________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शारदा लिपि में काश्मीर में प्राप्त हुई थी जिसे जर्मन विद्वान रॉथ ने संपादित किया है। अथर्ववेद की उत्पत्ति के संबंध में एक कथा है।
सृष्टि निर्माण हेतु ब्रह्मा जब तपश्चर्या कर रहे थे, भूमि पर बह रहे उनके पसीने में उन्होंने अपना प्रतिबिंब देखा। उसी जल के दो भाग हुए। एक से भृगु और दूसरे से अंगिरा ऋषि का निर्माण हुआ। इन दोनों के दस दस पुत्र हुए। ये बीसों अथर्वागिरस कहलाये। इन्होंने शौनिक संहिता के एक-एक कांड की रचना की। अथर्वा ऋषि के मंत्र का आथर्वणवेद बना और अंगिरा के मंत्र का आंगिरसवेद। तात्पर्य ये दोनों स्वतंत्र वेद संयुक्त होकर अथर्ववेद नाम पडा। बृहदारण्यकोपनिषद् में आंगिरस शब्द की व्युत्पत्ति इस भांति है :
अङ्गेषु गात्रेषु यो रसः सप्तधातुमयस्तमधिकृत्य या चिकित्सा सांगिरसानां चिकित्सा । शरीर में जो सप्तधातुमय रस है, उसकी चिकित्सा जिसमें है, वह आंगिरसवेद है।
प्रारम्भ में यज्ञकर्म में वेदत्रयी को ही स्थान था। होता, अध्वर्यु व उद्गाता ये तीन ऋत्विज क्रमशः ऋक्-यजुःसाम मंत्र से अपना- अपना कर्म पूरा करते थे। चौथे ऋत्विज् ब्रह्मा का अलग से वेद नहीं था। आगे चलकर "अथर्वाङ्गिरोभिर्ब्रह्मत्वम्" यह नियम बना और ब्रह्मा का काम अथर्ववेदी ब्राह्मण को सौंपा गया। यज्ञोपयुक्त अंश कम होने से वेदत्रयी से इसे महत्त्व कम दिया गया। यह अधिकतर अभिचारात्मक ही है। श्रौत कर्मों में स्थान न होने के कारण इन मंत्रों का वेदत्व मान्य नहीं होता। अतः बिखरे हुये सारे मंत्र एकत्र कर ब्रह्मवेद के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा दी गई ।
शांतिक और पौष्टिक कर्म का संपादन, पुरोहित को अथर्ववेद के आधार से ही करना पडता है। इस पुरोहित का अधिकार राजनीति तथा युद्ध में भी महत्त्वपूर्ण रहा करता था। "पुरोहित" (= आगे रहने वाला) जिस राज्य में अथर्ववेत्ता है, उस राष्ट्र में सारे उपद्रव शांत होकर वह समृद्ध होता है यह धारणा थी। इसे क्षात्रवेद भी कहा जाता है। "राजकर्माणि" नामक सूक्तसंग्रह इस में है। ये सारे कर्म राजपुरोहित को ही करने पडते थे। व्हिटने ने सम्पूर्ण अथर्ववेद का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। डा. रघुवीर ने पैप्पलाद शाखा का संशोधित संस्करण प्रकाशित किया है। पं. सातवलेकर ने शौनक संहिता प्रकाशित की है।
इसका एकमात्र गोपथ ब्राह्मण, मुण्डक, माण्डूक्य प्रश्न आदि उपनिषद, तंत्र ग्रंथ, मंत्रकल्प, संहिताविधि, शिक्षा आदि अंगभूत साहित्य मिलता है। अथर्ववेद के उपवेद के संबंध में अनेक मत हैं, तदनुसार- अर्थशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, सर्पवेद, पिशाचवेद, इतिहास, पुराणवेद, भैषज्यवेद, अथर्ववेद के उपवेद माने जाते हैं। इसके उपजीव्य कुछ तांत्रिक पद्धतियां तथा स्तोत्र भी हैं। इसकी शौनक संहिता पर एकमात्र सायण का भाष्य मिलता है जो बीच में खण्डित है। ___ अथर्ववेद की रचना, ऋग्वेद के बाद मानी गई। इसका प्रमुख कारण भाषा है जो अपेक्षाकृत अर्वाचीन प्रतीत होती है। इसमें शब्द बहुधा बोलचाल की भाषा के हैं। इसमें चित्रित समाज का रूप भी, "ऋग्वेद" की अपेक्षा विकास का सूचक सिद्ध होता है। अथर्ववेद में ऐहिक विषयों की प्रधानता पर बल दिया गया है जब कि अन्य वेदों में देवताओं की स्तुति एवं पारलौकिक विषयों का प्राधान्य है। अथर्वशिखाविलास - ले. कौशिक रामानुजाचार्य। विषयवैष्णव मत का प्रतिपादन।। अद्भुततरंग-प्रहसनम् - रचयिता- हरिजीवन मिश्र। 17 वीं शती। कथासार- राजा मदनांकविक्रम, गूढरसमिश्र नामक वैष्णव से रुष्ट होता है। उसे वह 'विधवाविध्वंसक' नामक आचार्य से दण्ड दिलवाता है कि आत्मशुद्धि के लिए कामाग्निकुण्ड में तप्त हो जाये। 'यमानुज' नामक राजवैद्य को भी यही दण्ड मिलता है। कुंडदहन के लिए वेश्या के साथ विध्वंसक की पत्नी भी बुलायी जाती है। अन्त में स्पष्ट होता है कि विध्वंसक की पत्नी याने विदूषक ही सो वेश में है। अदभतदर्पण - रचयिता- महादेव। स्थान- पालमारनेरी । रचनाकाल- 16601 यज्ञसम्पादन के अवसर पर अध्वर-शोभा के लिए अभिनीत, नो अङ्कों का नाटक। प्रधान रस अद्भुत । सरल, नाट्योचित शैली! मानव, राक्षस, भल्लूक, वानर आदि के साथ ही नगर को अधिष्ठात्री देवी लंका और राजोद्यान की अधिदेवी निकुम्भिला भी पात्र के रूप में प्रस्तुत।
कथावस्तु- लंका पहुंचने पर राम अंगद के द्वारा रावण के
__अथर्ववेद के 731 (कुछ विद्वानों के अनुसार 730) सूक्तों • के विषय- विवेचन की दृष्टि से इस प्रकार विभाजित किये जाते है। आयुर्वेद- विषयक 144 सूक्त, राजधर्म व राष्ट्रधर्मसंबंधी 215 सूक्त, समाजव्यवस्था-विषयक 75 सूक्त, अध्यात्म-विषयक 83 सूक्त तथा विविध विषयों से संबंधित शेष 214 सूक्त।
अथर्ववेद के विषय, अन्य वेदों की अपेक्षा नितांत भिन्न तथा विलक्षण हैं। इन्हें अध्यात्म, अधिभूत एवं अधिदैवत के रूप में विभक्त किया जा सकता है। अध्यात्म के अंतर्गत ब्रह्म परमात्मा तथा चारों आश्रमों के विविध निर्देश आते हैं। अधिभूत के अन्तर्गत राजा, राज्यशासन, संग्राम, शत्रु, वाहन आदि विषयों का वर्णन है। अग्निदैवतप्रकरण में देवता, यज्ञ एवं काल संबंधी विविध विषयों का वर्णन है। तात्पर्य "अथर्ववेद" मंत्र-तंत्रों का प्रकीर्ण संग्रह है तथा इसमें संगृहीत सूक्तों का विषय अधिकांशतः गृह्य संस्कारों का है।
अथर्ववेद पुरोहितों का वेद माना जाता है। इसमें शांत, पौष्टिक, धीर, अभिचार, आदि कर्मों का समावेश होने से,
'संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/5
For Private and Personal Use Only