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इस शाखा की संहिता, ब्राह्मण और सूत्र अभी तक अप्राप्त व्याकरण महाभाष्य, ऐतरेय आरण्यक, आयुर्वेद की चरक-संहिता, महाभारत सभापर्व, स्कन्दपुराण आदि स्थानों पर गालव-नाम मिलता है परंतु उनमें से ऋग्वेद शाखा प्रवर्तक गालव को निर्धारित करना आसान नहीं। गीतम् (ईहामृग) - ले-कृष्णावधूत पण्डित । ई. 19 वीं शती।। गीतगंगाधरम् - (1) ले- कल्याण कवि। (2) लेनंजराजशेखर । ई. 20 वीं शती। (3) ले- चन्द्रशेखर सरस्वती। गीतगिरीशम् - ले- रामकवि। गीतगोविन्द - ले-जयदेव। पिता- भोजदेव। माता-वामादेवी। समय-11 वीं शती। जयदेव परम कृष्णभक्त थे। इसमें 12 सर्ग एवं 24 अष्टपदियां हैं। सर्ग भागवत 12 के काण्डों के समान हैं। अष्टपदी के राग एवं ताल का निर्देश किया है। कहते हैं कि कवि की पत्नी पद्मावती पति के गान के साथ नृत्य करती थी। काव्य भक्तिरसपूर्ण, संगीतमय तथा रहस्य युक्त है। शब्दालंकारयुक्त उत्कृष्ट रचना है। इसी से गेय काव्य
की परपरा का प्रारंभ संस्कृत साहित्य में माना जाता है। ____ इस काव्य के नायक कृष्ण और नायिका राधा है। श्रृंगार के दोनों पक्षों- (संभोग-विप्रलम्भ) का इसमें वर्णन है। काव्य में राधा की सखी दोनों की मनोदशाओं से परस्पर को अवगत कराते हुए दूती की भूमिका निभाती है। संस्कृत रस शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार काव्य की रचना की गयी है। चैतन्य संप्रदाय में गीतगोविंद काव्य पवित्र माना गया है। गीतगोविंद के टीकाकार - (1) उदयनाचार्य (2) कृष्णदास (3) गोपाल (4) नारायणदास (5) भावाचार्य (6) रामतारण (7) रामदत्त (8) रूपदेव (9) विठ्ठल (10) विश्वेश्वर (11) शालीनाथ (12) हृदयाभरण (13) तिरुमलार्य (14) श्रीकण्ठ मिश्र (15) गदानन्द (16) लक्ष्मीधर (लक्ष्मणसूरि) (17) कृष्णदत्त (18) अजद्धर (19) वनमाली भट्ट (20) वासुदेव वाचासुन्दर (21) अनूपभूपति (25) नारायण (26) शंकरमिश्र (27) भगवद्दास (28) राजा कुम्भकर्ण (29) लक्ष्मण (30) चैतन्यदास पूजक (31) मानांक (32) ------ (33) . संग्रहदीपिका तथा बालबोधिनी, ले-अज्ञात गीतगौरांगम् - ले- डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य। यह लेखक की दसवीं संस्कृत रचना है। लेखक की कन्या वैजयंती ने इस रचना के निर्माण में सहयोग किया है। यह गीतिनाट्य है| अतः नृत्य-गीतों का प्राचुर्य है। 6 रागों तथा 75 रागिणियों में रचित 81 गीत हैं। गद्य का प्रयोग नहीं हुआ है। अंकसंख्या- पांच है। कुल दृश्य 301 प्रवेशक, विष्कम्भकादि का अभाव है। वैदर्भी रीति, अलंकारों का अति विरल प्रयोग, प्राकृत का अभाव, एकोक्तियों की बहुलता आदि इसकी विशेषताएं हैं। नायक चैतन्य महाप्रभु तथा नायक की पत्नी विष्णुप्रिया का मार्मिक रेखांकन हुआ है। चैतन्य महाप्रभु के
संपूर्ण जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का दर्शन इस में होता है। संस्कृत पुस्तक भण्डार, कलकत्ता से मार्च 1974 में प्रकाशित। गीतगौरीपति - ले- भानुदास । गीतदिगम्बर - ले- वंशमणि। पिता- रामचंद्र। सन् 1755 ई. में रचित। काठमाण्डू के राजा प्रतापमल्ल के तुलापुरुषदान महोत्सव के अवसर पर अभिनीत । अंकसंख्या- चार । गीतभारतम् - ले-कवि- त्रैलोक्यमोहन गुह। विषय- आंग्ल साम्राज्य तथा सम्राज्ञी व्हिक्टोरिया का यशोगान । सर्गसंख्या 21 । गीत-राघवम् - 1) ले. प्रभाकर। सन- 1674 । 2) ले. रामकवि। 3) ले. हरिशंकर। गीत-वीतरागम् - ले. अभिनवचारुकीर्ति । गीत-सुन्दरम् - ले. सदाशिव दीक्षित। 6 सर्ग। गीत शंकरम् - ले. अनन्तनारायण। पिता- मृत्युंजय । गीत-शतकम् - ले. सुन्दराचार्य। गीत-सूत्रसार - ले.कृष्ण बॅनर्जी । गीता (श्रीमद्भगवद्गीता) - महाभारत के भीष्म पर्व में इस ग्रंथ का अन्तर्भाव होता है। अध्यायसंख्या 18 और श्लोकसंख्या 700। प्रत्येक अध्याय के अन्त में "श्रीमद्भगवद् गीतासु" उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' इन शब्दों के द्वारा इस ग्रंथ का महत्त्व बताया गया है। यह एक ऐसा उपनिषद् है कि जिस में ब्रह्मविद्या एवं समग्र योगशास्त्र का (ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग एवं राजयोग इन चारों योगों का) शास्त्रीय प्रतिपादन एवं समन्वय हुआ है। यह सारा प्रतिपादन योगेश्वर कृष्ण और उनके प्रिय सुहृत् अर्जुन के संवाद-रूप में अत्यंत प्रासादिक शैली में हुआ है। गीता के प्रथम अध्याय का प्रारंभ धृतराष्ट्र-संजय के संवाद से होता है। कौरव-पांडवों की रणोत्सुक सेना के बीच रथ खड़ा होने पर सारे प्रिय व आदरणीय आप्तस्वजनों के संभाव्य विनाश के विचार से अर्जुन के मन में विषाद निर्माण होता है। वह अपने धनुष्य बाण त्याग कर शोकमग्न अवस्था में बैठ जाता है। दूसरे सांख्ययोग नामक अध्याय में आत्मा की अमरता देह की क्षुद्रता एवं स्वधर्म की अनिवार्यता के सिद्धान्तों का प्रतिपादन अर्जुन को कर्तव्यप्रवण करने के लिए भगवान करते हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफल हेतुर्भूः मा ते संगोङ्स्त्व कर्मसु। (2-47) यह कर्मयोग का सुप्रसिद्ध सिद्धान्त -वचन इसी अध्याय में कहा गया है। द्वितीय अध्याय में बताया हुआ स्थितप्रज्ञ का लक्षण भगवद्गीता के तत्त्वज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है।
तीसरे कर्मयोग नामक अध्याय में आसक्तिविरहित वृत्ति से कर्म करने से कर्मबंध नहीं लगते। जनकादि स्थितप्रज्ञ पुरुषों
94/ संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ट
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