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हे रचना काल 1624 ई.
घटतन्त्रम् - वारम्भणि ऋषि कृत ।
घनवृत्तम् ले कोरड रामचन्द्र । मद्रास में प्रकाशित । घृतकुल्यावली ( प्रहसन ) ले- हरिजीवन मिश्र | ई. 17 वीं शती ।
(अपरनाम युधिष्ठिरानृशंस्यम्) अंकसंख्या चार ।
घोषयात्रा (डिम) ले- लक्ष्मण सूरि । (जन्म 1859) विषय घोषयात्रा की महाभारतीय कथावस्तु । चक्रदत्त (चिकित्सासंग्रह) आयुर्वेद शास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ । ले चक्रपाणि दत्त । समय ई. 11 वीं शताब्दी । पितानारायण, जो गौडाधिपति नयपाल की पाकशाला के अधिकारी थे चक्रपाणि सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी थे। 'चक्रदत्त' ग्रंथ को प्रणेता ने 'चिकित्सासंग्रह' कहा है, किन्तु वह चक्रदत्त के ही नाम से विख्यात है। इस ग्रंथ की रचना वृंद - कृत 'सिद्धयोग' के आधार पर हुई है। इसमें वृंद की अपेक्षा योगों की संख्या अधिक प्राप्त होती है। भस्मों व धातुओं का प्रयोग भी इसमें अधिक है। इस ग्रंथ पर निश्चल ने 'रत्नप्रभा' तथा शिवदास सेन ने 'तत्त्व-चंद्रिका' नामक टीकाएं लिखी हैं। इसकी हिन्दी टीका जगदीश्वरप्रसाद त्रिपाठी ने लिखी है।
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चक्रदीपिका ले- रामभद्र सार्वभौम विषय तंत्रशास्त्रोक्त षट्चक्रों का विवरण । चक्रनिरूपणम् रुद्रयामलान्तर्गत उमा-महेश्वर संवादरूप । विषय- महाकुलाचार-क्रम से 5 चक्र, उनके आचार तथा विधि, श्रीतन्त्र में निर्दिष्ट राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, और पशुचक्र का विधियुक्त पूजन चारों वर्णों की सुरूपा और मनोहर कुमारियों की पूजा आवश्यक, उनके अभाव में किसी भी कुमारी की पूजा की जा सकती है यखनी, योगिनी, रजकी, श्वपची, मल्लाह की लडकी- ये पाच शक्तियां कही गयी है। मन्तराज की पूजा में तुलसीदल, बिल्वदल, भात्रीदल का उपयोग करने से अति शीघ्र सिद्धि की प्राप्ति कही गई है। चक्रनिरूपण ( नामान्तरषट्चक्रक्रम तथा षट्चक्रप्रभेद) लेपूर्णानन्द | विषय तन्त्रों के अनुसार षटचक्रों के भेदक्रम से उद्भूत परमानन्द । इस पर राम-वल्लभ कृत संजीवनी तथा रामनाथ सिद्धान्त रचित "दीपिका" नामक दो टीकाए हैं। चक्रपाणिकाव्यम् ले लक्ष्मीधर ।
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चक्रपाणि विजयम् ले- लक्ष्मीधर । ई. 11 वीं शती । उषा-अनिरुद्ध की सुप्रसिद्ध प्रणयकथा पर आधारित महाकाव्य । चक्रवर्तिचत्वारिंशत् - कवि आर. व्ही. कृष्णम्माचार्य । विषयपंचम जार्ज के राज्याभिषेक का काव्यमय वर्णन । चक्रसंकेत चन्द्रिका ले- काशीनाथ पिता जयराम भट्ट | इसमें वामकेश्वरतन्त्र के अंतर्गत योगिनीतंत्र के कतिपय पद्यों पर काशीनाथकृत संक्षिप्त टीका है। यह टीका अमृतानन्द नाथ
102 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
की टीका से मिलती है ।
चक्रोद्धारसारले विनायक। पिता जयदेव । श्लोक- 2000। चंचला - ले- हरिदास सिद्धान्तवागीश । ई. 19-20 वीं शती । यह कालिदासकृत मेघदूत की व्याख्या है। चट्टल-विलाप ले- रजनीकांत साहित्यचार्य । यह पद्मबन्ध में निवद्ध चित्र
है।
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चण्डकौशिक (नाटक) ले- क्षेमीश्वर । कन्नोजनिवासी । ई. 10 वीं शती । संक्षिप्त कथा- इस नाटक के प्रथम अंक में राजा हरिश्चंद्र के गुरु वसिष्ठ राजा के उपर अनिष्ट के आगमन की आशंका से राजा से रात्रि में गुप्त रूप से स्वस्ति अयन विधि करवाता है। दूसरे दिन राजा के रात्रि में न आने से रानी शैव्या चिंता करती है किन्तु राजा से न आने का कारण जान कर प्रसन्न होती है। तभी राजा वनरक्षक से एक बड़े शूकर के उत्पात की सूचना प्राप्त कर शूकर को मारने के लिये वन में जाता है। द्वितीय अंक में शूकर का पीछा करते हुए विश्वामित्र के आश्रम के पास पहुंचता है। उस समय विश्वामित्र विद्यात्रयी की साधना में लगे रहते हैं। शूकर आश्रम के पास जाकर गुप्त हो जाता है। तब स्त्रियों के रुदन को सुन राजा आश्रमस्थ व्यक्ति के प्रति दुर्वाक्य बोलता है और विश्वामित्र का कोपभाजन बनता है। विश्वामित्र के कहने पर अपना सर्वस्वदान कर दक्षिणा के रूप में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का प्रबंध करने काशी में जाता है। तृतीय अंक में राजा अपनी पत्नी शैव्या को उपाध्याय और स्वयं को चाण्डाल के हाथ बेच कर स्वर्ण मुद्राएं विश्वामित्र को देता है। चतुर्थ अंक में राजाके श्मशान जाने का वर्णन है। पंचम अंक में शैव्या मृतपुत्र का दाह संस्कार करने श्मशान में आती है। दाह शुल्क के रूप में वह पुत्र का वस्त्र फाड कर देती है। तभी चाण्डाल वेषी धर्म प्रकट होकर रोहिताश्व को पुनर्जीवित कर उसका राज्याभिषेक करते हैं। इस नाटक में कुल 11 अर्थोपक्षेपक है। इनमें विष्कम्भक और 9 चूलिकाएँ है। चण्डताण्डवम् (रूपक) ले- जीवन्यायतीर्थ । जन्म- ई. 1894 संस्कृत साहित्य परिषत् पत्रिका तथा आचार्य पंचायत स्मृति ग्रंथमाला में प्रकाशित। अंकसंख्या दो । द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं का परिहासपूर्ण परिचय । धर्म, लोभ, क्रोध, पाप आदि प्रतीक भूमिकाएं इसमें हैं। कथासार- स्टालिन धर्मध्वंस की घोषणा करता है। धर्म-पुरुष रूस छोड भारत की और भागता है । हिटलर तथा मुसोलिनी विश्व जीतने की चर्चा में है। आंग्ल सचिव प्रतिज्ञा करता है कि संसार में जर्मनों का नाम नहीं रहने देंगे। रूस और इंग्लैंड ने सन्धि कर ली। जापान ने हिटलर से मित्रता कर ली। अमरिका इंग्लैंड का पक्षपाती बना ।
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लोभ और क्रोध का पिता पाप, अपने पुत्रों को लेकर विश्वविजय हेतु निकलता है। देवमंदिर के समक्ष क्रोध, लोभ,