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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - प्राप्ति कराने वाले भावों के लक्षण भी कहे गये हैं। भावतत्त्वप्रकाशिका ले. चित्सुखाचार्य। ई. 13 वीं शती । भावदीपिका ले- अच्युत धीर । पितामह- पुष्कर। पिताजनार्दन । विषय सकल साधनाओं में भाव की आवश्यकता है। भाव को जाने बिना किसका किस कर्म में अधिकार है। यह जानना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में सब लोग भ्रष्ट होकर जाति, धन आदि सभी का वेदविरुद्ध रूप में उपयोग करते हैं। इसलिये बडी सावधानी के साथ भाव का इसमें निरूपण किया है। दिव्य, वीर और पशु के क्रम से भाव तीन प्रकार के होते हैं। उन भावों को क्रम से उत्तम मध्यम और अधम जाति के अन्तर्गत माना गया है। इसमें भाव के निर्णय से ही साधक सिद्धिलाभ करता है, यह विचार करते हुए ब्रह्मज्ञान से ही अभीष्ट सिद्धि हो सकती है यह निरूपित किया है। 2) ले नृसिंह पंचानन न्यायसिद्धान्तमंजरी की टीका। भावनाद्वात्रिंशतिका ले. अमितगति द्वितीय। जैनाचार्य । ई. 10 वीं शती । - - भावनापुरुषोत्तमम् (प्रतीकनाटक) ले श्रीनिवास दीक्षित । ई. 16 वीं शती । वेङ्कटनाथ के वासन्तिक महोत्सव के अवसर पर इसका अभिनय हुआ। महाराज सुरभूपति की इच्छानुसार रचना हुई। यह प्रतीक नाटक है। इसमें प्रधान रस शृंगार है। बीच बीच में अन्य रसों का भी समावेश है। जीवदेव की कन्या भावना, पुरुषोत्तम (भगवान् कथावस्तु विष्णु) से प्रेम करती है पुरुषोत्तम गरुड पर बैठकर मृगया के बहाने, भावना से मिलने निकलते हैं। हिरन पकड़ा जाता है पुरुषोत्तम आगे बढने पर सिद्धाश्रम पहुंचते हैं, जहां नायिका भी सखी के साथ हैं। भावना वहां तुलसी का स्तवन कर रही है। विष्णु उसको चतुर्भुज, शंख-चक्र गदा पद्मधारी रूप में दर्शन देते हैं। इतने में दूर से विदूषक का "त्राहि माम्" स्वर सुनाई पड़ता है उसे बचाने पुरुषोत्तम चले जाते हैं और अपनी प्रेमाकुल अवस्था का वर्णन करते हैं। सिद्धाश्रम के निकट मानसोद्यान में योगविद्या ऐसे उपदान प्रस्तुत करती है, कि भावना पुरुषोत्तम का मिलन हो। भावना वहां अदृश्य रूप में उपस्थित है। पुरुषोत्तम उसे ढूंढने लगते हैं। अन्त में जब वे चतुभुर्ज रूप धारण करते हैं, तब नायिका प्रकट होती है। कांचीपुर में स्वयंवरसभा का आयोजन होता है सभी राजा और देवता स्वयंवर में आते हैं, किन्तु पुरुषोत्तम नहीं। भावना सभी को अस्वीकार करती है, अन्त में पुरुषोत्तम पधारते हैं। भावना उनके गले में वरमाला डालती है। ब्रह्मा मंगलाष्टक पढते हैं और विवाह सम्पन्न होता है । www.kobatirth.org भावनापद्धति - ले. पद्मनन्दी। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती । भावनाप्रयोग ले- भास्करराय । श्लोक - 340 । 238 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - भावनाविवेक मीमांसा दर्शन । भावनिरूपणम् इसमें निरुत्तरतन्त्र तथा कुब्जिकात के उद्धरण हैं। रामगीत सेन की तन्त्रचन्द्रिका (जो तन्त्रसंग्रह है ) का संभवतः यह एक भाग है। भावनिर्णय ले. शंकराचार्य। श्लोक 2001 भावनोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् । भावना से अभिप्राय हे अमूर्त का ध्यान इस उपनिषद् में मानवी शरीर के विविध अवयवों का श्रीचक्र के विभिन्न अंगोपांगों के साथ मेल दिखाया गया है तथा श्रीचक्र की मानसपूजा का विधान बताया गया है। इस उपनिषद् में तांत्रिक तथा मानसिक पूजा का समन्वय किया गया है। इसमें कहा गया है कि कुंडलिनी शक्ति को दुर्गा मान कर उसकी भाव पूजा करने से शक्ति का फल प्राप्त होता है तथा वह शक्ति भक्तों की रक्षा करती है। इस विधि से साधना करने वाले साधक को "शिवयोगी" कहते हैं। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ले. मंडन मिश्र । ई. 7 वीं शती । विषय - For Private and Personal Use Only भावप्रकाश ले. भाव मिश्र । पिता श्रीमिश्र लटक । इस ग्रंथ की गणना, आयुर्वेद शास्त्र के लघुयत्री के रूप में होती है। "भावप्रकाश" की एक प्राचीन प्रति, 1558 ई. की प्राप्त होती है, अतः इसका रचना काल इसी के लगभग ज्ञात होता है। इसमें फिरंग रोग का वर्णन होने के कारण विद्वानों ने इसका रचनाकाल 15 वीं शताब्दी के लगभग माना है। फिरंग रोग का संबंध पोर्चुगीज लोगों से है। इस ग्रंथ के 3 खंड हैं, पूर्व, मध्य व उत्तर । प्रथम (पूर्व) खंड में अश्विनीकुमार तथा आयुर्वेद की उत्पत्ति का वर्णन, गर्भ प्रकरण, दोष व धातु वर्णन, दिनचर्या, ऋतुचर्या, धातुओं का जारण, मारण, पंचकर्म विधि आदि का विवेचन है। मध्यम खंड में ज्वरादि की चिकित्सा था अंतिम (उत्तर) खंड में वाजीकरण अधिकार है। इस ग्रंथ में लेखक ने समसामयिक प्रचलित सभी चिकित्सा विधियों का वर्णन किया है। इस ग्रंथ का हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन चौखंबा विद्याभवन से हो चुका है। हिंदी टीका का नाम विद्योतिनी टीका है। 2) ले. पिंगल । भाव प्रकाशिका ले. कृष्णचंद्र महाराज पुष्टिमार्गीय सिद्धांतानुसार ब्रह्मसूत्र पर लिखी गई एक महत्त्वपूर्ण वृत्ति । यह वृत्ति मात्रा में अणुभाष्य से भी बढकर है। संभवतः इस वृत्ति की रचना में कृष्णचंद्र महाराज के सुयोग्य शिष्य पुरुषोत्तमजी का सहयोग रहा है। - 2) ले. चित्सुखाचार्य । ई. 13 वीं शती । 3) ले नृसिंहाश्रम ई. 16 वीं शती भावभावविभाविका (टीकाग्रंथ) ले. - रामनारायण मिश्र । श्रीभागवत के रास पंचाध्यायी की सरस टीका। प्रस्तुत टीका
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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