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परब्रह्मोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध यह नव्य उपनिषद् गद्य-पद्यमिश्रित है। इसमें पिप्पलाद अंगिरस् ने शौनक को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया है। पिप्पलाद कहते हैं- ब्रह्मविद्या, देवताओं तथा प्राणों से भी श्रेष्ठ है। प्रणवहंस ही ब्रह्म है। जीव भी प्रणवरूरूप ही है। ब्रह्मज्ञानप्राप्त संन्यासी का जीव-ब्रौक्य हुआ करता है। इस प्रकार के संन्यासी का शिखा-सूत्र ज्ञानमय होता है। बहिःसूत्र का त्याग करते हुए वह स्वान्तःसूत्र धारण करता है। परभूप्रकरणम् - ले- बाबदेव आठल्ये। विषय महाराष्ट्र की परभू (या प्रभु) जाति का आधारधर्म । (2) नीलकण्ठ सूरि । परभूप्रकरणम् - ले- गोविन्दराय। ई. 18 वीं शती। शिवाजी के पौत्र शाहूजी के राज्य काल में जब बालाजी बाजीराव पेशवा थे, गोविंदराय राजलेखक एवं शाह के प्रिय थे। इसमें बाबदेव आठले की निंदा कपटी कहाडा (कव्हाड विभाग में रहने वाला) ब्राह्मण इस शब्दों में की है। परमलघुमंजूषा - ले-नागेश भट्ट । व्याकरण विषयक महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रंथ। परमशिवगृहिणी-पूजनादिमार्ग - श्लोक- 2000। 16 विश्रामों में पूर्ण। परमशिवसहस्रनाम - उमायामल के अन्तर्गत हर-गौरी संवादरूप। परमसंहिता - पांचरात्र तत्त्वज्ञान विषयक साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता। इसके 31 अध्याय हैं और उनमें सृष्टि की उत्पत्ति, दीक्षाविधि, पूजा के प्रकार एवं योग का निरूपण है। इस संहिता के उद्धरण रामानुजाचार्य ने अपने श्रीभाष्य में लिये हैं। परमहंसचरितम् - ले- नवरंग। जैनाचार्य । परमहंसपचांगम् - रुद्रयामल के अन्तर्गत । इसमें परमहंसपटल (चैतन्यानन्द विरचित) परमहंस-पद्धति (रुद्रायामलान्तर्गत) परमहंससहस्रनाम (प्रजापति भैरव- संवादरूप) परमहंसस्तोत्र और परमहंसकवच वर्णित हैं। परमहंसकवच परमहंस के नामों का श्लोकात्मक संग्रह है जिससे शरीर के विभिन्न अवयवों की रक्षा तथा रोगनिवृत्ति की जाती है। परमहंसपद्धति - रुद्रयामलान्तर्गत शिव-पार्वती संवादरूप ग्रंथ । श्लोक- 192। विषय- परमहंस (परब्रह्म परमात्मा) की पूजाप्रक्रिया। आरंभ में उपासक के प्रातःकालीन कर्त्तव्यों का निर्देश किया गया है। परमहंस-परिव्राजक-धर्मसंग्रह - ले- विश्वेश्वर सरस्वती। यह यति धर्मसंग्रह है। आनन्दाश्रम प्रेस, पुणे में प्रकाशित। परमहंस-परिव्राजकोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध यह नव्य उपनिषद् गद्यात्मक है। इसके वक्ता-आदिनारायण और श्रोता हैं ब्रह्मदेव। संन्यास की पात्रता प्राप्त करने की विधि का
विवरण इस उपनिषद् में है। तीनों ही आश्रमों के कर्त्तव्यों को पूरा करने के पश्चात् ही संन्यासाश्रम का स्वीकार करना चाहिये अथवा वैराग्य उत्पन्न होने की स्थिति में- 'यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्' अर्थात् जिस दिन वैराग्य उत्पन्न हो उसी दिन संन्यास लिया जाये, ऐसा बताया गया है। फिर ब्रह्म व
ओंकार का अभेद से वर्णन किया गया है। परमहंससंध्योपासनम् - ले- शंकराचार्य। परमहंसोपनिषद् - शुक्ल यजुर्वेद से संबद्ध यह नव्य उपनिषद, पूर्णतः गद्यात्मक है। यह संन्यासपरक उपनिषद् श्रीकृष्ण ने नारद को कथन किया है इसमें परमहंस का जीवनक्रम बताया गया है। परमहंस की स्थिति को प्राप्त करने वाला संन्यासी सभी व्यावहारिक बातों से विरक्त होता है। उसकी सभी इंद्रियों की गति निश्चल होती है, और वे इंद्रियां उसकी आत्मा में ही स्थिरता प्राप्त करती हैं। उसे, "ब्रह्मैवाहमस्मि' अर्थात् मैं ब्रह्म ही हूं" की भावना का अनुभव होता रहता है। उसे दंड धारण करने की भी आवश्यकता नहीं रहती। परमागम-चूडामणि - (नामान्तर परमागमचूडामणिसंहिता) नारद पंचरात्र के अंतर्गत पटल 95। नारद पंचरात्र में निम्न लिखित संहिताएं अंतर्भूत हैं लक्ष्मीसंहिता, ज्ञानामृतसारसंहिता, परमागमचूडामणिसंहिता, पौष्करसंहिता, प्राप्तसंहिता, बृहद्ब्रह्मसंहिता। इनके अतिरिक्त सात्वतसंहिता तथा परमसंहिता का भी उल्लेख है। परमात्मराजस्तोत्रम् - ले- सकलकीर्ति। जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता-कर्णसिंह। माता शोभा। परमात्मसहस्रनामावली - ले- बेल्लमकोण्ड रामराय ।
आंध्रनिवासी संत। परमात्मस्तव - ख्रिस्तधर्मीय अंग्रेजी स्तोत्रों का पद्यात्मक संस्कृत अनुवाद । मिशन मुद्रण, अलाहाबाद द्वारा प्रकाशित । ई. 1853 । परमानन्दतन्त्रम् - देवी-भैरव संवादरूप ग्रंथ। 25 उल्लासों में पूर्ण । विषय तंत्रों का अवतरण, तंत्रभेदों का निर्णय, श्रीविद्या का स्वरूपनिर्देश और बाला का मंत्रोद्धार।। परमानन्दतंत्र-टीका - (अपरनाम- सौभाग्यानन्दसंदेह) लेखकमहेश्वरानन्दनाथ। श्लोक- 12001 परमार्थदर्शनम् - ले- म.म. रामावतार शर्मा । काशी में प्रकाशित । परमार्थसंग्रह - (नामान्तर परमार्थसारसंग्रह) लेअभिनवगुप्ताचार्य। शलोक- 104। परमार्थसप्तति - ले- वसुबन्धु । विन्ध्यवासीकृत सांख्यसप्तति का खण्डन कर अपने गुरु बुद्धमित्र के पराजय का बदला लेखक ने इस ग्रंथ द्वारा चुकाया है। परमार्थसार - (नामांतर- आधारकारिका) ले- अभिनवगुप्त । इस पर अभिनवगुप्त तथा वितस्तापुरी निर्मित दो टीकाएं है। वितस्तापुरी निर्मित टीका का नाम 'पूर्णाद्वयमयी" है। विषय
184/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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