________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वीर रस की ही प्रधानता स्पष्ट है, तथा अन्य रस उसके सहाय्यक के रूप में प्रयुक्त हुए है।
इस नाटक का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन, चौखंबा प्रकाशन ने किया है। इस पर ए.बी. गजेंद्रगडकर ने अंग्रेजी में "वेणीसंहार" क्रिटिकल स्टडी' नामक विद्वतापूर्ण शोधनिबंध लिखा है।
नाट्य कला की दृष्टि से कुछ आलोचकों ने इस नाटक को दोषपूर्ण माना है, किन्तु इसका कलापक्ष या काव्यतत्त्व सशक्त है। इस नाटक में भट्टनारायण एक उच्च कोटी के कवि के रूप में दिखाई पडते है। इनकी शैली भी नाटक के अनुरुप न होकर काव्य के अनुकूल है। उसपर कालिदास, माघ व बाण का प्रभाव है। "वेणीसंहार" में वीररस का प्राधान्य होने के कारण, कविने तद्नुरूप गौडी रीति का आश्रय लिया है और लंबे-लंबे समास तथा गंभीर ध्वनि वाले शब्द प्रयुक्त किये है। अलंकारों के प्रयोग में कवि पर्याप्त सचेत रहे है। उन्होंने 18 प्रकार के छंदों का प्रयोग कर अपनी विदग्धता प्रदर्शित की है। इस नाटक में शौरसेनी व मागधी दो प्रकार की प्राकृतों का प्रयोग किया है। वेणीसंहार के टीकाकार . १) जगद्धर 2) जगन्मोहन तर्कालंकार 3) तर्कवाचस्पति 4) सी.आर.तिवारी 5) घनश्याम 6) लक्ष्मणसूरि। अनन्ताचार्य द्वारा लिखित नाट्यकथा संक्षिप्त गद्य) नाटक लेखन के बाद शीघ्र ही जावा द्वीप को पहंच गया था ऐसा उल्लेख सिल्वाँ लेवी ने अपने 'इन्ट्रोडक्शन टू संस्कृत टेक्सटस् फ्राम बाली' की प्रस्तावना में किया है।
भाष्य का संक्षेप है। वेदवृत्ति - ले.-धर्मपाल। ई. 7 वीं शती । वेदव्यासस्मृति - आनंदाश्रम पुणे द्वारा मुद्रित । वेदांगज्योतिष - ले.-लगधाचार्य। भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ। भाषा वा शैली के परीक्षण के आधार पर, विद्वानों ने इसका रचनाकाल ई. पू. 500 माना है। इसके दो पाठ प्राप्त होते है। "ऋग्वेद-ज्योतिष" व "यजुर्वेद-ज्योतिष" प्रथम में 36 श्लोक है और द्वितीय में 44। दोनों के श्लोक अधिकांश मिलते जुलते है, पर उमके क्रम में भिन्नता दिखाई देती है।
प्रस्तुत ग्रंथ में पंचांग बनाने के आरंभिक नियमों का वर्णन है। इसमें महिनों का क्रम चंद्रमा के अनुसार है और एक मास को 30 भागों में विभक्त कर, प्रत्येक भाग को तिथि कहा गया है। इसके प्रणेता का पता नही चलता, पर ग्रंथ के अनुसार किसी लगध नामक विद्वान् से ज्ञान प्राप्त कर इसके कर्ता ने ग्रंथ प्रणयन किया था। ग्रंथारंभ में श्लोक (1-2)। इसमें वर्णित विषयों की सूचि दी गयी है। वेदान्तकल्पतरु - ले.-अमलानंद। ई. 13 वीं शती। वेदान्तकल्पतरुमंजरी - ले. वैद्यनाथ पायगुंडे । ई. 18 वीं शती। वेदान्तकल्पललिका - ले. मधुसूदन सरस्वती। कोटलापाडा (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती । वेदान्तकौस्तुभ - ले.- श्रीनिवासाचार्य। आचार्य निंबार्क के शिष्य। यह ब्रह्मसूत्र की व्याख्या है। __ 2) ले.- बेल्लकोण्ड रामराय। आन्ध्रनिवासी। वेदान्ततत्त्वविवेक - ले.-नृसिंहाश्रम। ई. 16 वीं शती। वेदान्तदीप - ले.- रामानुजाचार्य (ई. 1017-1137) कृत ब्रह्मसूत्र की विस्तृत व्याख्या। वेदान्तदेशिकम् (नाटक) - ले.-श्रीशैल ताताचार्य। वेदांतपरिभाषा - ले.-धर्मराजाध्वरीन्द्र । वेदांत विषयक सिद्धान्तों को समझने की दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी माना जाता है। वेदांतपारिजात -सौरभ (वेदांतभाष्य) - ले.-निंबार्काचार्य । ब्रह्मसूत्र पर स्वल्पकाय वृत्ति। इसमें किसी अन्य मत का खंडन नही है। केवल द्वैताद्वैत सिद्धान्त का ही प्रतिपादन किया गया है। प्रस्तुत भाष्य का यह रूप, इसकी प्राचीनता का द्योतक है। यह संप्रदाय स्वभावतः मंडनप्राय होने के कारण किसी से शास्त्रार्थ में नहीं उलझता। वेदांतरत्नमंजूषा - ले.-पुरुषोत्तम। आचार्य निंबार्क से 7 वीं पीढी में पैदा हुये आचार्य। यह निंबार्काचार्य कृत दशश्लोकी का बृहद्भाष्य है। वेदांतविद्वद्वगोष्ठी - संपादक- सच्चिदानन्द सरस्वती । होलेनरसीपुर (कर्नाटक) के अध्यात्मप्रकाश कार्यालय द्वारा शंकरवेदान्त के
वेताल-पंचविशति - ले.- शिवदास। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् हर्टेल के अनुसार, इस कथासंग्रह की रचना 1487 ई. के पूर्व हुई थी। इसका प्राचीनतम हस्तलेख इसी समय का प्राप्त होता है। जर्मन विद्वान् हाइनरिश ने 1884 ई. में. लाइपजिग् से इसका प्रकाशन कराया था। डॉ. कीथ के अनुसार शिवदासकृत संस्करण 12 वीं शती के पूर्व का नहीं है। इसका द्वितीय संस्करण जंभलदास कृत है। तथा इसमें पद्यात्मक नीति वचनों का अभाव है। शिवदास कृत संस्करण के क्षेमेंद्र-रचित "बृहत्कथामंजरी" के भी पद्य प्राप्त होते है। इसका हिंदी अनुवाद पं. दामोदर झा ने किया है, जो मूल कथासंग्रह के साथ चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित है। पचीस रोचक कथाओं के इस संग्रह में गद्य की प्रधानता है। बीच बीच में श्लोक भी दीये गये है। वेदनिवेदनस्तोत्रम् - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। सटीक प्रकाशित । ई. 20 वीं शती।। वेदपारायण विधि- महार्णव से गृहीत। श्लोक- 301 वेदभाष्यम् - स्वामी दयानन्द सरस्वती। आर्य समाज के संस्थापक । वेदभाष्यसार - ले.-भट्टोजी दीक्षित। प्रथम अध्याय में सायण
350 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
For Private and Personal Use Only