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के नियम व स्वर-विधान का वर्णन है। अंतिम अध्याय में वर्णो की गणना एवं स्वरूप का विवेचन है। पाणिनि-व्याकरण में इसके अनेक सूत्र ग्रहण कर लिये गए हैं। इससे प्रस्तुत प्रातिशाख्य के प्रणेता कात्यायन, पाणिनि के पूर्ववर्ती (ई.पू. 7-8 वीं शती) सिद्ध होते हैं। इसके अनेक शब्द ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य की भांति प्राचीनतर अर्थों में प्रयुक्त हैं। इस प्रातिशाख्य की दो शाखाएं है जो प्रकाशित हो चुकी हैं। उव्वट का भाष्य व अनंत भट्ट की व्याख्या केवल मद्रास विश्वविद्यालय से प्रकाशित है और केवल उव्वट भाष्य का प्रकाशन अनेक स्थानों से हो चुका है। वांछाकल्पलता-प्रयोग - ले.- बुद्धिराज। पिता- व्रजराज । श्लोक 2001 वांछाकल्पलताविधि - श्लोक- 200 । वांछाकल्पलतोपस्थान-प्रयोग - ले.- बुद्धिराज । पिता- व्रजराज । श्लोक- 72 पूर्ण। वाणीपाणिग्रहणम् (लाक्षणिक नाटक) - ले.- व्ही. रामानुजाचार्य। वाणीभूषणम् - ले.-दामोदर। विषय- छंदःशास्त्र । वाणीविलसितम् - ले.-राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान तथा गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ द्वारा संस्कृत संस्कृतिवर्षनिमित्त सन 1981 में नागपुर निवासी महाकवि डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर की अध्यक्षता में अखिल भारतीय संस्कृत कवि सम्मेलन प्रयाग में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में भारत के सुप्रसिद्ध संस्कृत कवि उपस्थित थे। गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ ग्रंथमाला के प्रधान संपादक डॉ. गयाचरण त्रिपाठी
और डॉ.जगन्नाथ पाठक ने इस अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में पढी हुई सभी कविताओं का संग्रह "वाणी-विलसितम्' नाम से 1981 में प्रकाशित किया। 1978 में वाणी-विलसितम् का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था जिसमें वाराणसी और प्रयाग के निवासी संस्कृत कवियों के काव्य संगृहीत किए है। वात-दूतम् - ले.-कृष्णनाथ न्यायपंचानन। दूतकाव्य। ई. 17 वीं शती। वातुलनाथसूत्रम् (सवृत्ति)- मूल रचयिता- वातुलनाथ । वृत्तिकार- अनन्तशक्तिपाद । श्लोक- 200। वातुलशुद्धागमसंहिता (या वातुलशुद्धागम - (श्लोक400)। वातुलसूत्रम् (सवृत्ति) - वृत्तिकार नूतनशंकर स्वामी। वृत्ति का नाम- विद्यापारिजात । श्लोक- 1501 वात्सल्यरसायनम् (खंडकाव्य) - कवि डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर । नागपुर निवासी। इस वसन्ततिलका छन्दोबद्ध खण्डकाव्य में भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म से कंसवध तक की अन्यान्य बाललीलाओं का वात्सल्य एवं भक्ति-रसपूर्ण वर्णन है। शारदा
प्रकाशन, पुणे द्वारा सन 1956 में प्रकाशित। वात्स्य-शाखा - ऋग्वेद की इस शाखा के संहिता-ब्राह्मण-सूत्रादि अप्राप्त हैं। शुक्ल यजुओं में भी एक वत्स पौण्डरवत्स शाखा मानी गई हह। इस नामसादृश्य के अतिरिक्त और शांखायन आरण्यक के कुछ हस्तलेख में उल्लिखित "वात्स्य" नाम के अतिरिक्त इस शाखा के विषय में जानकारी नहीं है। वात्स्यायन-कामसूत्रम् - ले.-वात्स्यायन ऋषि । भारतीय कामशास्त्र या काम-कला-विज्ञान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण व विश्व-विश्रुत ग्रंथ। इसके प्रणेता वात्स्यायन के नाम पर ही इसे "वात्स्यायन कामसूत्र कहा जाता है। वात्स्यायन के नामकरण व उनके स्थिति-काल दोनों के ही संबंध में विविध मतवाद प्रचलित हैं जिनका निराकरण अभी तक नहीं हो सका है। प्रस्तुत "कामसूत्र" का विभाजन अधिकरण, अध्याय तथा प्रकरण में किया गया है। इसके प्रथम अधिकरण का नाम “साधारण" है और उसके अंतर्गत ग्रंथविषयक सामान्य विषयों का परिचय दिया गया है।
इस अधिकरण में अध्यायों की संख्या 5 है तथा 5 प्रकरण हैं- शास्त्र-संग्रह, त्रिवर्ग-प्रतिपत्ति, विद्यासमुद्देश, नागरवृत्त तथा नायक सहाय दूतीकर्म विमर्श प्रकरण । प्रथम प्रकरण का प्रतिपाद्य विषय धर्म, अर्थ व काम की प्राप्ति है। इसमें कहा गया है कि मनुष्य श्रुति आदि विभिन्न विद्याओं के साथ अनिवार्य रूप से कामशास्त्र का भी अध्ययन करे। कामसूत्रकार के अनुसार मनुष्य विद्या का अध्ययन कर अर्थोपार्जन में प्रवृत्त हो और फिर विवाह करके गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करे। किसी दूती या दूत की सहायता से उसे किसी नायिका से संपर्क स्थापित कर प्रेम संबंध बढाना चाहिये। तदुपरांत उसी से विवाह करना चाहिये जिससे गार्हस्थ्य जीवन सदा के लिये सुखी बने। द्वितीय अधिकरण का नाम है सांप्रयोगिक जिसका अर्थ है संभोग। इस अधिकरण में 10 अध्याय या 17 प्रकरण हैं जिनमें नाना प्रकार से स्त्री-पुरुष के संभोग का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि जब तक मनुष्य संभोग कला का सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं करता, तब तक उसे वास्तविक आनन्द प्राप्त नहीं हो पाता। तृतीय अधिकरण को कन्या-संप्रयुक्तक कहा गया है। इसमें 5 अध्याय व 9 प्रकरण हैं। इस प्रकरण में विवाह के योग्य कन्या का वर्णन किया गया है। कामसूत्रकार ने विवाह को धार्मिक बंधन माना है। चतुर्थ अधिकरण को "भार्याधिकरण" कहते हैं। इसमें 2 अध्याय व 8 अधिकरण हैं तथा भार्या (विवाह होने पश्चात् कन्या को भार्या कहते हैं) के दो प्रकार वर्णित हैं(1) धारिणी व (2) सपत्नी। इस अधिकरण में दोनों प्रकार की भार्याओं के प्रति पति का तथा पति के प्रति उनके कर्तव्यों का वर्णन है। पांचवें अधिकरण की संज्ञा “पारदारिक" है। इस प्रकरण में
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड 325
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