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शाहराजनक्षत्रमाला- ले.- नारायण। 27 श्लोक । शाहराजसभा-सरोवर्णिनी- ले.- लक्ष्मण। माता- भवानी। पिता- विश्वेश्वर। शाहराजीयम्- ले.- लक्ष्मण। माता- भवानी। पिता विश्वेश्वर। काशी के निवासी। बाद में तंजौरनरेश शाहाजी का सभापण्डित बने। विद्यानाथ के प्रतापरुद्रीयम् का अनुकरण कर साहित्य शास्त्रीय सिद्धान्तों के उदाहरण इस स्तुतिकाव्य में प्रस्तुत किये हैं। शाहविलास - ले.. ढद्धिराज व्यास यज्वा । प्रस्तत संगीतप्रधान काव्य में तंजौरनरेश शाहाजी राज का चरित्र वर्णन किया है। शाहुचरितम्- ले.- वासुदेव आत्माराम लाटकर,। विषयकोल्हापुर के शाहु छत्रपति का गद्यमय तथा छात्रोपयोगी सुबोध चरित्र। शाहेन्द्रविलास- ले.- श्रीधर वेंकटेश। पिता- लिंगराय। 8 सर्ग। विषय- तंजौर के शाहजी का विलास। शिक्षापत्री- ले.- स्वामी सहजानंद। उद्धव सम्प्रदाय अथवा स्वामीनारायण पंथ के संस्थापक। इसमें 212 श्लोकों में सम्प्रदाय के मार्गदर्शक सहजानंद के उपदेशों का सार का समावेश है। इ. स. 1781 में अयोध्या के निकट छपैया ग्राम के सरयूपारी ब्राह्मण कुल में सहजानंद का जन्म हुआ। स्वामी सहजानंद का मूल नाम हरिकृष्ण था। पिता- धर्मदेव। माता- भक्तिदेवी । स्वामी सहजानंद की मृत्यु इ.स. 1830 में गदरा में हुई। उस समय उनके सम्प्रदाय के अनुयायियों की संख्या 5 लाख के लगभग भी। शिक्षापत्री में जन-कल्याणार्थ धर्म तथा शास्त्रों के सिद्धांतों का विवरण दिया गया है। व्यावहारिक उपदेशों के साथ दार्शनिक विचारों का भी इस ग्रंथ में समावेश है। श्री स्वामी नारायण ने अपने सिद्धांत का स्पष्ट प्रतिपादन, प्रस्तुत शिक्षा- पत्री के निम्न श्लोक में किया है
गुणिनां गुणवत्ताया ज्ञेयं ह्येतत् परं फलम्। कृष्णे भक्तिश्च सत्संगोऽन्यथा यांति विदोऽप्यधः ।। ।।4।। अर्थात् गुणीजनों की गुणवत्ता का परम फल यही है कि वे कृष्ण में भक्ति एवं सज्जनों का संग करते हैं, क्योंकि जो भक्ति और सत्संग नहीं करते, वे विद्वान् होने पर भी अधोगति प्राप्त करते हैं।
इसी भक्ति को स्वामी नारायण “पतिव्रता की भक्ति" कहते हैं। स्वधर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा माहात्य-ज्ञान की भक्ति की प्राप्ति में विशेष उपयोगिता है। अतः प्रस्तुत शिक्षा-पत्री में स्वामी नारायण का वचन है
"माहात्म्य-ज्ञान-युग भूरि स्नेहो भक्तिश्च माधवे" और सत्संगी जीवन में उनका कथन है
"स्वधर्म-ज्ञान-वैराग्य-युजा भक्त्या स सेव्यताम्।" श्री स्वामी नारायण की सम्मति में भगवत्सेवा ही परम मुक्ति है। शिक्षात्रयम् - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। ई. 20 वीं शती।
इसमें कुमार, युवा तथा वृद्ध के लिये धर्मोपदेश है। साथ में स्वतः स्वामीजी की विद्वत्तापूर्ण संस्कृत टीका और पं. राजेश्वर शास्त्री द्रविड की प्रस्तावना है।। शिक्षाष्टकम्- चैतन्य (गौरांग) महाप्रभु का कोई भी ग्रंथ प्राप्त नहीं होता। केवल 8 पद्यों का एक ललित संग्रह ही उपलब्ध है जो भक्तों में “शिक्षाष्टक" के नाम से विश्रूत है। ये 8 पद्य चैतन्य द्वारा समय-समय पर भक्तों से कहे गए थे। शिक्षाष्टक में भक्ति-मार्ग की उदात्त भावना का यथष्ट निर्देश है। इन पद्यों को चैतन्य ने अपने जीवन का दर्शन ही बना डाला था। ये पद्य उनके लिये मार्गदर्शन का कार्य करते थे और अन्य साधकों के जीवन का भी वे मार्गदर्शन करें यही चैतन्य का उद्देश्य था। सनातन गोस्वामी को काशी में दो मास तक उपदेश देने के पश्चात् चैतन्य ने निम्न पद को सबका सार बताया था
जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेवन,
इहा इते धर्म नाई, सुनो सनातन । शिक्षाष्टक का भी यही सार है। शिक्षासमुच्चय- ले.- शान्तिदेव। इसमें महायान पंथ का आचार तथा बोधिसत्त्व के आदर्शों का पूर्ण विवरण होने से यह बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध है। इसमें 27 कारिकाएं रचयिता की विस्तृत व्याख्या सहित हैं। महायान के अनेक विलुप्त ग्रंथों के उध्दरण भी समाविष्ट हैं। 19 परिच्छेदों में बोधिसत्त्व के आचार, लक्षण, विनय तथा स्वरूप का विस्तृत विवेचन । लेखक द्वारा स्वान्तःसुखाय रचना करने का उल्लेख है। सी. वेण्डल द्वारा सम्पादित अंग्रेजी अनुवाद भी संपन्न। तिब्बती अनुवाद इ. 816 से 838 के मध्य में सम्पन्न । शितिकण्ठरामायणम्-ले.- शितिकण्ठकवि । शितिकण्ठविजयम्- ले.- अभिनव भवभूति नाम से प्रसिद्ध "रत्नखेट" श्रीनिवास दीक्षित । सर्ग संख्या 17 । ई. 17 वीं शती। शिन्दे-विजय-विलासचम्पू- ले.- श्री सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर । ग्वालियर निवासी। इसमें कवि ने ग्वालियर-नरेशों के कुल की परम्परा का इतिहास संकलित किया है। ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य सिंधिया कुल की क्षत्रियता सिद्ध करना है। इसकी पाण्डुलिपि डॉ. गजानन शास्त्री मुसलगावंकर (वाराणसी) के पास उपलब्ध है। रचना अप्रकाशित है। शिबिवैभवम्- ले.- जगू शिंप्रैया (सन 1902-1960)। संस्कृत प्रतिभा में सन 1961 में प्रकाशित। स्वातंत्र्य-दिन के स्मरण-महोत्सव पर अभिनीत । अंकसंख्या-तीन। प्रथम अंक के पश्चात् शुद्ध विष्कम्भक, तदनंतर उपविष्कम्भक का प्रयोग, अति-दीर्घ संवाद तथा नाट्यनिर्देश। विषय-शिबि-कपोत की पौराणिक कथा। शिल्पदीपक-ले.- गंगाधर । काशी तथा गुजरात में प्रकाशित ।
366 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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