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के द्वारा किया गया है। द्वितीय अध्याय में गार्ग्य व काशीनरेश बृहदारण्यकोपनिषत्खंडार्थ। 13) मथुरानाथ की लघुवृत्ति। 14) अजातशत्रु के संवाद हैं तथा याज्ञवल्क्य द्वारा अपनी दो राघवेन्द्र का बृहदारण्यकोपनिषदर्थ संग्रह। 15) पत्नियों- मैत्रेयी व कात्यायनी- में धन का विभाजन कर वन बृहदारण्यक-विषय-निर्णय, 16) बृहदारण्यक-विवेक। 17) जाने का वर्णन है। उन्होंने मैत्रेयी के प्रति जो दिव्य दार्शनिक विज्ञान-भिक्षु का भाष्य। 18) नारायण की दीपिका संदेश दिये हैं, उनका वर्णन इसी अध्याय में है। तृतीय व
ऑफ्रेट के अनुसार इस आरण्यक पर निम्नलिखित वार्तिक-ग्रन्थ चतुर्थ अध्यायों में जनक व याज्ञवल्क्य की कथा है। तृतीय लिखे गये : में राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य द्वारा अनेक ब्रह्मज्ञानियों
1) शांकर-भाष्य का ही वार्तिकरूप, सुरेश्वराचार्य कृत। का परास्त होना तथा चतुर्थ अध्याय में राजा जनक का
2) आनन्दतीर्थ की शास्त्रप्रकाशिका याज्ञवल्क्य से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख
___3) आनन्दपूर्ण-विरचित न्यायकल्पलतिका । है। पंचम अध्याय में कात्यायनी एवं मैत्रेयी का आख्यान व
4) बृहदारण्यकवार्तिक-सार। नाना प्रकार के आध्यात्मिक विषयों का निरूपण है यथा नीति
बृहद्गोतमीयम् - नारद-शौनिकादि-संवादरूप। 36 पटलों में विषयक, सृष्टिसंबंधी व परलोक-विषयक। षष्ठ अध्याय में
समाप्त। विषय- वैष्णवों की प्रशंसा, अवतार के कारण, अनेक प्रकार की प्रतीकोपासना व पंचाग्नि-विद्या का वर्णन
कृष्ण-मन्त्र की प्रशंसा इत्यादि। है। इस उपनिषद् के मुख्य दार्शनिक याज्ञवल्क्य हैं और सर्वत्र उन्हीं की विचारधारा व्याप्त है। यह उपनिषद् गद्यात्मक है ।
बृहदेवता - ले.- शौनक। 6 वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के इसमें आरण्यक एवं उपनिषद् दोनों ही अंश मिले हुए है।
ऋषि देवता, छंद पद आदि के विषय में जो ग्रंथ लिखे गये इसमें संन्यास की प्रवृत्ति का अत्यंत विस्तार के साथ वर्णन
हैं, उनमें यह एक सर्वश्रेष्ठ प्राचीन ग्रंथ है। अनुमान है कि है तथा एषणात्रय (लोकैषणा, पुत्रैषणा व वित्तैषणा) का
ईसा के पूर्व 8 वीं शताब्दी में अर्थात् पाणिनि के पूर्व तथा परित्याग, प्रव्रजन (संन्यास) व भिक्षाचर्या का उल्लेख है।
यास्क के बाद इसकी रचना हुई है। मैक्डोनल के मतानुसार प्रथम अध्याय में प्राण को आत्मा का प्रतीक मान कर, आत्मा
ये शौनेक पुराणोक्त शौनक से भिन्न हैं। वैदिक देवताओं के या ब्रह्म से जगत् की सृष्टि कही गई है और उसे ही समस्त
नाम कैसे रखे गये इसका विचार इसमें हुआ है। इसमें 1200 प्राणियों का आधार माना गया है। आत्मा-परमात्मा का ऐक्य,
श्लोक और 8 अध्याय हैं। प्रथम तथा द्वितीय अध्याय में अनुभव तथा तर्क के आधार पर क्रमशः मधु तथा मुनि
ग्रंथ की भूमिका है। उसमें प्रत्येक देवता का स्वरूप, स्थान काण्ड में प्रतिपादित किया गया है। खिल-काण्ड में इस ऐक्य
देवता का स्वरूप, स्थान तथा वैलक्षण्य का वर्णन है। भूमिका की अनुभूति के लिये अनेक मार्ग बताये गये हैं। प्रस्तुत .
के अंत में निपात, अव्यय, सर्वनाम, संज्ञा, समास आदि उपनिषद् का सुप्रसिद्ध शांतिमंत्र इस प्रकार है:
व्याकरण के विषयों की चर्चा है। यास्क के व्याकरणदृष्टि से
पप्रयोगों पर भी टीका है। आगे के अध्यायों में ऋग्वेद के ओम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
वताओं का क्रमशः उल्लेख है। उसमें कुछ कथाएं भी हैं पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
जो देवताओं का महत्त्व प्रकट करती हैं। महाभारत तथा परब्रह्म सब प्रकार से परिपूर्ण है। यह जगत् (उस परब्रह्म बृहदेवता की इन कथाओं में साम्य दिखाई देता है। अनेक से उत्पन्न होने के कारण वह भी पूर्ण है)। पूर्ण (ब्रह्म) में विद्वानों का मत है कि महाभारत की कथाएं बृहद्देवता से से पूर्ण (जगत्) को निकाल लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता ली गयी हैं। कात्यायन ने अपने "सर्वानुक्रमणी' तथा सायणाचार्य है। प्रस्तुत उपनिषद् के दो पाठभेद हैं : एक काण्व और ने अपने “वेदभाष्य" में बृहद्देवता से ही कथायें उद्धृत की दूसरा माध्यंदिन। “अहं ब्रह्मास्मि" तथा "अयमात्मा ब्रह्म" ये हैं। इसमें मधुक, श्वेतकेतु, गालव, यास्क, गार्म्य आदि अनेक सुप्रसिद्ध महावाक्य इसी उपनिषद् के हैं। बृहदारण्यक (काण्वपाठ) आचार्यों के मत दिये गये हैं। अनेक देवताओं का उल्लेख का संपादन सन् 1886 में सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ। ऑफ्रेट करने के पश्चात् ये भिन्न-भिन्न देवता एक ही महादेवता के की बृहत्सूची में इस ग्रंथ के निम्नलिखित भाष्यों और भाष्यकारों विविध रूप हैं ऐसी बृहद्देवताकार की धारणा है। के नाम दिए गए हैं :
बृहद्देशी - ले.- मतंगमुनि। ई. 5 वीं शती। विषय - 1) 1) सिद्धान्त-दीपिका, 2) शांकर-भाष्य, 3) आनन्दतीर्थ देशी संगीत पर शास्त्रशुद्ध चर्चा । 2) विभिन्न रागों का विवेचन । की शांकरभाष्य पर टीका, 4) आनन्दतीर्थ का स्वतंत्र भाष्य, रागलक्षण-राग वह है जो उत्तम स्वर तथा वर्ण से अलंकृत 5) रघूत्तम की परब्रह्म-प्रकाशिका टीका, 6) व्यासतीर्थ का तथा मन का रंजन करनेवाला होता है" यह राग की सर्वमान्य भाष्य, 7) दीपिका, 8) गंगाधर (अथवा गंगाधरेन्द्र) की व्याख्या इसी ग्रंथ में प्रथम की गई है। राग के शुद्ध, छायालग दीपिका। 9) नित्यानन्द शर्मा की मिताक्षरा टीका। 10) तथा संकीर्ण तीन भेद बताये हैं। रागों के लक्षणों के साथ रंगरामानुज भाष्य। 11) सायणभाष्य। 12) राघवेन्द्र का नादोत्पत्ति, श्रुति, स्वर, मूर्छना, वर्ण, अलंकार, गीति, जाति,
220/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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