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पर आधारित कथानक। लाक्षणिक पद्धति से श्रेष्ठ विचार तथा गहन तत्त्वज्ञान सामान्य लोगों के लिये सरल होते है इस विचार का प्रदर्शक यह प्रथम नाटक है। इस के बाद लाक्षणिक नाटकों की परंपरा संस्कृत नाट्य वाङ्मय में प्रवर्तित हुई। संक्षिप्त कथा . इसके प्रथम अंक में सचित है कि मन की दो स्त्रियां हैं। जिनसे उप्तन्न मोह और विवेक एक दसरे के विरोधी हैं। मोह के पक्ष में काम, लोभ, तृष्णा क्रोध, हिंसा हैं और विवेक के पक्ष में शांति, श्रद्धा आदि हैं। काम नित्य शुद्ध बुद्ध पुरुष को बंधन में डाल कर भी विवेक को पापी और स्वयं को सुकृती मानता है। विवेक पुरुष के उद्धार का कारण बताता है कि उपनिषद् से विवेक और मति का संबंध होने पर प्रबोध को उत्पत्ति होगी, तब पुरुष बंधनमुक्त होगा।
द्वितीय अंक में विवेक प्रबोधोदय के लिए तीर्थों में शम-दम को भेजता है। मोह काशी में अपनी राजधानी बनाने का निश्चय करता है। उधर शांति और श्रद्धा विवेक के साथ उपनिषद् का मिलन कराने के लिए उपनिषद् को समझाती है, तब मोहपक्षीय काम और क्रोध, श्रद्धा को मिथ्यादृष्टि से पीडित करवा कर, शांति को निष्क्रिय बनाने का निश्चय करते है।
तृतीय अंक में श्रद्धा को मिथ्यादृष्टि ग्रस्त कर लेती है। शांति उसको जैन-बौद्धों के मठों में ढूढंती है किन्तु वहां उसे तामसी श्रद्धा मिलती है। चतुर्थ अंक में मोह काम के सेनापतित्व में विवेक पर चढाई कर देता है। तब विवेक भी अपनी सेना वाराणसी भेज देता है। पंचम अंक में मन, मोहपक्ष के संहार होने से दुःखी होता है, तब सरस्वती आकर मन को संसार की अयथार्थता का परिचय करवा कर वैराग्य की ओर झुकाती है और मन शांति प्राप्त करता है। पंचम अंक में उपनिषद् और विवेक के मिलन से विद्या और प्रबोधचंद्र नामक दो सन्ताने उत्पन्न होती है। उनमें से प्रबोध को विवेक- पुरुष के हाथ सौप देता है और विद्या मन को। इससे पुरुष का अज्ञानान्धकार दूर होता है और उसे मुक्ति मिलती है। "प्रबोधचन्द्रोदय" में कुल दस अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 5 विष्कम्भक और 5 चूलिकाएं है।
प्रबोधचंद्रोदय के टीकाकार- 1) रुद्रदेव, 2) गणेश, 3) सुब्रह्मण्यसुधी, 4) रामदास, 5) सदात्ममुनि, 6) घनश्याम, 7) महेश्वर न्यायालंकार, 8) आर.व्ही.दीक्षित, 9) आद्यनाथ, 10) गोविन्दामृत, 11) पं. हृषीकेश भट्टाचार्य। __संकल्पसूर्योदय भी इसी प्रकार का नाटक है जो प्रबोध चन्द्रोदय का उत्तर पक्ष है। ले.- वेंकटनाथ ने विशिष्टाद्वैत मत की इसमें स्थापना की है। प्रबोध-प्रकाश - ले. बलराम । प्रबोधमिहिरोदय - ले. रामेश्वरतत्त्वानन्द (कायस्थमित्र) गुरु- तर्कवागीश भट्टाचार्य। विन्ध्यपुरवासी। शकाब्द 1597 में रचित।
विविध तन्त्रों, स्मृतियों, पुराणों से संकलित। 8 अवकाशा (अध्यायों) में पूर्ण।। प्रबोधोत्सवलाघवम् - ले. दप्तरदार, विठोबा अण्णा। ई. 19 वीं शती। प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार - ले. देवसरि। ई. 11-12 वीं शती। विषय- जैनदर्शन। प्रभावतीहरणम् (रूपक) - ले. भानुनाथ दैवत । रचनाकालसन 1855। कीर्तनिया पद्धति का रूपक। संवाद संस्कृत तथा प्राकृत में, गीत मैथिली भाषा में। वज्रनाभ दैत्य की कन्या प्रभावती के कृष्णपुत्र प्रद्युम्न के साथ विवाह की भागवतोक्त कथा इस में चित्रित है। प्रमाणनिर्णय - ले. वादिराज। जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती का पूर्वार्ध । विषय- जैनन्यास। प्रमाणपदार्थ - ले. समन्तभद्र। जैनाचार्य। ई. प्रथम शती। पिता- शान्तिवर्मा। प्रमाण-पद्धति - ले. जयतीर्थ । माध्व-मत की गुरु-परंपरा में 6 वें गुरु। द्वैत-तर्क की दिशा तथा स्वरूप का निर्देशक ग्रंथ । जयतीर्थ स्वामी के मौलिक ग्रंथों में बृहत्तम ग्रंथ यही है। इस पर उपलब्ध टीकाएं इसके गांभीर्य एवं महत्त्व की द्योतक हैं। द्वैत दर्शन में मान्य तीनों प्रमाण -प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द-के स्वरूप, लक्षण, ख्यातिवाद तथा प्रामाण्य-मीमांसा (प्रमाण स्वतः होता है या परतः) का विस्तार से विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ से द्वैत -दर्शन की शास्त्रीय मर्यादा की प्रतिष्ठा वृद्धिंगत हुई और आगे के दार्शनिकों के लिये समुचित मार्गदर्शन किया गया। प्रमाणपरीक्षा - ले. विद्यानन्द। जैनाचार्य। ई. 8-9 वीं शती। विषय- जैनन्याय। 2) ले. धर्मोत्तराचार्य। ई. 9 वीं शती। प्रमाणपल्लव - ले. नृसिंह (या नरसिंह) ठक्कुर। विषयआचारधर्म। प्रमाणवार्तिकम् - ले. धर्मकीर्ति । इसमें बौद्धन्याय का संस्कृत स्वरूप दिग्दर्शित है। राहुल सांस्कृत्यायन के प्रयास से मूलग्रंथ प्रकाशित हुआ। इस पर स्वंय लेखक की व्याख्या है। संस्कृत तथा तिब्बती में इस पर अनेक टीकाएं रचित हैं। मनोरथ नन्दीकृत टीका प्रकाशित है। ग्रंथ में 1599 श्लोक तथा 4 परिच्छेद हैं जिनमें स्वार्थानुमान, प्रमाणसिद्धि, प्रत्यक्षप्रमाण तथा परार्थानुमान का क्रमशः वर्णन किया है। वैदिक तार्किकों का मतखण्डन इस ग्रंथ का उद्देश्य है। प्रमाणविध्वंसनम् - ले. नागार्जुन। तर्कशास्त्रीय रचना। प्रमाणविनिश्चय - ले. धर्मकीर्ति। ई. 7 वीं शती। 1340 श्लोकों में निबद्ध यह न्यायशास्त्रीय रचना है। इसका संस्कृत रूप अप्राप्य है। प्रमाणविनिश्चय (टीकासहित) - ले. धर्मोत्तराचार्य। ई.9 वीं शती।
204 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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