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कलाविलास -ले.क्षेमेन्द्र। ई. 11 वीं शती। पिता प्रकाशेन्द्र। उपहास प्रधान व्यंगात्मक काव्य। कलिकाकोलाहलम् (नाटक) - ले.- व्ही. रामानाचार्य । कलिदूषणम् -कवि. घनश्याम। तंजावरम् के नृपति तुकोजी का मंत्री। (ई. 18 वीं शती) संस्कृत और प्राकृत भाषा का "श्लेष" इस काव्य की विशेषता है। कलिपलायनम् (नाटक)- ले.- विद्याधर शास्त्री। ई. 20 वीं शती। कलि और राजा परीक्षित् की भागवतोक्त कथावस्तु पर आधारित। अंक संख्या चार। कलिप्रादुर्भाव (नाटक) - ले.य. महालिंग शास्त्री। मद्रासनिवासी। रचना सन 1939 में। प्रकाशन सन 1956 में। अंकसंख्या सात। लम्बी एकोक्तियां और कलि एवं द्वापर के छायात्मक पात्र इसकी विशेषता है। कथासार- द्वापर युग के अन्तिम दिन कात्यायन मिश्र अपना खेत वैश्य को बेचता है। उसमे गडा मुद्राकलश मिलने पर वैश्य उसे मिश्र को वापस करने आता है परंतु खेत का सभी माल खरीददार का है यह सोच कर मिश्रजी वह स्वीकार नहीं करते। बात पंचों तक आती है। इस बीच द्वापर युग' बीत कर कलियुग शुरु होता है और दोनों की मति भ्रष्ट होती। अन्त में आपसी कलह के कारण वह धन राजकोश में जमा होता है। कलिविडम्बनम् (खण्डकाव्य) - ले. नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। कलिविधूननम् ( नाटक) - ले. नारायण शास्त्री (ई. 1860-1911) कुम्भकोणम् से देवनागरी लिपी में 1891 में प्रकाशित । कुम्भेश्वर के मखोत्सव में प्रथम अभिनीत । अंकसंख्या दस। यह प्रस्तुत लेखक की 37 वीं रचना है।।
नल-दमयन्ती स्वयंवर से लेकर, उनके द्यूत, वनवास व फिर से राजा बनने तक की कथा निबद्ध है। सशक्त चरित्र चित्रण, अनुप्रासों का रुचिर प्रयोग और छायातत्त्व का सरस प्रयोग नाटक में दिखाई देता है। प्रतिनायक कलि की विष्कम्भक में भूमिका, नल का सर्प के पेट में जाना और वहां से कुरूप बन निकलना, चार लोकपालों का नल के रूप में स्वयंवर में उपस्थित होना आदि दृश्य इस नाटक की विशेषताएं हैं। कलिविलासमतिदर्पण - ले. पारथीयूर कृष्ण । ई. 19 वीं शती। कल्पद्रुमकलिका - ले. लक्ष्मीवल्लभ। श्लोक 5500। कल्पना-कल्पकम् (नाटक) - ले. शेषगिरि । कर्नाटकवासी।। (ई. 18 वीं शती) श्रीरंगपत्तन के चैत्र यात्रा उत्सव में अभिनीत । कल्पनामण्डतिका (कल्पनालंकृतिका) - ले. कुमारलात । संपूर्ण नाम है "कल्पनामण्डतिका-दृष्टान्तपंक्ति"। इसमें बौद्ध उपदेश परक 80 आख्यान तथा 10 दृष्टान्त गद्य-पद्य में हैं। कुछ विद्वान इस रचना को अश्वघोष की "सूत्रालंकार" से अभिन्न मानते हैं। इस ग्रंथ के अंश का अत्यन्त श्रमसाध्य
संपादन डा. लूडर्स द्वारा सम्पन्न हुआ। कल्पलता • ले. शंकर मिश्र। ई. 15 वीं शती। कल्पलता - 1. रचयिता सोमदैवज्ञ। पंचागों में दिया जाने वाला संवत्सरफल इसी ग्रंथ से उद्धृत किया जाता है।
2. ले. रामदेव। कल्पवल्लिका - ले. पंडित नृसिंह शास्त्री। काकीनाडानिवासी। रामायण की घटनाओं पर आधारित काव्य । कल्पसूत्रम् - इस नाम से तीन तांत्रिक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। (1) महामहोपाध्याय परशुराम विरचित। इसमें तान्त्रिक दीक्षा तीन प्रकार की बतलायी गयी है। शाक्तिकी, शांभवी और मान्त्री । शाक्ति का शिष्य में प्रवेश करने से दीक्षा शाक्तिकी कहलाती है। चरणविन्यास से शांभवी और मन्त्रोपदेश से मान्त्री। उपदेष्टा ये तीनों दीक्षाएं या उनमें से कोई एक दे सकता है। इसमें वर्णित विषय हैं - यागविधि, होमविधी, सब मंत्रों की सामान्य पद्धति, त्रिंशद्वर्णा गायत्री, स्वस्तिदा गायत्री, ऐंद्री गायत्री, दूरदृष्टि सिद्धिप्रदायक चक्षुष्मती विद्या, महाव्याधिनाशिनी विद्या आदि । इनमें 10 कांड हैं। (2) श्लोक 5501 10 खण्डों में पूर्ण इस ग्रंथ में मुख्यतया श्रीविद्या का प्रतिपादन सूत्ररूप में किया है। (3) इसमें शक्ति के उपासकों की दीक्षा, अन्यान्य तान्त्रिक विधियां और विविध उत्सवों का वर्णन है। इसके दस खण्ड हैं और आठ खण्ड परिशिष्ट रूप में हैं। जो कोई 18 खण्डों वाले इस महोपनिषत् का (त्रैपुरसिद्धान्तसर्वस्व भी कहलाता है), अनुशीलन करता है वह सब यज्ञों का यष्टा होता है। जिस जिस क्रतु (यज्ञ) का पाठ करता है उससे उसकी इष्टसिद्धि होती है। कल्पसूत्र की टीकाएं -
1. सूत्रतत्त्वविमर्शिनी - लक्ष्मण रानडे कृत। रचनाकाल ई. 1888 1 2. कल्पसूत्रवृत्ति - रामेश्वरकृत । रचनाकाल ई. 1825 । टीकाकार ने भास्कर राय को अपना परम गुरु कहा है। कल्याणकल्पद्रुम - ले.- राधाकृष्णजी। विषय- संगीतशास्त्र । कल्याणकारकम् - 1. ले.- उग्रादित्य। जैनाचार्य। ई. 9 वीं श.। इसमें 25 परिच्छेद हैं।
2. ले.- देवनंदी। ई. 5-6 वीं शती। कल्याणचम्यू - ले. पापय्याराध्य । कल्याणमंदिरपूजा - ले. देवेन्द्रकीर्ति । कारंजा के बलात्कारगण के आचार्य। कल्याणमन्दिरस्तोत्र - 1. ले.- कुमुदचंद्र या सिद्धसेन । जैनाचार्य। माता - देवश्री। इनके समय के विषय में दो मत हैं। 1. ई.प्रथम शती। 2. ई. 4-5 वीं शती। विषय- 44 पद्यों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति। 2. ले.- हर्षकीर्ति। ई. 17 वीं शती। कल्याणपुरंजनम् ( नाटक) - ले.- तिरुमलाचार्य। ई. 17
52 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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