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वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथ के पश्चात् परिवार में उत्पन्न विवाद और अव्यवस्था के कारण वह छिन्न-भिन्न हो गया ।
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संस्कृत में पुष्टिमार्ग पर प्रकाश डालने वाले जिन चार ग्रंथों को प्रमाण माना गया है उस विषय में एक श्लोक इस प्रकार है :
वेदाः श्रीकृष्णवाक्यानि व्याससूत्राणि चैव हि । समाधिभाषा व्यासस्य प्रमाणं तच्चतुष्टम् ।।
अर्थात् वेद, श्रीकृष्ण के उपदेश वचन ( अर्थात् गीता ) और व्यास की समाधि भाषा याने (जिसकी प्रेरणा ब्रह्मसूत्र उन्हें समाधि की अवस्था में हुई) । भागवतपुराण ये चार ग्रंथ पुष्टि मार्ग के प्रमाण ग्रंथ हैं।
इनमें ब्रह्मसूत्र तथा भागवतपुराण- इन दो ग्रंथों पर वल्लभाचार्य के अणुभाष्य को पुष्टिमार्ग का सर्वस्व माना जाता है।
गोपेश्वर ने पुरुषोत्तमाचार्य के भाष्यप्रकाश पर “रश्मि " नामक टीका लिखी। उनके शिष्य गिरिधर ने आगे चलकर "अणुभाष्य" पर पृथक् टीका लिखी। "शुद्धाद्वैतमार्तण्ड" नामक ग्रंथ में उन्होंने संप्रदाय के सिद्धान्तों को अधिक सुस्पष्ट और सुबोध बनाया । कृष्णचन्द्र महाराज ने ब्रह्मसूत्र पर "भावप्रकाशिकावृत्ति" लिखी । आचार्यपुत्र विठ्ठल ने उर्वरित अणुभाष्य, तत्त्वदीपनिबंध, भागवतसूक्ष्मटीका पूर्वमीमांसा - भाष्य, निबंधप्रकाश, विद्वन्मंडन, शृंगाररसमंडन, और सुबोधिनीटिप्पण आदि ग्रंथों की रचना कर सम्प्रदाय विषयक साहित्य में मौलिक योगदान दिया ।
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अतन्द्रचन्द्र-प्रकरण ले. जगन्नाथ । सत्रहवीं शती का अंतिम चरण । इसका प्रथम अभिनय फतेहशाह की राजसभा में हुआ। अंकसंख्या - सात । पुरुष पात्र पांच, स्त्री पात्र तेरह । शृङ्गार के साथ अद्भुत रस का भी प्रयोग । प्रणय प्रसङ्गों में वैदर्भी रीति तथा माधुर्य गुण छठें सातवें अड़कों में माया और युद्ध के प्रसंगों में आरभटी वृत्ति तथा ओजगुण, शार्दूलविक्रीडित वृत्त का प्रचुर प्रयोग। यह सत्रहवीं शती का एकमात्र प्रकरण उपलब्ध है।
कथासार दो नायक, चन्द्र तथा सागर । नायिकाएं चन्द्रिका तथा चन्द्रकला । चन्द्र का प्रतिनायक विमूढ ( तमिस्रा का पुत्र) कादम्बिनी नामक सिद्ध योगिनी विमूढ की सहायिका है, परन्तु सानुमती नामक योगिनी छलप्रपंच द्वारा चन्द्रिका वंशधारिणी कलावती के साथ विमूढ का विवाह कराती है। कलावती विमूढ की बहन चन्द्रकला का सागर के साथ मिलन कराने में प्रयत्नशील है । सागर तथा चन्द्र पर विमूढ आक्रमण करता है, परन्तु हार जाता है। तब कादम्बिनी चन्द्रिका का अपहरण कराती है परन्तु चन्द्रिका की सखी शारदा उसे बचा कर चन्द्र से मिलाती है । चन्द्र का चन्द्रिका से और सागर का चन्द्रकला से मिलन होता है।
4 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
अत्रिकामकल्पवल्ली - ले. वेंकटवरद (श्रीमुष्णग्राम - मद्रास) के निवासी। ई. 18 वीं शती ।
अत्रिस्मृति इस स्मृति में नौ अध्याय हैं। विषय- चारों वर्णों के कर्म, उनकी उपजीविका, प्रायश्चित्त, स्त्री एवं शूद्रों को पतित करनेवाले कर्म, श्राद्ध, सूतक निर्णय इत्यादि । अथ किम् ले. - डा. सिद्धेश्वर चट्टोपाध्याय । रचना-सन 1970 अप्रैल 1972 संस्कृत साहित्य परिषद के 55 वें वार्षिक उत्सव में परिषद के सदस्यों द्वारा इस रूपक का अभिनय हुआ । उसी परिषद् द्वारा 1974 में इसका प्रकाशन हुआ ।
विषय आधुनिक परिवेश की असंगतियों पर परिहासात्मक व्यंग । कुल पात्रसंख्या- आठ। इसकी शैली आधुनिक है। अथर्व-ज्योतिष इसमें 162 श्लोक और 14 प्रकरण हैं। यह वेदांग विषयक ग्रंथ ऋक्-यजुस् ज्योतिष के समान प्राचीन नहीं है। अथर्वतत्त्वनिरूपण श्लोक शैली उपनिषत् की सी है इसके प्रारम्भ में अथान्योपनिषत् कहा गया है। इसमें प्रधान रूप में कुमारीपूजन का प्रतिपादन है। कुमारीपूजन से साधक सब सिद्धियों का अधिपति होता है एवं अणिमा आदि विभूतियों का स्वामी होता है यह फलश्रुति बताई है।
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अथर्ववेद प्रातिशाख्य सूत्र यह अथर्ववेद का (द्वितीय) प्रातिशाख्य है इस वेद के मूल पाठ को समझने के लिये इसमें अत्यंत उपयोगी सामग्री का संकलन है। इसका एक संस्करण आचार्य विश्वबंधु शास्त्री के संपादकत्व में पंजाब विश्वविद्यालय की ग्रंथमाला से 1923 ई. में प्रकाशित हुआ है जो अत्यंत छोटा है। इसमें अथर्ववेद-विषयक कुछ ही तथ्यों का विवेचन है। इसका दूसरा संस्करण डा. सूर्यकांत शास्त्री द्वारा हुआ है जो लाहौर से 1940 ई. में प्रकाशित हुआ है। यह संस्करण प्रथम संस्करण का ही बृहद् रूप है।
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4 अथर्ववेद अंगिरावंशीय अथर्व ऋषि द्वारा दृष्ट होने से इस वेद को "अथर्ववेद" कहते हैं इसे भवंगिरा वेद और क्यों कि यज्ञ में ब्रह्मगण के इसके देवता सोम और प्रमुख
"ब्रह्मवेद" भी कहा जाता है, ऋत्विग् इसका प्रयोग करते है आचार्य सुमन्तु हैं।
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आकार की दृष्टि से ऋग्वेद के पश्चात् द्वितीय स्थान अथर्ववेद का ही है। इसमें 20 कांड हैं, जिनमें 731 सूक्त तथा 5987 मंत्रों का संग्रह है। इसमें लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से लिये गये हैं ।
पतंजलि कृत "महाभाष्य" के पस्पशाह्निक में इस वेद की 9 शाखाओं का निर्देश है। इन शाखाओं के नाम हैं- पिप्पलाद, स्तोद, मोद, शौनकीय, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श तथा चारणवैद्य । इस समय इस वेद की केवल दो ही शाखाएं मिलती हैं। (1) पिप्पलाद तथा (2) शौनकीय। पिप्पलाद शाखा के रचयिता पिप्पलाद मुनि हैं। इसकी एकमात्र प्रति