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राग, भाषा तथा प्रबंध की भी चर्चा है। वाद्याध्याय नामक एक अध्याय भी इसमें है। बृहद्रव्यसंग्रह - ले.- नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। बृहद्ब्रह्मसंहिता - वैष्णवों का उपासना विषयक ग्रंथ। इसमें 33 अध्याय हैं तथा पुष्टिमार्ग के अनुसार हरिलीला का वर्णन है। पुष्टिमार्ग के अनुसार हरि तथा उसकी लीला में अभेद है तथा लीलादर्शन के उत्सुक जीव हरिकृपा से गोलोक को जाते है। पद्मपुराण के गोपी-वर्णन में तथा प्रस्तुत ग्रंथ के गोपीवर्णन में बहुत साम्य है। इसी नाम का, एक और ग्रंथ । है तथा उसमें राधाकृष्ण तथा सीता-राम की युगल उपासना का वर्णन है। बृहद्भुतडामर-तन्त्रम् - उन्मत्तभैरवी-उन्मत्तभैरव संवादरूप। पटल- 25। विषय - इन्द्रजालादिसंग्रह। रसिकमोहन चटर्जी द्वारा सम्पादित। कलकत्ता में सन् 1879 में मुद्रित। बृहद्योनितन्त्रम् - ले.- पार्वती-ईश्वर संवादरूप। विषय - बृहद्योनितन्त्र का माहात्म्य, प्रकृति की योनिरूपता, सर्वदेवमयता, सर्वतीर्थमयता तया सर्वशक्तिमत्ता का प्रतिपादन। बृहद्रत्नाकर - ले.- वामनभट्ट । बृहद्द्रयामलम् - श्रीकृष्ण-नारद संवादरूप। खण्ड-4। बृहद्वृत्ति - ले.- हेमचन्द्राचार्य। इन्होंने प्रस्तुत स्वकीय ग्रंथ का महान्यास भी लिखा है जिसमें अनेक अव्ययों और निपातों का धातुजत्व दर्शाया है। बृहवृत्ति - ले.- त्रिविक्रम । यह सारस्वत व्याकरण का भाष्य है। बृहत्व्रजगुणोत्सव - ले.-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। बृहन्नारदीयपुराणम् - एक वैष्णव उपपुराण। इसमें 38 अध्याय
और 3600 श्लोक हैं। अनुमान है कि सन 750 से 900 के बीच उत्कल या बंगाल में इसकी रचना हुई। संप्रति उपलब्ध नारदीय पुराण में इस उपपुराण के कुछ श्लोकों को छोडकर सभी अध्याय समाविष्ट हैं। इस में प्रारंभ में वृंदावन के उपेंद्र की स्तुति की गयी है। महाविष्णु से विश्व की उत्पत्ति, आश्रमधर्म, उत्तम भागवत के लक्षण, प्रयाग तथा वाराणसी की गंगा की महिमा, गुरु, भूमिदान, सत्कार्य की प्रशंसा, वर्णाश्रमधर्म, मोक्षमार्ग, चार युग आदि विषयों का इसमें वर्णन है। इस पुराण में विष्णु की उपासना के समान ही शिवोपासना का भी गौरव किया है। बृहन्निधिदर्शनम् - विषय - तंत्रमार्ग से संबंधित निधि-कर्म में उत्तम सहायकों तथा निंद्य सहायकों का वर्णन, निधिस्थानों का वर्णन। बृहनिर्वाणतन्त्रम् - चण्डिका-शंकर संवादरूप। 14 पटलों में पूर्ण। विषय - ब्रह्माण्ड-वर्णन, सृष्टि निरूपण, प्रकृति की प्रशंसा, गोलोकादि का कथन, ज्ञान-पद्मकथन इ.।
बृहन्नीलतन्त्रम् - शिव-पावती संवादरूप महातन्त्र । चतुष्टि (64) महातन्त्रों में अन्यतम तथा 23 पटलों में पूर्ण । श्लोक32251 विषय- नीलसरस्वती-बीज, स्नान, तिलक आदि का प्रकार। साधनयोग्य स्थान, नीलसरस्वती की पूजाविधि। त्रिविध गुरु । बलिदान-मंत्र । संध्या का प्रकार। अष्टांगप्राणायामलक्षण । दीक्षाविधि तथा दीक्षाकाल। स्थान, नक्षत्र आदि का निरूपण । पुरश्चरण विधि। काम्यपूजाविधि। द्विजों के लिए सुरापान में प्रायश्चित्त । पीठपूजाविधि। कौलिकार्चन-माहात्म्य । शक्तिपूजा-प्रकार, कालिका, रटन्ती, अन्नपूर्णा आदि की पूजाविधि, षट्कर्म-निरूपण, ज्योतीरूप दर्शन के उपाय, वशीकरण, शान्तिस्तोत्र आदि। बृहमहाभाष्यप्रदीप-विवरणम् - ले.- ईश्वरानन्द सरस्वती । बृहस्पति-स्मृति - ले.- बृहस्पति, जो प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रज्ञ माने जाते हैं। प्रमुख 18 स्मृतियों में इसका अन्तर्भाव होता है। "मिताक्षरा' व अन्य भाष्यों में इनके लगभग 700 श्लोक प्राप्त होते हैं जो व्यवहार विषयक हैं। कौटिल्य ने इनको प्राचीन अर्थशास्त्री के रूप में वर्णित किया है। "महाभारत" के शांतिपर्व में (59-80-85) बृहस्पति को ब्रह्मा द्वारा रचित धर्म, अर्थ व काम-विषयक ग्रंथों को तीन सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त करने वाला कहा गया है। महाभारत के वनपर्व में "बृहस्पति-नीति" का उल्लेख है। "याज्ञवल्क्य-स्मृति" में इन्हें धर्मवक्ता कहा गया है। "बृहस्पति-स्मृति", अभी तक संपूर्ण रूप में प्राप्त नहीं हुई है। डॉ. जोली ने इसके 711 श्लोकों का प्रकाशन किया है। इनमें व्यवहार विषयक सिद्धान्त व परिभाषाओं का वर्णन है। उपलब्ध "बृहस्पति-स्मृति' पर "मनुस्मृति" का प्रभाव दिखाई पडता है। अनेक स्थलों पर तो बृहस्पति मनु के संक्षिप्त विवरणों के व्याख्याता सिद्ध होते हैं। अपरार्क व कात्यायन के ग्रंथों में बृहस्पति के उध्दरण मिलते हैं। भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे के अनुसार बृहस्पति का समय 200 ई. से 400 ई. के बीच माना जा सकता है। स्मृति-चंद्रिका, मिताक्षरा, पराशर-माधवीय, निर्णय-सिंधु व संस्कार-कौस्तुभ में बृहस्पति के अनेक उद्धरण प्राप्त होते है। बृहस्पति के बारे में विद्वान् अभी तक किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं। अपरार्क व हेमाद्रि ने वृद्धबृहस्पति एवं ज्योतिर्ब्रहस्पति का भी उल्लेख किया है। बृहस्पति प्रथम धर्मशास्त्रज्ञ हैं जिन्होंने धन तथा हिंसा के भेद को प्रकट किया है। इसमें भूमिदान, गयाश्राद्ध, वृषोत्सर्ग, वापीकूपादि का जीर्णोद्धार आदि विषय हैं। इसमें न्यायालयीन व्यवहार विषयक जो विवेचन हुआ है, वह इस स्मृति की विशेषता है। कुछ प्रमुख बातों का विवेचन इस प्रकार है- प्रमाण, गवाह, दस्तावेज तथा भुक्ति (कब्जा) न्यायालयीन कार्य के 4 अंग हैं। फौजदारी और दीवानी मामले दो प्रकार के होते हैं। लेन-देन के मामले के 14 तथा फौजदारी मामले के 4 भेद हैं। न्यायाधीश को
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 221
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