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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी भी मामले का निर्णय केवल शास्त्र के अनुसार नहीं, तो बुद्धि से कारणमीमांसा कर ही देना चाहिये। न्यायालय में मामला दाखिल होने से उसका फैसला होने तक की कार्यपद्धति इसमें विस्तार से दी गई है। इस में कानून विषयक शब्दों की अत्यंत सूक्ष्म परिभाषायें दी गई है। मृच्छकटिक नाटक के न्यायालयीन प्रसंग तथा कार्यपद्धति, इस स्मृति के अनुसार वर्णित हैं। इस स्मृति का मनुस्मृति से निकट संबंध है। स्कंद पुराण में किंवदन्ती है कि मूल मनुस्मृति के भृगु, नारद, बृहस्पति तथा आंगिरस ने चार विभाग किये। मनु ने जिन विषयों की संक्षिप्त चर्चा की, उसका बृहस्पति ने विस्तार से विवेचन किया है। बृहस्पति और नारद में अनेक विषयों पर मतैक्य है। परंतु बृहस्पति की न्यायविषयक परिभाषायें नारद से अधिक अनिश्चयात्मक हैं। बैजवाप गृह्यसूत्रम् - ले.- बैजवाप। यह शुक्ल यजुर्वेद का गृह्यसूत्र है। मानव गृह्यसूत्र के अष्टावक्र नामक टीकाकार तथा गंगाधर नामक धर्मशास्त्रकार ने इस गृह्यसूत्र के उध्दरण अपने अपने ग्रंथों में उध्दत किये हैं। बैजवाप ब्राह्मण तथा संहिता अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। चरकसंहिता में उल्लेख है कि हिमालय में एकत्र आने वाले ऋषियों में बैजवापी नामक ऋषि भी थे। बैजवापी-स्मृति का भी कहीं-कहीं उल्लेख होता है। बोधिचर्यावतारणपंजिका - ले.-नागार्जुन। इसमें बुद्ध के उपदेशों का विवेचन, आत्मवाद का खंडन तथा अनात्मवाद का मंडन है। उदाहरणार्थ जो आत्मा को देखता है, उसका अहं से सदा स्नेह रहता है। स्नेह के कारण सुखप्राप्ति के लिये तृष्णा पैदा होती है। तृष्णा दोषों का तिरस्कार करती है। गुणदर्शी पुरुष, इस विचार से कि विषय मेरे हैं, विषयों के साधनों का संग्रह करता है। इससे आत्माभिनिवेश उत्पन्न होता है। जब तक आत्माभिनिवेश रहता है, तब तक प्रपंच शेष रहता है। आत्मा का अस्तित्व मानने पर ही पर का ज्ञान । होता है। आप-पर विभाग से रागद्वेष की उत्पत्ति होती है। स्वानुराग तथा परद्वेष के कारण ही समस्त दोष पैदा होते हैं। महावस्तु - यह बौद्धों के हीनयान पंथ का एक प्रसिद्ध प्राचीन विनयग्रंथ है। महावस्तु का अर्थ है महान् विषय या कथा। इसमें बोधिसत्व की दशभूमियों का विस्तृत वर्णन है। बुद्धचरित्र महावस्तु का विषय है। इस ग्रंथ की भाषा मिश्र संस्कृत है। ईसा के दो सौ वर्ष पूर्व इस ग्रंथ का निर्माण संभव है। बेकनीयसूत्र-व्याख्यानम् - मूल "नोव्हम् ऑरगॅनम् " नामक बेकनकृत अंग्रेजी निबंध ग्रंथ का अनुवाद। अनुवादक- विट्ठल पण्डित । वाराणसी में 1852 में प्रकाशित । बोधपंचाशिका - ले.-अभिनवगुप्त । बोध-विलास - ले.- हर्षदत्त-सूनु। बौधायनगृह्यकारिका - ले.- कनकसभापति। बोधायनगृह्यपद्धति - ले.- केशवस्वामी। बोधायनगृह्यम् - मैसूर में प्रकाशित। डॉ. श्यामशास्त्री द्वारा संपादित। इसमें गृह्य के चार प्रश्न, गृह्यसूत्रपरिभाषा पर दो, गृह्यशेष पर पांच, पितृमेधसूत्र पर तीन एवं पितृमेधशेष पर एक प्रश्न है। यह बोधायनगृह्य-शेषसूत्र (2-6) है। इसमें पुत्रप्राप्तिग्रह (गोद लेना) पर एक वचन है जो वसिष्ठधर्मसूत्र से बहुत मिलता है। इस पर अष्टावक्रलिखित पूरणव्याख्या, और शिष्टिभाष्य नामक दूसरा भाष्य है। बोधायनगृह्यपरिशिष्टम् - हार्टिग द्वारा सम्पादित । बाधायनगृह्यप्रयोगमाला - ले.-राम चौण्ड या चाउण्ड के पुत्र । बोधायनगृह्यसूत्रम् - इसमें षोडश संस्कार, सप्त पाकसंस्था, गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य, आदिविषय हैं। अनेक अध्यायों के अंत में बोधायन के नाम का उल्लेख है। इसके परिभाषासूत्र तथा शेषसूत्र दो परिशिष्ट ग्रंथ हैं जिनमें अतिथिधर्म, पितृमेध, उदकशांति तथा दुर्गाकल्प, प्रणवकल्प, ज्येष्ठाकल्प आदि कल्पों का विधान है। बोधायन-धर्मसूत्रम् - ले. बोधायन । कृष्ण यजुर्वेद के आचार्य । यह धर्मशास्त्र उसके कल्पसूत्र का अंश है। बोधायन गृह्यसूत्र में इसका उल्लेख है। यह ग्रंथ संपूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं - है। इसमें 8 अध्याय हैं जो अधिकांश श्लोकबद्ध हैं। इसमें आपस्तंब तथा वसिष्ठ के अनेक सूत्र अक्षरशः प्राप्त होते हैं। यह धर्मसूत्र, “गौतम-धर्मसूत्र" से अर्वाचीन माना जाता है। इसका समय वि.पू. 500 से 200 वर्ष है। इसमें वर्णित विषय हैं- धर्म के उपादानों का वर्णन, उत्तर व दक्षिण के विभिन्न आचार-व्यवहार, प्रायश्चित्त, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, ब्रह्मचर्य की महत्ता, शारीरिक व मानसिक अशौच, वसीयत के नियम, यज्ञ के लिये पवित्रीकरण, मांस-भोजन का निषेधानिषेध, यज्ञ की महत्ता, यज्ञ-पात्र, पुरोहित, याज्ञिक व उसकी पत्नी, घी, अन्न का दान, सोम व अग्नि के विषय में नियम। राजा के कर्त्तव्य, पंच महापातक व उनके संबंध में दंडविधान, पक्षियों को मारने का दंड, अष्टविध विवाह, ब्रह्मचर्य तोडने पर ब्रह्मचारी द्वारा सगोत्र कन्या से विवाह करने का नियम, छोट-छोटे पाप, कच्छ व अतिकच्छों का वर्णन. वसीयत का विभाजन. ज्येष्ठ पुत्र का भाग, औरस पुत्र के स्थान पर अन्य प्रतिव्यक्ति, वसीयत के निषेध, पुरुष और स्त्री द्वारा व्यभिचारण करने पर प्रायश्चित्त, नियोग-विधि, अग्निहोत्र आदि गृहस्थ-कर्म, संन्यास के नियम आदि। इस में औजांघनी, कात्य, काश्यप, प्रजापति आदि शास्त्रकारों का उल्लेख है। यह ग्रंथ, गोविंदस्वामी के भाष्य के साथ काशी संस्कृत सीरिज से प्रकाशित हो चुका है और इसका अंग्रेजी अनुवाद "सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट' भाग 14 में समाविष्ट किया गया है। बोधायनश्रौतसूत्र - व्याख्या- ले.-वासुदेव दीक्षित तथा यज्ञेश्वर दीक्षित। रुष और स्त्री आदि गृहस्थ कम प्रजापति 222 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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