________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सरस्वती। [वाई (महाराष्ट्र) के निवासी] ई. 19-20 वी शती। जागतिक साहित्य का आश्चर्य है। ऐसे तीन रामायण आधुनिक ऐतरेय विषयसूची - संपादक - केवलानन्द सरस्वती। ई. काल में प्रसिद्ध हैं। रचना अर्थात् ही असाधारण क्लिष्ट है। 19-20 वीं शती।
कङ्कणबन्धरामायणम् -कवि- चारलु भाष्यकार शास्त्री। 20 ऐंद्रव्याकरणम् - ब्रह्मदेव तथा शक्र ने पाणिनि के पूर्व वीं शती पूर्वार्ध । आंध्र में कृष्णा जिले के काकरपारती ग्राम व्याकरण विषयक कुछ नियम प्रस्थापित किये थे। तैत्तिरीय के निवासी। इस कवि के एक ही कङ्कणबद्ध श्लोक से संहिता में ऐसा उल्लेख है कि देवताओं ने इन्द्र से “वाचं 128 अर्थ उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार के काव्य से कवि व्याकुरु" (वाणी का व्याकरण कर) यह प्रार्थना की थी। का भाषापाण्डित्य तथा संस्कृत भाषा की नानार्थ शक्ति सिध्द सामवेद के ऋक्तंत्र नामक प्रातिशाख्य में लिखा गया है कि होती है। ब्रह्मा ने इंद्र को एवं इंद्र ने भारद्वाज को व्याकरण सिखाया।। कंकालमालिनीतन्त्रम् -श्लोक 676। यह शिव-पार्वती संवादरूप भारद्वाज से वह अन्य ऋषियों को प्राप्त हुआ।
डेढ लक्ष श्लोकात्मक दक्षिणाम्नाय के अन्तर्गत 50000 श्लोकों ऐन्दवानन्दम् - ले- रामचन्द्र । ई. 18 वीं शती। ययाति राजा का मौलिक तन्त्र ग्रंथ है। इसके पांच पटल उपलब्ध हैं। के चरित्र पर नाटक। अंकसंख्या आठ।
विषय- अकरादि वर्गों की शिवशक्तिरूपता, योनिमुद्रा, गुरुपूजा ऐश्वर्यकादम्बिनी - ले. विद्याभूषण कृष्णचरित्रविषयक काव्य । और गुरुकवच, महाकाली के मन्त्रों का प्रतिपादन तथा ओरियन्टल थॉट- सन 1954 से नासिक से डॉ. जी.व्ही.देवस्थली
पुरश्चरणविधि इत्यादि। के सम्पादकत्व में इस संस्कृत वाङ्मय विषयक पत्रिका का कंठाभरणम् -ले. शंकर मिश्र। ई. 15 वीं शती। प्रकाशन प्रारंभ हुआ।
कन्दर्पदर्पविलास (भाण)-ले. बेल्लमकोण्ड रामराय औरतेय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय - चरणव्यूह के अनुसार आन्ध्रनिवासी। तैत्तिरीय शाखा दे. दो भेद हैं। (1)-गौखेय और (2) कंदर्पसंभवम् -इस ग्रंथ के कर्तृत्व के विषय में दो मत हैं। खाण्डिकीय। औखेय का नामांतर औखीय और खाण्डिकीय शंगभूपाल और विश्वेश्वर इन दो लेखकों ने अपने अपने ग्रंथ का नामान्तर खाण्डिकेय है। औखेयों के सत्र का प्रणयन में "यथा कंदर्पसंभवे भमैव" ऐसा कहते हा श्लोकों के विखनस ऋषि ने किया ऐसा वैखानस सूत्र के प्रारंभ में बताया उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। गया है। औखेयों का कुछ संस्कार विशेष वैखानसों में किया कंदुक-स्तुति -द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य ने छोटे-बडे जाता है। किन्तु चरणव्यूह में वैखानसों का कोई उल्लेख नहीं है। मिलाकर 37 ग्रंथों की रचना की। जिन्हें समवेत रूप से औदार्यचिन्तामणि - प्राकृत व्याकरण ले.- श्रुतसागरसूरि “सर्व-मूल" कहा जाता है। प्रस्तुत "कंदुक-स्तुति '' आचार्य जैनाचार्य। ई.16 वीं शती।
, की 38 वीं एवं लघुत्तम कृति है। इसे "सर्व-मूल" में समाविष्ट औदंबर-संहिता- ले. आचार्य निंबार्क के शिष्य औदंबराचार्य नहीं किया जाता। इसके अंतर्गत श्रीकृष्ण की स्तुति में केवल निबार्क तत्त्वज्ञान विषयक ग्रंथ।
दो अनुप्रासमय पद्य हैं। इनकी रचना आचार्य ने अपने औपमन्यव - कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा।
बाल्य-काल में की थी। ये पद्य निम्नांकित हैंऔमापतम् - शिव-पार्वती संवाद। संगीत शास्त्र की अपूर्ण
अम्बरगंगा-चुंबितपदः पदतल-विदलित-गुरुतरशकटः । रचना। प्राचीन संगीत, ताल, नृत्य तथा साहित्य का विवेचन
कालियनागवेल-निहंता सरसिज-दल-विकसित-नयनः ।। 38 भागों में किया है। भरत, मतंग तथा कोहल के मतों
कालघनाली-कर्बुरकायः शरशत-शकलित-रिपुशत-निकरः। से भिन्न विचार इस में हैं। नंदीश्वर संहिता का यह संक्षेप है
संततमस्मान् पातु मुरारिः सततग-समजव खगपतिनिरतः।। ऐसा रघुनाथ अपनी संगीतसुधा में कहते हैं। सांप्रत उपलब्ध कंसनिधनम् -कवि-राम। संक्षेपीकरण चिदम्बरम् के उमापति शिवार्य ने किया, जिनका कंसवधम् -इस नाम के अनेक ग्रंथ हैं जैसेसमय ई.12 वीं शती के पूर्व का माना जाता है। - 1. पातंजल महाभाष्य में उल्लिखित नाटक। औशनस-धनुर्वेद - संपादक- पं.राजाराम। पंजाब ओरिएंटल 2. ले.- राजचूडामणि। सर्गसंख्या- 101 सीरीज द्वारा प्रकाशित ।
3. ले.- धर्मसूरि । ई. 15 वीं शती कङ्कणबन्धरामायणम् -कवि कृष्णमूर्ति । ई.19 वीं शती।
4. ले.- शेषकृष्ण। (रूपक.) ई. 16 वीं शती। इस विचित्र ग्रंथ में अक्षरयुक्त दो पंक्तियों के एक ही श्लोक
5. ले.- महाकवि शेषकृष्ण। ई. 16 वीं शती। में संपूर्ण रामकथा समाविष्ट है। यह श्लोक कङ्कणाकार यह साल अंको का नाटक है। श्रीकृष्ण के जन्म से कंस के लिखकर, किसी भी अक्षर से दाहिने और बाएं पढने से 64 वध तक का कथानक । प्रमुख रस वीर । बीचबीच में विप्रलम्भ श्लोक बनते हैं। इनसे रामकथा पूर्ण होती है। यह प्रकार ।
शृंगार तथा रौद्र रस का भी पुट। प्राकृत का प्रचुर प्रयोग।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/47
For Private and Personal Use Only