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प्रकट करने में प्रस्तुत व्याख्या अनुपम है। व्याख्या में विस्तार काल्पनिक गंधर्वो का संवाद वर्णन किया है। संपूर्ण काव्य-कृति अधिक है। टीका में भक्ति-मंजूषा, भक्तिभाव-प्रदीप, कृष्णयामल कथोपकथन की शैली में निर्मित है। इसमें 254 खंड तथा एवं राघवेन्द्र सरस्वतीरचित पद्य उद्धृत हैं। श्रीमद्भागवत में 597 श्लोक हैं। दोनों गन्धर्व अपने आकाशयान में परिभ्रमण राधा का नाम-निर्देश प्रत्यक्ष रूप में क्यों नहीं, इस संबंध में कर सब देश देखते हैं। विश्वावसु इन देशों का वर्णन करते प्रस्तुत टीका का उत्तर बडा ही गंभीर एवं रसानुसारी है। हुए केवल गुणगान करता है, तथा कृशानु केवल दोषों का विशुद्धिदर्पण - ले.-रघु। विषय- अशौच के दो प्रकारों दर्शन करता है। (जननाशौच एवं शवाशौच) का विवेचन।।।
विश्वगुणादर्श के टीकाकार - (1) कुरवीराम, (19 वीं विश्रान्तविद्याधरम् - ले.-वामन (साहित्यशास्त्र तथा काशिकाकार शती के लेखक तथा करवतेनगर के जमीनदार के अश्रित) से भिन्न) विषय- व्याकरण- शास्त्र। इस ग्रंथ पर मल्लवादी (2) लक्ष्मीधर के पुत्र प्रभाकर । (जो "तार्किकाशिरोमणि" उपाधि से प्रसिद्ध थे) ने न्यास ग्रंथ विश्वकर्मप्रकाशशास्त्रम्- संपादक-ब्रह्मा। अनुवादकलिखा है। स्वयं वामन ने इस पर लघु और बृहद्वृत्ति लिखी शक्तिधर्म-शर्मा शुक्ल। प्रकाशक- पालाराम खाती रामपुरवाला, है। आचार्य हेमचंद्र तथा वर्धमान सूरि की रचनाओं में इस जिला- जालंधर । सन 1896 में प्रकाशित । विषय- शिल्पशास्त्र । ग्रंथ से अनेक उद्धरण दिये गये हैं। लेखक का समय ई.. विश्वतत्त्वप्रकाश - ले.- भावसेन त्रैविद्य। जैनाचार्य। ई. 13 6 वीं शती माना जाता है।
वीं शती। विश्रामोपनिषद्- एक छोटा सा पद्यमय उपनिषद्। इसमें विश्वप्रकाशकोश - ले.- महेश्वर । हृदयकमल की आठ पंखुड़ियों में किस पंखुडी पर ध्यान
विश्वप्रकाशिका पद्धति- ले.- विश्वनाथ। पिता- पुरुषोत्तम । केन्द्रित करने से क्या परिणाम होता है, इसका वर्णन है।
गोत्र- पराशर । सन- 1544 में लिखित । विषय- कतिपय कृत्य इसके अनुसार आठ दिशाओं की आठ पंखुडियां विविध रंगों
एवं प्रायश्चित्त। आपस्तम्ब धर्मसूत्र पर आधारित । वाली हैं तथा वे मन में विविध विकारों तथा विविध भावनाओं
विश्वप्रियगुणविलास काव्य - ले.- सेतुमाधव। विषय - का निर्माण करती हैं। अतः उन सभी को हटाकर मध्यदल
मध्वाचार्य का चरित्र। पर मन को केन्द्रित करना चाहिये। इससे चैतन्य की अनुभूति
विश्वभाषा- (त्रैमासिक पत्रिका) संपादक - पंडित गुलाम होती है और उसके स्मरण से पापों का नाश होता है।
दस्तगीर अब्बास अली बिराजदार, जंगलीपीर दरगाह, वरली, विश्वकर्मप्रकाश - संपादक-मिहिरचंद्र । एक वास्तुशास्त्रीय ग्रंथ। मुंबई । प्रकाशिका -श्रीमती भगिनी निरंजना । कार्यालय- विश्वसंस्कृत श्री तारापद भट्टाचार्य के अनुसार इसके रचयिता वासुदेव हैं। प्रतिष्ठान, वेदपुरी, पांडिचेरी। पांडिचेरी के श्री अरविंद आश्रम वासुदेव के गुरु विश्वकर्मा थे। विश्वकर्मा देवताओं के वास्तुविशारद की संचालिका श्रद्धेय श्रीमताजी जन्मना फ्रेंच थी। भारत की थे। कालान्तर से विश्वकर्मा नाम ने उपाधि का रूप ग्रहण राष्ट्रभाषा संस्कृत ही हो सकती है यह उनका निश्चित मत था। किया। विश्वकर्मप्रकाश के कुल 13 अध्याय हैं जिनमें प्रमुख 1980 में उनकी जन्मशताब्दी निमित्त एक सौ संस्कृत सम्मेलन रूप से भवनरचना विषयक नागर-पद्धति का वर्णन है। देश भर में आयोजित किए गए थे। इस महान् आयोजन की "विश्वकर्मा शिल्प" इसका पूरक ग्रंथ है जिसमें मूर्ति-कला का समाप्ति प्रयाग में कुम्भ मेले के अवसर पर एक विशाल विवेचन है। प्राप्तिस्थान-खेलाडीलाल संस्कृत बुक डेपो, कचोडी ___जागतिक संस्कृत अधिवेशन द्वारा हुई। इस अधिवेशन में विश्व गली, वाराणसी।
संस्कृत प्रतिष्ठानम् की स्थापना काशी-नरेश श्री विभूतिनारायण विश्वकर्माकृत वास्तुशास्त्र विषयक ग्रंथ- वास्तुप्रकाश, सिंह की अध्यक्षता में हुई। विश्वभाषा त्रैमासिकी पत्रिका इस वास्तुविधि, वास्तुसमुच्चय, विश्वकर्मीय, विश्वकर्माशिल्पम्, विश्व संस्कृत प्रतिष्ठान की मुखपत्रिका है। कुछ वर्षों के बाद विश्वकर्मसंहिता (अपराजितप्रभा) विश्वकर्म-संप्रदाय ।
इसका प्रकाशन वाराणसी से होने लगा। विश्वकर्मवास्तुशास्त्रम् - ले.- विश्वकर्मा । तंजौर ग्रंथालय से
विश्वमीमांसा - ले.- गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। प्रकाशित। प्रमाणबोधिनी- टीका सहित ।
पिता- नरसिंहशास्त्री। माता- नरसांबा । विश्वकर्मविद्याप्रकाश - संपादक-रविदत्त शास्त्री।
विश्वमोहनम् - मूल जर्मन कवि गेटे का नाटक "फाऊस्ट"। विश्वगर्भस्तव - ले.- रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोण-निवासी। अनुवादक-ताडपत्रीकर, पुणे निवासी। विश्वगुणादर्शचंपू - ले.- वेंकटाध्वरी। रचना- 1637 ई. में। विश्वंभरोपनिषद् - रामोपासना का एक आकर ग्रंथ। इसे इस प्रसिद्ध व लोकप्रिय चंपूकाव्य का प्रकाशन, निर्णयसागर अथर्ववेद का एक अंग माना जाता है। इसमें शांडिल्य मुनि प्रेस मुंबई से 1923 ई. में हुआ। इस चंपू में कवि ने ने महाशंभु से कुछ प्रश्न पूछे हैं तथा सभी देवताओं में श्रेष्ठ, विश्व-दर्शन के लिये उत्सुक कृशानु व विश्वावसु नामक दो वाणी मन बुद्धि के लिये अगोचर तथा ब्रह्मा-विष्णु-शिव का
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 341
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