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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HTHHTHH मुखर और जगवंचक को साथ लेकर नायिका वसन्तलतिका ध्रुवावतारम् (रूपक) - ले.- स्कंद शंकर खोत। नायक से मिलने चले। गुरु के आगमन की सूचना देने जगवंचक सुधीर नामक छात्र जिसे ध्रुव का नूतन अवतार बताया गया जाता है तो वही उसके प्रणय में समासक्त हो जाता है। गुरु है। नागपुर से प्रकाशित । के वहां पहुंचने पर शिष्य भाग कर पलिस को ले आता है। ध्वन्यालोक (अपरनाम-1) सहदयालोक 2) काव्यालोक) पलिस. नायक मढेश्वर को वेश्या के साथ प्रणयक्रीडा करते .ले. आनंदवर्धन। भारतीय काव्यशास्त्र का यह एक युगप्रवर्तक हुए रंगे हाथों पकड़ कर, दोनो को राजा के समक्ष ले जाता ग्रंथ है। इसमें ध्वनि को सार्वभौम सिद्धान्त का रूप देकर है। राजा वसन्तलतिका को देखते ही सुध खो बैठता है। उसका सांगोपांग विवेचन 4 उद्यातों में विभक्त है। इसके 3 मुढेश्वर अपनी सिद्धियों का वर्णन बढा चढा कर करता है। भाग हैं- कारिका, वृत्ति व उदाहरण। प्रथम उद्योत में ध्वनि और राजा को मूर्ख बनाकर वसन्तलतिका को हथिया लेता है। संबंधी प्राचीन आचार्यों के मतों का निर्देश करते हुए ध्वनि धूर्ताख्यानम् - ले. हरिभद्रसूरि। जैनाचार्य। ई. 8 वीं शती।। विरोधी संभाव्य आपत्तियों का निराकरण किया गया है। इसी हास्य और व्यंगपूर्ण रचना। विषय- अतिरंजित पौराणिक कथाओं उद्योत में ध्वनि का स्वरूप बतलाकर, उसे काव्य का एकमात्र को निरर्थक सिद्ध करना। इसी प्रकार का धर्मपरीक्षा नामक प्राणतत्त्व स्वीकार किया गया है और बतलाया गया है कि ग्रंथ अमितगति ने लिखा है। प्रस्तुत संस्कृत ग्रंथ हरिभद्र के काव्यशास्त्रीय अलंकार, रीति, वृत्ति गुण आदि किसी भी संप्रदाय मूल प्राकृत ग्रंथ का रूपांतर है। में ध्वनि का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। प्रत्युत उपर्युक्त ध्यानबिंदूपनिषद् - कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित 150 श्लोकों सभी सिद्धान्त ध्वनि में ही अन्तर्भूत किये जा सकते हैं। द्वितीय उद्योग में ध्वनि के भेदों का वर्णन व इसीके एक का एक नव्य उपनिषद् । इसमें ध्यान योग का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि ध्यान द्वारा ब्रह्मसमाधि सिद्ध होने पर प्रकार असंलक्ष्यक्रमव्यंग के अंतर्गत रस का निरूपण है। पूर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। इस उपनिषद् में ओंकार रसवदलंकार व रस-ध्वनि का पार्थक्य प्रदर्शित करते हुए गुण के ध्यान की विस्तृत जानकारी दी गई है। तत्पश्चात् ब्रह्मा, व अलंकार का स्वरूपभेद विशद किया गया है। तृतीय उद्योत विष्णु, रुद्र, महेश्वर एवं अच्युत इन पांच मूर्तियों का वर्णन इस ग्रंथ का सबसे बडा अंश है जिसमें ध्वनि के भेद व है। फिर षडंग योग के निदेश के साथ ही सिद्ध, भद्र, सिंह प्रसंगानुसार रीतियों व वृत्तियों का विवेचन है। इसी उद्योत में और पद्म इन प्रमुख योगासनों का वर्णन किया गया है। भट्ट एवं प्रभाकर प्रभृति तार्किकों व वेदांतियों के मतों में पश्चात् योगचक्रों एवं नाडीचक्रों का वर्णन करते हुए, अजपा ध्वनि की स्थिति दिखलाई गई है और गुणीभूतव्यंग व चित्रकाव्य हंसविद्या कथन की गई है। इसके बाद के भाग में योगी का वर्णन किया गया है। चतुर्थ उद्योत में ध्वनि सिद्धान्त की के आचार-विचारों, विविध योगबंधों व योगमुद्राओं का वर्णन व्यापकता व उसका महत्त्व वर्णित कर, प्रतिभा के आनंत्य का करते हुए तदनुसार प्राणों का कार्य, ‘अग्नि का 'र' पृथ्वी का वर्णन है। इस पर एकमात्र टीका (अभिनव गुप्त कृत'ल' 'जीव' का 'व' और आकाश का 'ह' बीजाक्षर बताए "लोचन") प्राप्त होती है। अभिनव गुप्त ने अपने इस टीकाग्रंथ में चंद्रिका नामक टीका का भी उल्लेख किया है गए हैं। प्राण व अपान का अवरोध कर प्रणव का उच्चार करने पर जो नाद होता है, वह अमूर्त, वीणादंडसमुत्थित तथा किंतु यह टीका प्राप्त नहीं होती। "ध्वन्यालोक' की रचना शंखनादयुक्त होता है। ध्यान से कपालकुहर के मध्य भाग में कारिका व वृत्ति में हुई है। कई विद्वानों का मत है कि चतुर्दारों में सूर्य के समान चमकने वाले आत्मस्वरूप का दर्शन कारिकाएं ध्वनिकार की रची हुई हैं जो आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती होता है और वहां मन का लय होकर माहेश्वरपदरूपी बिंदु थे और आनंदवर्धन ने उन पर अपनी वृत्ति लिखी है किन्तु परंपरागत मत दोनों की अभिन्नता मानता है। अभिनवगुप्त, का साक्षात्कार हुआ करता है। कुंतक, महिमभट्ट व क्षेमेंद्र के अतिरिक्त स्वयं आनंदवर्धन ने ध्यानशतकम् - ले- शेष। भी अपने को "ध्वनिसिद्धान्त का प्रतिष्ठापक" कहा है और ध्रुव (रूपक) - ले. श्रीनिवासाचार्य। ई. 19 वीं शती। "ध्वन्यालोक" के अंतिम श्लोक से भी इस तथ्य की पुष्टि ध्रुवतापसम् (रूपक) - ले.- पद्मनाभाचार्य । ई. 19 वीं शती। होती है। संप्रति "ध्वन्यालोक" व "लोचन" के कई हिंदी ध्रुवचरितम् - ले.- म.म.गणपति शास्त्री, वेदान्तकेसरी। 2) अनुवाद व भाष्य प्राप्त होते हैं। डा. कृष्णमूर्ति ने अंग्रेजी में ले. जयकान्त। और डा.जैकोबी ने इसका जर्मन में अनुवाद किया है। इसमें कुल 117 कारिकाएं (19+33+48+17 = 117) हैं। ध्रुवाभ्युदयम् (नाटक)- ले. म.म. शंकरलाल। रचनाकाल1886 ई. यशवन्तसिंह स्टीम मुद्रयन्त्रालय, लोबडीपुर, जामनगर नकुलीवागीश्वरीप्रयोग - श्लोक 95। से सन 1911 में प्रकाशित । अंकसंख्या- सात। ध्रुव की कथा नक्षत्रकल्प - एक शांतिग्रंथ । इस ग्रंथ में नक्षत्रपूजा, नैऋत्यकर्म का छायातत्त्व-प्रधान प्रदर्शन । व अमृतशांति से अभयशांति के तीस भेद और निमित्त दिये गए हैं। 150/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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