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पादुकोदयम् - ले. महेश्वरानन्द (अपरनाम- गोरख)। पाद्मतन्त्रम् (नामान्तर-पाद्मसंहिता या पांचरात्रोपरिषद्)श्लोक 9000। यह कण्व तथा कण्वाश्रमवासी ऋषियों का संवादरूप ग्रंथ है। यह तंत्र कण्व को संवर्त से प्राप्त हुआ था। इसके ज्ञान, योग, क्रिया और चर्या ये चार पाद हैं। ज्ञानपाद 12 अध्यायों में, योगपाद 5 अध्यायों में, क्रियापाद 32 अध्यायों में एवं चर्यापाद 33 अध्यायों में पूर्ण है। पान्थदूतम् - ले. भोलानाथ गंगटिकरी। पारमात्मिकोपनिषद् - एक नव्य वैष्णव उपनिषद् । इस उपनिषद् में विष्णु को परब्रह्म बताते हुए उनके विषय में निम्न विवेचन किया गया है : श्री विष्णु के षडक्षर , अष्टाक्षर एवं द्वादशाक्षर मंत्र पारमात्मिक हैं। इनमें से षडक्षर मंत्र विष्णुपरक है और अष्टाक्षर मंत्र नारायणपरक है। विष्णु से कोई भी बड़ा नहीं। भक्तों के लिये वे अवतार लेते हैं, इस लिये उन्हें भव कहते हैं। सूर्य व चंद्र का तेज उन्हींका है। उन्होंने रुद्र पर भी अनुग्रह किया है। उनकी तीन मूर्तिया, तीन गुण तथा तीन । पद प्रसिद्ध हैं। वे ही ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं। ऋषि मुनि यज्ञ द्वारा उन्हींकी उपासना करते हैं। समस्तप्रकृति (सृष्टि) उनकी आज्ञा में है। काम के रूप में वे ही प्राणिमात्र के मन को सुख प्रदान करते हैं। उन्होंने अनेक अवतार धारण किए। वे जलशायी हैं और लक्ष्मीजी उनके वक्ष पर विश्राम करती है। पारमितासमास - ले. आर्यशूर। नवीन अनुसंधान कर्ताओं द्वारा प्रकाश में लाई हुई रमणीय रचना। मूल प्रति नेपाल राजकीय पुस्तकालयत में सुरक्षित। प्रतिलिपि तथा अनुवाद इटली में भी सम्पन्न। इस ग्रंथ में दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, तथा प्रज्ञा, इन पारमिताओं का वर्णन 6 समासों में किया गया है। इन समासों के नाम दानपारमिता आदि हैं। रचना 364 श्लोकों की है तथा सरल सुबोध शैली में है। पारमिता का अर्थ नैतिक तथा आध्यात्मिक पूर्णता अथवा पारंगतता है। इस पारंगतता का प्रतिपादन इस ग्रंथ में है तथा दर्शन जातकमाला की कथाओं में होता है। आर्यशूर का दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ है बोधिसत्वावदानमाला। पारमेश्वरतन्त्रम् - श्रीकण्ठी के अनुसार यह अष्टदश रुद्रागमों मे अन्यतम है। पारमेश्वरसंहिता - श्लोकसंख्या लगभग- 8000। दो काण्डज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड। प्रथम ज्ञानकाण्ड 9 अध्यायों में
और दूसरा क्रिया काण्ड 25 अध्यायों में पूर्ण है। पारसिक-प्रकाश- ले. विहारीकृष्णदास। ई. 17 वीं शती। संस्कृतश्लोकों द्वारा पारसिक भाषां की शब्दावली का परिचय। पारस्कर-गृह्यकारिका- ले. रेणुकाचार्य। पिता- सोमेश्वगत्मज महेशसूरि। ई. 12 वीं शती।
पारस्करगृह्यसूत्रम् (कातीय अथवा वाजसनेय गृह्यसूत्रम्)शुक्ल यजुर्वेद का पारस्कररचित एक गृह्यसूत्र। इसमें विवाह, गर्भाधान आदि संस्कार तथा कृषि का प्रारंभ, विद्याध्ययन, श्रावणी, गृह-निर्माण वृषोत्सर्ग, श्राद्ध आदि विषयों का तीन खंडों में विवेचन है। आद्याक्षर देकर जो श्लोक अथवा उद्धरण दिये हैं वे सभी शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखा से लिये हुए हैं।
पारस्कर गृह्यसूत्र की टीकाएं-1) नन्दपंडितकृत- अमृतव्याख्या। ई. 15 वीं शती। 2) भास्करकृत - अर्थभास्कर। 3) वेदमिश्रकृत- प्रकाश। 4) रामकृष्णकृत- संस्कारगणपति। 5) जयराम (पिता-बलभद्र, मेवाड निवासी ) कृत सज्जनवल्लभा । 6) कामदेवकृत- परिशिष्ट (काण्डिका पर भाष्य)। अन्य टीकाकार हैं 7) गदाधर (पिता- वामन) ई. 16 वीं शती । 8) भर्तृयज्ञ (ई. 14 वीं शती) 9) वागीश्वरदत्त 10) वासुदेव दीक्षित। 11) विश्वनाथ (पिता- नृसिंह) ई. 17 वीं शती। 12) हरिशर्मा। ये सारी टीकाएं अन्यान्य स्थानों पर प्रकाशित हुई हैं। स्टेजलर द्वारा यह ग्रंथ लिपजिग में अनेक टीकाओं के सहित प्रकाशित हुआ है। गुजराती प्रेस, मुंबई द्वारा सन 1917 में प्रकाशित। पारस्करगृह्यसूत्रपद्धति - ले. कामदेव ।
2) ले. भास्कर।
3) वासुदेव। पारस्करगृह्यपरिशिष्टपद्धति - ले. कामदेव दीक्षित (विषय - कूपादिप्रतिष्ठा (गुजरात प्रेस में मुद्रित)। पारस्करमंत्रभाष्यम् - ले. मुरारि । पारस्करश्राद्धसूत्रवृत्यर्थसंग्रह - ले. उदयशंकर । परमानन्दसूत्रम् - श्लोक 20001 पारायणोपनिषद् - अथर्ववेद (सौभाग्य काण्ड) से संबद्ध एक नव्य शैव उपनिषद् । इसका प्रारंभ रुद्र- गायत्री मंत्र से होता है। पश्चात् गायत्री मन्त्र के साथ एक बीजाक्षर मंत्र का पारायण तथा कालनित्य का स्तवन किया जाये ऐसा बताया गया है। यह भी कहा गया है कि देवी-सहस्रशीर्ष का 200 बार जप करने से साधक पारायणी बनता है और उसे वाणी पर प्रभुत्व प्राप्त होता है। पाराशर - यजुर्वेद की एक लुप्तशाखा। पाराशर (धर्मसंहिता) - ले. पाराशर। ई. 5 वीं शती । इस संहिता या स्मृति का उपक्रम निम्न प्रकार किया गया हैएक बार कुछ ऋषि व्यासजी के पास गये और उन्होंने उनसे कलियुग में मानव जाति का कल्याण साध्य करने वाले आचारधर्म के विषय में जानकारी चाही। तब व्यासजी उन्हें अपने पिता पाराशर के पास बदरिकाश्रम में ले गए। वहां पर पराशरजी ने उन ऋषियों को चार वर्णों के धर्म बताये। इस स्मृति के प्रारंभिक चार अध्यायों में उन्नीस स्मृतियों के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /189
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