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स्मृति में कृत तथा अकृत के रूप में दो प्रकार के न्यायालयीन साक्षियों का वर्णन किया है।
प्रजापतेः पाठशाला ले. सुरेन्द्रमोहन (रा. 20) "मंजूषा " में प्रकाशित बालोपयोगी लघु नाटक। सुबोध भाषा । उपनिषद् की कथा पर आधारित कथासार प्रजापति की पाठशाला में देवों, दानवों तथा मानवों को "द" अक्षर का उपदेश दिया जाता है। दानव उसका अर्थ दण्ड, दर्प तथा दीनों की दुर्गति करना समझते हैं । अन्त में तीनों को क्रमशः दम, दान तथा दया का उपदेश दिया जाता है।
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प्रज्ञादण्ड ले. नागार्जुन । इस ग्रंथ का केवल तिब्बती अनुवाद विद्यमान है। ई. 1919 में मेजर कॅम्पबेल द्वारा कलकत्ता से संपादित तथा प्रकाशित । नीतिपूर्ण रोचक रचना नैतिक तथा बुद्धिमत्तापूर्ण शिक्षा देनेवाली 260 लोकोक्तियों का यह संग्रह है। प्रज्ञापारमितासूत्र ले. बौध महायान संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रकाशक ग्रंथ । प्रज्ञापारमिता का अर्थ हैशून्यताविषयक सर्वोच्च ज्ञान जगत् के पदार्थों की यथार्थ सत्ता नहीं है, अर्थात् वे शून्यस्वरूप हैं। इस शून्यता का ज्ञान ही प्रज्ञा का प्रकर्ष है । इस शून्यता के नाना रूपों का प्रतिपादन इस रचना का प्रतिपाद्य विषय है । इसका स्वरूप तथागत एवं शिष्य संभूति के परस्पर वार्तालाप का है। महायान सूत्रों में यह सर्वाधिक प्राचीन, (ई. 2 री शती) माना जाता है। इसका चीनी अनवाद लोकरक्ष ने किया।
श्वाच्यांग ने 12 11 प्रज्ञापारमिताएं
में
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इसके अनेक संस्करण उपलब्ध हैं : प्रज्ञापारमिताओं का अनुवाद किया है। कंजूर संकलित हैं। 8 प्रज्ञापारमिताएं संस्कृत में भी प्राप्त हैं- (वे शतसाहस्त्रिका, पंचाविंशतिका अष्टसाहस्विका सार्धद्विसाहस्त्रिका, सप्तशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा तथा प्रज्ञापारमिता-हृदयसूत्र । नेपाली परम्परा से मूल रचना में सवा लाख श्लोक हैं, उसी का 25 हजार, 10 हजार, 8 हजार में संक्षेप है। अन्य परम्परा से प्राचीन रचना के 8 हजार श्लोक बढाकर ग्रंथ का विशदीकरण हुआ है। यह दूसरी परम्परा विश्वसनीय है। इन सूत्रों में दान, शील, धैर्य, वीर्य, ध्यान एवं प्रज्ञा इन 6 पारमिताओं का विवेचन है । अष्टसाहस्रिका संस्करण 32 परिवर्तों में विभक्त तथा सर्वाधिक प्राचीन है इसमें चर्चित सिद्धान्तों को ही नामान्तर से अनेक आचार्यों ने सुव्यवस्थित किया है । शतसाहस्त्रिका, पंचविंशतिसाहस्त्रिका, अष्टादशसाहस्त्रिका, दशसाहस्त्रिका, अष्टशतिका, सप्तशतिका, पंचशतिका, व्रजच्छेदिका, अल्पाक्षरा, एकाक्षरी आदि विविध बृहत् या संक्षिप्त रूप इसी अष्टसाहस्रिका रचना के हैं। इनमें से कुछ तो अप्राप्त हैं तथा अन्य अनूदित तथा प्रकाशित हैं, वज्रसूचिका प्रज्ञापारमिता में 300 श्लोक है तथा अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, तिब्बती खोतानी आदि अनेक भाषाओं मे अनूदित है।
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प्रणवकल्प स्कन्दपुराणांतर्गत श्लोक
2701 विषय
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प्रणवस्तवराज, प्रणवकवच, प्रणवपंजर, प्रणवहृदय, प्रणवानुस्मृति, ओंकाराक्षरमालिकामन्त्र प्रणवमालामन्त्र, प्रणवगीता, प्रणव के अष्टोत्तरशत नाम, प्रणव के षोडश नाम तथा यतियों का मानसिक स्नान आदि। यह ग्रंथ प्रणव या ओंकार की उपासना - विधि से संबंध रखता है।
(2) ले. शौनक। इसपर हेमाद्रिकृत टीका है। (3) ले आनंदतीर्थ ।
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प्रणवकल्पप्रकाश ले. गंगाधरेन्द्र सरस्वती भिक्षु । श्लोक 1097| विषय प्रणव की उपासना से संबंधित । प्रणवदर्पण (1) ले. वेंकटाचार्य ।
(2) ले. श्रीनिवासाचार्य ।
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प्रणवपारिजात - सन 1958 में कलकत्ता से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में इसके संपादकत्व का दायित्व केदारनाथ सांख्यतीर्थ और श्री जीव न्यायतीर्थ व महामहोपाध्याय श्री. कालीपद तर्काचार्य ने संभाला। बाद में श्री. रामरंजन प्रकाशक और संपादक दोनों का दायित्व संभालते रहे। इस पत्र में गद्य-पद्यात्म काव्य, अनुवाद, निबंध, स्तुतियां, समालोचना और अभिनव साहित्य का प्रकाशन होता रहा। प्रणवार्चनचन्द्रिका ले. मुकुन्दलाल । प्रणवोपनिषद् एक नव्य उपनिषद् । इस नाम का एक उपनिषद् गद्य में और दूसरा पद्य में है । प्रणव अर्थात् विष्णु - रहस्य । विष्णु के नाभि कमल में विराजमान ब्रह्मदेव ने प्रणव की सहायता से सृष्टि की रचना करने का निश्चय किया । अ उ म इन 3 अवयवों में से, अकार से उन्होंने पृथ्वी, अग्नि, औषध, ऋग्वेद, भूः (व्याहृति) गायत्री छंद त्रिवृत् स्तोम, पूर्वदिशा, वसंतऋतु, जीभ, रस व रुचि की निर्मिति की उकार से वायु, यजुर्वेद, भुवः (व्याहृति) त्रिष्टुभ् छंदः पंचदश स्तोम, पश्चिम दिशा, ग्रीष्मऋतु, प्राण व नासिका का निर्माण किया । "मकार" से स्वर्ग, सूर्य, सामवेद, स्वः ( व्याहृति), जगती छंद, सप्तदश स्तोम, उत्तर दिशा, वर्षा ऋतु ज्योति व नेत्रों का निर्माण किया और अर्धमात्रा से श्रुति, इतिहास, पुराण, वाकोवाक्य, गाथा, उपनिषद् व अनुशासन की निर्मिति की ।
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एक बार असुरों ने इन्द्रपुरी को घेर लिया। देवों ने प्रणव को अपना नायक बनाया। विजय प्राप्त होने की स्थिति में किसी भी वेदोच्चार के पूर्व प्रणव का उच्चार करने की बात मानी गई थी। देवों की विजय हुई। अतः तब से वेद पठन का प्रारंभ प्रणव से किया जाने लगा। प्रणव के साढे तीन मंत्रों का एक और वर्गीकरण इस उपनिषद में दिया है, जो निम्न प्रकार है
ब्रह्मा दैवत, लालरंग व ब्रह्म-पद की प्राप्ति
अकार ध्यान फल । उकार
विष्णु दैवत, काला रंग व वैष्णव पद की प्राप्ति
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 199