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सिद्धान्तकौमुदी- ले.- भट्टोजी दीक्षित । पाणिनीय व्याकरण की प्रयोगनुसारी व्याख्या। इसके पूर्व के प्रक्रियाग्रंथों में अष्टाध्यायी का सब सूत्रों का समावेश नहीं था। इस त्रुटि की पूर्ति हेतु इसकी रचना हुई। वर्तमान समय के व्याकरण के अध्ययन-अध्यापन का यही ग्रंथ आधार है। इसके पूर्व, लेखक भट्टोजी दीक्षित ने सूत्रानुसारी विस्तृत व्याख्या शब्दकौस्तुभ नाम से लिखी। सिद्धान्तकौमुदी व्याकरण क्षेत्र में युगप्रवर्तक, महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। ग्रंथ के विवरण हेतु मार्मिक टीका प्रौढमनोरमा स्वयं लिखी जिसमें गुरुमत का खण्डन किया है। पंडितराज जगन्नाथ की इस टीका पर प्रौढमनोरमा-कुचमर्दिनी टीका है। प्रौढमनोरमा का मराठी अनुवाद नागपुर निवासी, प्रसिद्ध वैयाकरण ना. दा. वाडेगावकर ने किया है जो प्रकाशित हुआ है। सिद्धान्तकौमुदी पर तंजौर के वैयाकरण वासुदेवशास्त्री की लोकप्रिय बालमनोरमा टीका है। 17 वीं शती के अन्त की भट्टोजी के शिष्य वरदराज की लघु-सिद्धान्तकौमुदी तथा रामशर्मा की मध्यम सिद्धान्तकौमुदी, इसी सिद्धान्तकौमुदी के ही लघु और मध्यम रूप हैं। ज्ञानेन्द्रसरस्वती ने सिद्धान्तकौमुदी की टीका तत्त्वबोधिनी लिखी है। भट्टोजी के पोते हरिपन्त ने प्रौढमनोरमाटीका, लघुशब्दरत्न तथा बृहत्शब्दरत्न ये तीन ग्रंथ लिखे हैं। सिद्धान्तकौमुदीप्रकाश - ले.- तोप्पलदीक्षित। सिद्धान्तकौस्तुभ - ले.- जगत्राथ। ई. 18 वीं शती। विषयगणित शास्त्र। सिद्धान्तचक्रम्- (नामान्तर-सिद्धान्तचन्द्रिका) श्लोक- लगभग 1501 सिद्धान्तचन्द्रिका- ले.- वसुगुप्त। विषय- शैव तन्त्र । सिद्धान्तचन्द्रिका- (2) ले.- रामाश्रम। सारस्वत व्याकरण का रूपान्तर। स्वतंत्र व्याकरण के रूप में प्रस्तुत तथा उसी पर यह टीका है। सिद्धान्तचंद्रिका पर लोकशंकर (तत्त्वदीपिका), सदानन्द (सुबोधिनी) और व्युत्पत्तिसार-कार ने टीकाएं लिखी है। सारस्वत व्याकरण पर जिनेन्द्र (सिद्धान्तरत्न), हर्षकीर्ति (तरंगिणी) ज्ञानतीर्थ और मध्व की टीकाएं हैं। अन्तिम तीन
का उल्लेख डॉ. बेलवलकर ने किया है। सिद्धान्तचन्द्रिकोदय - ले.- गंगाधरेन्द्र सरस्वती। सिद्धान्तचिन्तामणि - ले.- रघु। मलमासतत्त्व में यह ग्रंथ उल्लिखित है। सिद्धान्तजाह्नवी - ले.- देवाचार्य। निंबार्क- संप्रदाय के प्रसिद्ध कृपाचार्य के शिष्य। यह ब्रह्मसूत्र का विस्तृत समीक्षात्मक भाष्य है। इस ग्रंथ में निंबार्क से 7 वीं पीढी में हुये पुरुषोत्तमाचार्य द्वारा प्रणीत "वेदान्तरत्न-मंजूषा" का उल्लेख है। सिद्धान्तज्योत्स्रा-ले.- धनिराम । सिद्धान्ततत्त्वविवेक - ले.- कमलाकर। सिद्धान्ततिथिनिर्णय- ले.-शिवनन्दन ।
सिद्धान्तदीपिका - ले.-सर्वात्मशंभु। विषय- शाक्ततंत्र । सिध्दान्तनिदानम्- ले.- कविराज गणनाथ सेन। विषयपैथोलाजी (रोगनिदान-शास्त्र)। सिद्धान्तनिर्णय- ले.- रघुराम । सिद्धान्तप्रदीप - ले.- शुकदेव। ई. 19 वीं शती का पूर्वार्ध । श्रीमद्भागवत की टीका। निबार्क मत में द्वैताद्वैत ही दार्शनिक पक्ष है। जीव तथा ब्रह्म में व्यवहार दशा में भेद है जब कि पारमार्थिक रूप में अभेद। इस भेदाभेद-पक्ष को दृष्टि में रखकर ही यह टीका समग्र ग्रंथ पर उपलब्ध है। यह टीका न तो बहुत विस्तृत है, और न ही बहुत संक्षिप्त है। मूल भागवत के अनायास समझने के लिये यह टीका नितांत उपकारिणी है।
निबांर्कीयों का मत भी अन्य वैष्णव संप्रदायों के समान मायावाद के विरुद्ध है। फलतः अद्वैती व्याख्याकार श्रीधर के मत का खंडन अनेक स्थलों पर बडी नोंक झोंक के साथ सिद्धान्तप्रदीप में किया गया है। भागवत 8-24-37 की व्याख्या में शुकदेव ने श्रीधर का खंडन मायावादी कहकर किया है।
अष्टम स्कंध में वर्णित प्रलय, श्रीधर के मतानुसार मायिक है (भावार्थ-दीपिका 8-24-46) जब कि शुकदेव के मत से वास्तविक। द्वैताद्वैत का विवेचन टीका में यत्र तत्र उपलब्ध होता है। शुकदेव ने अपनी इस टीका में भागवत की व्याख्या
बडी निष्ठा से तथा संप्रदायानुसार की है। इस टीकासंपत्ति के लिये, निंबार्क संप्रदाय प्रस्तुत सिद्धान्तप्रदीप के लेख का चिरऋणी रहेगा।
सिद्धान्तप्रदीप के ही कारण विदित होता है कि निबार्क संप्रदाय के महनीय आचार्य केशव काश्मीरी ने भागवत की भी व्याख्या लिखी थी। कितने अंश पर लिखी, यह जानकारी नहीं मिल पाती, क्यों कि उनकी केवल वेदस्तुति की ही टीका सिद्धान्त प्रदीप में अक्षरशः संपूर्णतः उद्धृत की गई है। सिद्धान्तप्रदीप - आचार्य वल्लभ के ब्रह्मसूत्र- अणुभाष्य की मुरलीधरकृत टीका।। सिद्धान्तबिंदु (सिद्धान्ततत्त्वबिंदू)- ले.- मधुसूदन सरस्वती । कोटालपाडा (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती । अद्वैतवेदान्त विषयक अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं विद्वन्मान्य ग्रंथ। सिद्धान्तमुक्तावली- टीका- ले.-रामरुद्र तर्कवागीश । सिद्धान्तरहस्यम् - ले.- मथुरानाथ तर्कवागीश। सिद्धान्तराज- ले.- नित्यानन्द। ई. 17 वीं शती। सिद्धान्तशिखामणि- ले.- विश्वेश्वर। विषय- शैव तांत्रिक सिद्धान्त। सिद्धान्तशिरोमणि - ले.- भास्कराचार्य। ई. 12-13 वीं शती। ज्योतिर्गणित विषयक ग्रंथ। ज्योतिष शास्त्र का यह अत्यंत महत्त्व पूर्ण ग्रंथ है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 409
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