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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra के होमार्थ मण्डप, कुण्ड आदि का निर्माण, वास्तुदेवतापूजा, षोडश नित्या विद्या, भक्तिनिष्ठा, अरिमर्दनविधान, सौम्यसोम विधान, ललिता विद्या का स्वरूपभेद विधान आदि विषयों का प्रतिपादन है। (कादिमत पर टीका) मनोरमा इसकी रचना सुभगानन्द ( नामान्तर प्रपंचसार सिंहराज प्रकाश) ने की थी। इनका वास्तविक नाम श्रीकण्ठेश था। ये काश्मीर के राजा के गुरु थे। इन्होंने यह टीका दक्षिण देश में लिखी थी जब की ये रामेश्वर तीर्थ की यात्रा के लिये दक्षिण गये थे और राजा नृसिंहराज के आश्रय में रहे थे। इन्होने 22 पटल तक ही यह टीका लिखी थी। शेष 14 पटलों की टीका इनके शिष्य प्रकाशानन्द देशिक ने पूर्ण की। टीका की समाप्ति का समय 1660 वि. लिखा है । www.kobatirth.org - 1 कादिसहखनामकला ले. रामानन्दतीर्थ स्वामी । 1 ) श्लोकसंख्या 57 महाकालसंहिता में ककारादि वर्णक्रम से कालीसहस्रनाम का स्तोत्र आता है। शक्तिपात, सर्ववीरादिसिद्धि आदि गूढार्थ के पदों का यह व्याख्यान है । कान्तिमतीपरिणय ले. चोक्कनाथ । तंजौर के शाहजी राजा के आश्रित । माता- नरसम्बा। पिता तिप्पाध्वरी। राजा और कान्तिमती के विवाह का वर्णन इस काव्य का विषय है कान्तिमती- शाहराजीयम् (नाटक) ले चोकनाथ ई. 17 । वीं शती प्रथम अभिनय तन्जौर में मध्यार्जुनेश के चैत्रोत्सव के अवसर पर हुआ। गीतिप्रवण रचना। प्रधान रस शृंगार । बीच में हास्य का पुट भाषा नियमानुसार संस्कृत तथा प्राकृत, परन्तु गम्भीर आशय व्यक्त करते समय स्त्रीपात्र भी संस्कृत का आश्रय लेते हैं । चतुर्थ अंक के संवाद आद्योपान्त प्राकृत भाषा में विषय- नायक शाहजी के कान्तिमती के साथ प्रणय की कथा । प्रतिनायक के रूप में शाहजी की महारानी । कठिनाई से उसकी अनुमति मिलने के पश्चात् दोनों का विवाह । - - कापेय सामवेद की एक शाखा । इस नाम का निर्देश काशिकावृत्ति (4-11-107) बृहदारण्य उपनिषद् (3-3-1) जैमिनि उपनिषद्ब्राह्मण (0-1-21) में मिलता है। इस शाखा का ब्राह्मण उपलब्ध है। 1 कापोत यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा । कामकन्दलम् (रूपक) - ले. कृष्णपन्त । ई. 19-20 वीं शती । चौखम्भा संस्कृत ग्रंथमाला में प्रकाशित । गुरुकुल कांगडी पुस्तकालय में प्राप्य । अंकसंख्या तीन विरल रंगनिर्देश । नायक ब्राह्मण । नायिका चार नर्तकियाँ । कथासार - विलासी ब्राह्मण श्रीपति शर्मा राजा कामसेन की नर्तकी कामकन्दला पर मोहित होता है। राजा उसे निष्कासित करता है। तब वह राजा विक्रमादित्य से सहायता मांगता है। विक्रमादित्य के बल पर ब्राह्मण कामसेन पर आक्रमण कर उसे पराजित करता है। अन्त में कामसेन श्रीपति को कामकन्दला देता है । कामकला ( नामान्तर या कामकलाविलास कामकलांगनाविलास) ले पुण्यानन्दनाथ इनके गुरु संभवतः श्रीनाथ थे। कामकला पर तीन टीकाएं उपलब्ध हैं। कामकलाकाली स्तोत्रम् यह गद्यप्राय स्तोत्र आदिनाथ विरचित महाकालसंहिता के अन्तर्गत है। इसे यद्यापि स्तोत्र कहा गया है तथापि इसकी शैली महामन्त्र के समान है । कामकलाविलास (भाण) ले प्रधान वैकाय श्रीरामपुर के निवासी । ले. शंकर। पिता कमलाकर । कामकलाविलासभाष्य श्लोकसंख्या 300 1 कामकलाव्याख्या ले. नटनानन्द । कामकल्पलता ले. सदाशिव संभोगशृंगार के विविध आसनों का श्लोकमय वर्णन इस ग्रंथ में किया है। कामकुमारहरणम् (रूपक) ले. कविचन्द्र द्विज । अठारहवी; शती का पूर्वार्ध । असम के महाराज शिवसिंह के आदेश से अभिनीत । असम साहित्य सभा, जोरहट से सन 1962 में, “रूपकत्रयम्" में प्रकाशित। इसके संवाद संस्कृत में और संस्कृतप्रचुर असमी भाषा में हैं। यह "आंकिया नाट" नामक असमी नाटक परम्परा की रचना है। इसका विषय हैं- उषा - अनिरुद्ध की पौराणिक प्रणयकथा । इस रूपक में विवस्त्र पात्र का रंगमंच पर प्रवेश दिखाया है। कामचाण्डालीकल्प ले. मल्लिषेण जैनाचार्य ई. 11 वीं । । · - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - 1 शती । कामंदकीय नीतिसार कौटिल्य के राजनीतिशास्त्र का कामंदक द्वारा किया गया संक्षिप्त अनुवाद सा है। कुछ लोग चन्द्रगुप्त के अमात्य शिखरस्वामी को ही इसका रचयिता मानते हैं। काल के सम्बन्ध में दो मत हैं। डॉ. याकोबी इसका समय चौथी शताब्दी मानते हैं जब कि कुछ विद्वान छठवीं या सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध मानते हैं। कामदंक स्वयं कौटिल्य को अपना गुरु मानते थे । प्रस्तुत ग्रंथ में कुल 19 अध्यायों में राज्य के अंगों व राजा के कर्तव्यों आदि का विवरण है। उपाध्याय निरपेक्ष, जयराम, आत्माराम, वरदराज व शंकर आचार्य ने इस ग्रंथ का समालोचन किया है। कामदंक ने राजधर्म का विवेचन इस प्रकार किया है। I दण्डं दण्डीयभूतेषु धारयन् धरणीसमः । प्रजाः समनुगृहणीयात् प्रजापतिरिव स्वयम् ।। वाक् सुनृता दया, दानं दीनोपगतरक्षणम् । इति सङ्गः सतां साधुहितं सत्पुरुषव्रतम्।। आविष्ट इव दुःखेन तद्गतेन गरीयसा । समन्वितः करुणया परया दीनमुद्धरेत् । । अर्थात् राजा को धर्मराज की भांति मानव मात्र को समान मानकर, स्वयं प्रजापति की भाँति प्रजा पर अनुग्रह संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 57
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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