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पर्वत की कन्या गिरिका। वसुमती-चित्रसेनीयम् (नाटक) - ले.- अप्पयदीक्षित (तृतीय)। ई. 17 वीं शती। कथावस्तु उत्पाद्य। वैदर्भी रीति । सूक्तियों तथा अन्योक्तियों का बहुल प्रयोग। केरल विश्वविद्यालय से संस्कृत सीरीज 217 में प्रकाशित । कथासार- कलिंगराज शान्तिमान् अपनी कन्या वसुमती के कल्याणार्थ प्रयाग में तप करता रहता है, तथी निषादराज उसकी राजधानी पर आक्रमण कर अन्तःपुर के सदस्यों को बन्दी बना लेता है। महाराज चित्रसेन निषादराज के साथ युद्ध कर उसे परास्त करते हैं, तभी वसुमती उनके दृष्टिपथ में आ जाती है। दोनों गान्धर्व विवाह कर लेते हैं। चित्रसेन की महारानी पद्मावती उनके मिलन में बाधाएं उत्पन्न करती है, परन्तु सखी चतुरिका की सहायता से दोनों का मिलन होता है। इतने में समाचार मिलता है कि राजपुत्र ने युद्ध में दानवों पर विजय पायी। इस शुभ समाचार से प्रसन्न होकर महारानी स्वयं ही राजा का विवाह वसुमती के साथ करा देने का निश्चय करती है। वसुमतीपरिणयम् (नाटक) - ले.- जगन्नाथ । तंजौर निवासी। ई. 18 वीं शती। प्रथम अभिनय पुणे के बालाजी बाजीराव पेशवा की उपस्थिति में हुआ। अंकसंख्या- पांच। राजाओं के हेय तथा उपादेय गुणों के वर्णन से उन्हें सत्पथ पर लाने हेतु रचित। लेखक द्वारा “अखिलगुणशृङ्गाटक" विशेषण प्रदत्त । महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक चर्चाएं। प्रधान रस शृङ्गार, हास्य रस से संवलित। बालाजी बाजीराव को नायक “गुणभूषण' बनाकर लिखा नाटक। राजनीति तथा अर्थशास्त्र की योजना। यवनों से राष्ट्र को बचाने हेतु हिन्दु राजाओं में एकता होने के उद्देश्य से नाटक लिखा गया है। वसुलक्ष्मीकल्याणम् (नाटक) - ले.- सदाशिव दीक्षित। ई. अठारहवीं शती। अंकसंख्या- पांच। प्रथम अभिनय पद्मनाभदेव के वसन्तमहोत्सव में। नायक बालराम ऐतिहासिक परन्तु कथावस्तु कल्पित है। कथासार- पिता के द्वारा कई राजाओं के चित्र देखने के पश्चात् नायिका वसुलक्ष्मी बालवर्मा को चुनती है। परन्तु महारानी उसका विवाह सिंहल के राजकुमार के साथ कराना चाहती है, तथा बहाना गढकर उसे सिंहल भेजती है। योगिनी बोधिका बालवर्मा को वसुलक्ष्मी के प्रति आकृष्ट करती है। उधर उसकी महारानी वसुमती के पास नौका से प्राप्त एक सुन्दरी पहुंचायी जाती है। वही वस्तुतः वसुलक्ष्मी है। वसुमती उसका विवाह पाण्ड्य नरेश से कराना चाहती है परन्तु उसके वेश में उपस्थित बालराम ही उसका पाणिग्रहण करता है। वसुलक्ष्मीकल्याण (नाटक) - ले.- वेंकटसुब्रह्मण्याध्वरी । सन्1785 ई. में लिखित । त्रिवेंद्रम संस्कृत सीरीज में प्रकाशित । प्रधान रस शृंगार। आलिंगनादि के दृश्य। पात्र ऐतिहासिक, परंतु घटनाएं कल्पित। पद्यों का प्राचुर्य। अंक-संख्या पांच।
कथासार- सिन्धुराज वसुनिधि की पुत्री वसुलक्ष्मी त्रावणकोर के राजा बालराम वर्मा पर अनुरक्त है। पिता उसे बालराम को देना चाहते हैं किन्तु माता सिंहलराज को। माता उसे सिंहलदेश भेजती है, किन्तु केरल में समुद्रतट पर उसे रोककर बुद्धिसागर मंत्री त्रावणकोर भेजता है। बालराम वर्मा की रानी वसुमती उसका विवाह चेरदेश नरेश वसुवर्मा के साथ कराना चाहती है। वसुवर्मा के वेश में नायक बालराम वर्मा उसका पाणिग्रहण करते हैं। वाक्यतत्त्वम् - ले.- सिद्धान्तपंचानन । विषय- धार्मिक कृत्यों के लिए उपयुक्त काल । यह ग्रंथ द्वैततत्त्व का एक भाग है। वाक्यपदीयम् - ले.- भर्तृहरि । यह व्याकरण शास्त्र का एक अत्यंत प्रौढ एवं दर्शनात्मक ग्रंथ है। इसमें 3 कांड हैं- 1) आगम (या ब्रह्म) कांड, 2) वाक्यकांड व (3) पदकांड। आगम कांड में अखंडवाक्य-स्वरूप स्फोट का विवेचन है। संप्रति प्रस्तुत ग्रंथ का यह प्रथम कांड ही उपलब्ध है। इस ग्रंथ पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई हैं। स्वयं भर्तृहरि ने भी इसकी स्वोपज्ञ टीका लिखी है। इसके अन्य टीकाकारों में वृषभदेव व धनपाल की टीकाएं अनुपलब्ध हैं। पुण्यराज (ई. 11 वीं शती) ने द्वितीय कांड पर स्फुटार्थक टीका लिखी है। हेलाराज (ई. 11 वीं शती) ने इसके तीनों कांडों पर विस्तृत व्याख्या लिखी थी, किन्तु इस समय केवल उसका तृतीय कांड ही उपलब्ध है। इनकी व्याख्या का नाम है "प्रकीर्ण-प्रकाश"। "वाक्यपदीय" में भाषा शास्त्र व व्याकरण-दर्शन से संबद्ध कतिपय मौलिक प्रश्न उठाये गये हैं,
और उनका समाधान भी प्रस्तुत किया गया है। इनमें वाक् वाणी) का स्वरूप निर्धारित कर व्याकरण की महनीयता सिद्ध की गई है। इसकी रचना श्लोकबद्ध है तथा कुल श्लोक 1964 है। प्रथम कांड में 156, द्वितीय में 493 व तृतीय में 1325 श्लोक हैं।
वाक्यपदीय का प्रकरणशः संक्षिप्त परिचय :(1) ब्रह्मकांड - इसमें शब्द-ब्रह्म-विषयक सिद्धांत का विवेचन है। भर्तृहरि शब्द को ब्रह्म मानते हैं। उनके मतानुसार शब्दतत्त्व अनादि और अनंत है। उन्होंने भाषा को ही व्याकरण प्रतिपाद्य स्वीकार किया है और बताया है कि प्रकृति प्रत्यय के संयोग-विभाग पर ही भाषा का यह रूप आश्रित है। पश्यंती, मध्यमा एवं वैखरी को वाणी के 3 चरण मानते हुए इन्हीं के रूप में व्याकरण का क्षेत्र स्वीकार किया गया है। (2) वाक्यकांड - इसमें भाषा की इकाई वाक्य को मानते हुए उस पर विचार किया गया है। भर्तृहरि कहते हैं कि "नादों द्वारा अभिव्यज्यमान आंतरिक शब्द ही बाह्य रूप से श्रूयमाण शब्द कहलाता है"। अतः उनके अनुसार संपूर्ण वाक्य ही शब्द है (2/30, 2/2) वे शब्द-शक्तियों की बहमान्य धारणाओं को स्वीकार नहीं करते और किसी भी अर्थ
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 323
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