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'न्यायमंजरी' में भी 'वृत्तिसूत्र' नाम का उल्लेख है।
'अष्टाध्यायी' में अनेक सूत्र प्राचीन वैयाकरणों से भी लिये गए हैं और उनमें कहीं कहीं किंचित् परिवर्तन भी कर दिया है। इसमें यत्र-तत्र प्राचीनों के श्लोकांशों का आभास भी मिलता है। पाणिनि ने अनेक आपिशालि के सूत्र भी ग्रहण किये हैं तथा 'पाणिनीय- शिक्षासूत्र' भी आपिशलि के शिक्षासूत्रों से साम्य रखते हैं। पाणिनि के पूर्व का कोई भी व्याकरण ग्रंथ आज प्राप्त नहीं। अतः यह कहना कठिन है कि पाणिनि ने किन किन ग्रंथों से सूत्र ग्रहण किये हैं। प्रातिशाख्यों तथा श्रौतसूत्र के अनेक सूत्रों की समता पाणिनीय सूत्रों के साथ दिखाई देती है।
अष्टाध्यायी के तीन पाठभेद हैं। संस्कृत वाङ्मय में ऐसे अनेक ग्रंथ हैं जिनके देशभेदानुसार विविध पाठ उपलब्ध होते हैं। पाणिनीय अष्टाध्यायी के तीन पाठ- प्राच्य, औदीच्य (पश्चिमोत्तर) और दाक्षिणात्य उपलब्ध होते हैं। काशी में लिखी गई काशिका-वृत्ति, अष्टाध्यायी के जिस पाठ का आश्रय करती है वह प्राच्य पाठ है। दाक्षिणात्य कात्यायन ने जिस सूत्रपाठ पर वार्तिक लिखे हैं, वह दाक्षिणात्य पाठ है। क्षीरस्वामी अपनी क्षीरतरंगिणी में जिस पाठ को उद्धृत करते हैं, वह उदीच्य पाठ है। तीनों में स्वल्प ही भेद है। ___'अष्टाध्यायी' की पूर्ति के लिये पाणिनि ने धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र तथा लिंगानुशासन की रचना की है जो उनके
शब्दानुशासन के परिशिष्ट- रूप में मान्य है। प्राचीन ग्रंथकारों ने इन्हें 'खिल' कहा है- 'उपदेशः शास्त्रवाक्यानि सूत्रपाठःखिलपाठश्च' (काशिका 1.3.2)। पाश्चात्य विद्वानों ने 'अष्टाध्यायी' का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए उसके महत्त्व का स्वीकार किया है। वेबर ने अपने इतिहास में 'अष्टाध्यायी' को संसार का सर्वश्रेष्ठ व्याकरण माना है, क्यों कि इसमें अत्यंत सूक्ष्मता के साथ धातुओं तथा शब्दों का विवेचन किया गया है। गोल्डस्ट्रकर के अनुसार 'अष्टाध्यायी' में संस्कृत भाषा का स्वाभाविक विकास उपस्थित किया गया है। बर्नेल के अनुसार ढाई हजार वर्षों के बाद भी अष्टाध्यायी का पाठ जितना शुद्ध
और प्रमाणित है, उतना अन्य किसी संस्कृत ग्रंथ का नहीं है। कात्यायन ने इसकी बहुमुखी समीक्षा करने वाली चार हजार वार्तिकों की रचना की। पतंजलि ने उसके आधार पर अपना व्याकरण महाभाष्य रचा है। आचार्य पाणिनि की
अष्टाध्यायी पर अनेक वैयाकरणों ने वत्तियां लिखी हैं। स्वयं पाणिनि ने उसका व्याख्यान अपने शिष्यों के लिये किया होगा। उनके पश्चात् अनेक जानकार पण्डितों ने वृत्तियां लिखीं, परंतु वे आज अनुपलब्ध हैं। उनका भूतकालीन अस्तित्व, यत्र-तत्र प्राप्त उद्धरणों से ही अनुमित होता है। उन के वृत्तिकारों के नाम इस प्रकार हैं :- (1) पाणिनि, (2) श्वोभूति (3) व्याडि (4) कृषि (5) वररुचि, (यह वार्तिककार वररुचि से
भिन्न हैं) (6) देवनन्दी का शब्दावतारन्यास (7) दुर्विनीत, (8) चुल्लिभट्टि, (9) निज़र (10) चूर्णि, (11) भर्तीश्वर, (12) न्यायमंजरी तथा न्यायकलिकाकार जयन्त भट्ट, (13) केशव (14) इन्दुमित्र (15) दुर्घटवृत्तिकार मैत्रेयरक्षित (16) भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तम देव (17) पाणिनीयदीपिकाकार नीलकण्ठ वाजपेयी (18) शाब्दिकचिन्तामणिकार गोपालकृष्ण शास्त्री (19) मित्रवृत्यर्थसंग्रहकार उदयङ्कर भट्ट। (20) रामचन्द्र आदि।
पाणिनि-व्याकरण की विशेषता, धातुओं से शब्द के निर्वचन की पद्धति के कारण है। उन्होंने लोक-प्रचलित धातुओं का बहुत बड़ा संग्रह धातुपाठ में किया है और 'अष्टाध्यायी' को, पूर्ण, सर्वमान्य एवं सर्वमत- समन्वित बनाने के लिये, अपने पूर्ववर्ती साहित्य का अनुशीलन करते हुए उनके मत का उपयोग किया तथा गांधार, अंग, मगध, कलिंग आदि समस्त जनपदों का परिभ्रमण कर, वहां की सांस्कृतिक निधि का भी समावेश किया है। अतः तत्कालीन भारतीय चाल-ढाल, आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज, वेश-भूषा, उद्योगधंधों, वाणिज्य-उद्योग, भाषा, तत्कालीन प्रचलित वैदिक शाखाओं तथा सामग्रियों की जानकारी के लिये 'अष्टाध्यायी' एक सांस्कृतिक कोश का कार्य करती है। यह व्याकरण इतना वैज्ञानिक, व्यवस्थित, लाघवपूर्ण एवं सर्वांगपूर्ण है कि अन्य सभी व्याकरण इसके सम्मुख निस्तेज हो गए, और उनका प्रचलन बंद हो गया। अष्टाध्यायी-प्रदीप (शब्दभूषण) . ले. नारायणसुधी। पांडुलिपि, मद्रास, तंजौर, अड्यार में विद्यमान। पाणिनीय सूत्रों की यह विस्तृत व्याख्या है। उपयुक्त वार्तिकों, उणादिसूत्रों और फिट्सूत्रों का भी व्याख्यान इसमें है। अष्टाध्यायी-भाष्यम् - ले. स्वामी दयानन्द सरस्वती। सन 1878 में लेखन का प्रारम्भ हुआ और मृत्यु के बाद प्रकाशन हुआ। प्रथम भाग डॉ. रघुवीर द्वारा सम्पादित। दूसरा भाग (तीसरा और चौथा अध्याय) पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु द्वारा संपादित । लेखक द्वारा पुनरवलोकन के अभाव में यत्र-तत्र त्रुटियां विद्यमान हैं। अष्टाध्यायी (मिताक्षरावृत्ति) - ले. अनभट्ट। अष्टाध्यायी-वृत्ति - ले- मैथिल पण्डित रुद्र। पाण्डुलिपि सरस्वती भवन काशी में विद्यमान । अष्टाध्यायी-संक्षिप्तवृत्ति - ले- गोकुलचन्द्र । ई. 19 वीं शती। अष्टाह्निकथा - ले. शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 शती। अष्टादशोत्तर-शतश्लोकी - श्लोक- 2600 । कृष्णनगर (नवद्वीप के निवासी शिवचन्द्र कृत देवीस्तुति । ये शिवचन्द्र कृष्णनगर के भूतपूर्व महाराज सतीशचन्द्र राय के प्रपितामह थे। असफविलास - बादशाह शहजहाँ की राजसभा का एक अधिकारी आसफखान, पण्डितराज जगन्नाथ का परममित्र था। उसकी स्तुति प्रस्तुत खण्डकाव्य में जगन्नाथ ने की है। इस
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संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड / 21
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