रकार, अन्तर्याग, मंत्रपूजा के प्रकार, बलिदान प्रकार, पंचसिंहासनस्थित त्रिपुरा का विवरण, त्रिपुराभैरवी के बीज, महाविद्या के बीज । त्रिपुरा के तीन भेद, उनके मंत्र, श्रीविद्या के 10 भेद, षोडशी के चार भेद, आसनशुद्धि, अर्धस्थापन, नित्यपूजा के प्रकार । गूढावतार - "विश्वसारतंत्र" के उत्तर खण्ड का 11 वा पटल । शिव-पार्वती संवादरूप है। इसमें भगवान विष्णु का महाप्रभु
चैतन्यदेव के रूप में अवतरण तथा "चैतन्य-गायत्री" का वर्णन है। गुह्यपरिशिष्टम् - ले-कात्यायन। विषय-धर्मशास्त्र। गैरिकसूत्रटीका - प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में अनेक सन्दर्भ तथा संकेतों के लिए गेरू लेपन किया जाता था। प्रस्तुत रचना में रचनाकार ने 9 सूत्रों में गैरिकलेपन के नियमों को निबद्ध किया है। मूल ग्रंथ के कर्ता वाराणसी के विद्वान श्री बालंभट्ट पायगुण्डे हैं। इस पर श्री बालशास्त्री गर्दैजी नी टीका लिखी है। मूल ग्रंथ तथा टीका से युक्त पाण्डुलिपि सिंधिया प्राच्य शोध संस्थान, उज्जैन में उपलब्ध है। प्रतिलिपि का समय संवत् 1935 है। गैर्वाणी - सन् 1960 में चित्तूर (आन्ध्र) से संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा द्वारा एम्. वरदराजन् पन्तुल के सम्पादकत्व में
इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। गैर्वाणी-विजय (प्रतीकनाटक) - ले-राजराज वर्मा (1863-1918) नवरात्रि-महोत्सव में प्रथम अभिनीत । कलपदि पालघाट - (केरल) के कल्पतरु प्रेस से सन् 1890 में प्रकाशित। कथासार - सरस्वती अपनी दुर्दशा ब्रह्मा से कहती है कि मैं भारत में हौणी (अंग्रेजी) की दासी बनायी जा रही हूं। मेरी कन्याएं (भाषाएं) परस्पर लड रही हैं। गैर्वाणी बताती है कि लक्ष्मी हौणी का साथ देती है और मैं निर्वासित हैं। हौणी बताती है कि मैं गैर्वाणी का आदर करती हूँ परन्तु लोग ही मुझ पर मोहित हैं। ब्रह्मा गैर्वाणी से कहते हैं कि हौणी को कनीयसी भगिनी मानकर उसे वैधानिक भार सौंप दो, तुम्हारा आदर होता रहेगा। इतने में गरुड समाचार देता है कि केरलनरेश ने धर्मशाला में रुचि लेकर गैर्वाणी की प्रतिष्ठा बढ़ाई है। गैर्वाणीविजयम् - ले-बालकवि । गोत्रप्रकाश - ले-ज्योतिष-शास्त्र के आचार्य नीलांबर झा (जन्म 1823 ई.)। यह ग्रंथ ज्योत्पत्ति, त्रिकोणमिति-सिद्धान्त, चापीयरेखागणित-सिद्धान्त, चापीय-त्रिकोणमिति-सिद्धान्त और प्रश्न नामक 5 अध्यायों में विभक्त है। गोत्रप्रवरनिर्णय - ले-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता-रामेश्वरभट्ट। गोदा-परिणयचंपू - ले-रंगनाथाचार्य। केशवनाथ ई. 17 वीं शती (अंतिम चरण)। इसमें 5 स्तबक हैं। विषय-तमिल की प्रसिद्ध कवियित्री गोदा (आण्डाल) का श्रीरंगम् के देवता रंगनाथजी के साथ विवाह का वर्णन। गोपथ ब्राह्मणम् - अथर्ववेद का एकमात्र ब्राह्मण। इसके दो भाग हैं। पूर्व गोपथ व उत्तर गोपथ। प्रथम भाग में 5 अध्याय (या प्रपाठक) हैं और द्वितीय में 6 अध्याय हैं। प्रपाठक कंडिकाओं में विभक्त हैं, जिनकी संख्या 258 है। यह ब्राह्मणों में सब से परवर्ती माना जाता है। इसके रचयिता गोपथ ऋषि हैं। यास्क ने इसके मंत्रों को "निरुक्त" में उद्धृत किया है। इससे इसकी “निरुक्त" से पूर्वभाविता सिद्ध होती है। ब्लूमफील्ड ने इसे "वैतान-सूत्र" से अर्वाचीन माना है किन्तु डॉ. केलेण्ड व कीथ के मत से यह प्राचीन है। इसका अनुमानित समय ई.पू. 4 हजार वर्ष है। इसमें "अथर्ववेद" की महिमा का वर्णन करते हुए, उसे सभी वेदों में श्रेष्ठ बताया गया है। इसके प्रथम प्रपाठक में ओंकार व गायत्री की महिमा प्रदर्शित की गयी है। द्वितीय प्रपाठक में ब्रह्मचारी के नियमों का वर्णन व तृतीय एवं चतुर्थ प्रपाठक में संवत्सर का वर्णन है और अंत में अश्वमेध, पुरुषमेध, अग्निष्टोम आदि अन्य यज्ञ वर्णित हैं। उत्तर भाग का विषय उतना सुव्यवस्थित नहीं है। इसमें विविध प्रकार के यज्ञों एवं उनसे संबंद्ध
98/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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