________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
का मोहक वर्णन। सर्ग 10 में अप्सराओं की असफलता व प्रपाण। सर्ग 11 में अर्जुन की सफलता देखकर इन्द्र मुनि का वेश धारण कर आते हैं और उनकी तपस्या की प्रशंसा करते हैं। वे अर्जुन से तपस्या का कारण पूछते हैं और शिव की आराधना का आदेश देकर अंतर्धान हो जाते हैं। सर्ग 12 में अर्जुन प्रसन्नचित्त होकर शिव की आराधना में लीन हो जाते हैं। तपस्वी लोग उनकी साधना से व्याकुल होकर, शिवजी के पास जाकर उनके बारे में बतलाते हैं। शिव उन्हें विष्णु का अंशावतार बतलाते हैं। अर्जुन को देवताओं का कार्य साधक जानकर, मूक नामक दानव शूकर का रूप धारण कर उन्हें मारने के लिये आता है। पर किरात वेशधारी शिव व उनके गण उनकी रक्षा करते है। सर्ग 13 में एक वराह अर्जुन के पास आता है। उसे लक्ष्य कर शिव व अर्जुन दोनों बाण मारते हैं। शिव का किरात-वेशधारी अनुचर आकर कहता है कि शूकर उसके बाण से मरा है, अर्जुन के बाण से नहीं। सर्ग 14-15 में अर्जुन व किरात वेशधारी शिवजी के घनघोर युद्ध का वर्णन। सर्ग 16-17 में शिव को देखकर अर्जुन के मन में तरह तरह का संदेह उठना व दोनों का मल्लयुद्ध। सर्ग 18 में अर्जुन के युद्ध कौशल्य से शिवजी प्रसन्न होते हैं व अपना वास्तविक रूप प्रकट कर देते हैं। अर्जुन उनकी प्रार्थना करते हैं तथा शिवजी अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान करते हैं। मनोरथ पूर्ण हो जाने पर अर्जुन अपने भाइयों के पास लौट जाते हैं।
प्रस्तुत "किरातार्जुनीयम्' महाकाव्य का प्रारंभ "श्री" शब्द से होता है, और प्रत्येक के अंत में "लक्ष्मी' शब्द प्रयुक्त है, अतः इसे लक्ष्मीपदांक कहते हैं। कवि ने एक अल्प कथावस्तु को इसमें महाकाव्य का रूप दिया है। प्रस्तुत महाकाव्य के नायक अर्जुन धीरोदात्त है, और प्रधान रस वीर है। अप्सराओं का विहार श्रृंगार रसमय है, जो अंग रूप में प्रस्तुत किया गया है। महाकाव्यों की परिभाषा के अनुसार इसमे संध्या, सूर्य, रजनी आदि का वर्णन है, और वस्तु-व्यंजना के रूप में क्रीडा, सुरत आदि का समावेश किया गया है। “किरातार्जुनीयम्" में कई स्थानों पर क्लिष्टता आने के कारण उसे ठीक समझने में विद्वानों की भी कष्ट होते हैं। टीकाकार पल्लिनाथ ने संभवतः इसी कारण भारवि कवि की वाणी को कठोर कवच परंतु मधुर स्वाद वाले नारियल (नारिकेल फल) की उपमा दी है। किरातार्जुनीयम् के टीकाकार- 1) मल्लिनाथ । 2) विद्यामाधव। 3) मंगल। 4) देवराजभट्ट। 5) रामचन्द्र। 6) क्षितिपाल मल्ल। 7) प्रकाशवर्ष । 8) कृष्णकवि । 9) चित्रभानु । 10) एकनाथ। 11) जिनराज। 12) हरिकान्त। 13) भरतसेन । 14) भगीरथ मिश्र। 15) पेद्दाभट्ट। 16) अल्लादि नरहरि । 17) हरिदास। 18) काशीनाथ। 19) धर्मविजयगणि। 20)
राजकुण्ड। 21) गदासिंह। 22) दामोदर मिश्र। 23) मनोहर शर्मा। 24) माधन। 25) लोकानन्द। 26) बंकीदास। 27) विजयराम (या विजयसुन्दर) 28) शब्दार्थदीपिका- ले. अज्ञात । 29) प्रसन्नसाहित्यचन्द्रिका ले. अज्ञात। 30) नृसिंह। 31) रविकीर्ति। 32) श्रीरंगदेव। 33) श्रीकण्ठ। 34) वल्लभदेव। 35) जीवानन्द विद्यासागर। 36) कनकलाल शर्मा 37) गंगाधर मिश्र। किरातार्जुनीय-व्यायोग- 1) ले. रामवर्मा। संक्षिप्त कथा
अस्त्रों की प्राप्ति हेतु शिव को प्रसन्न करने के लिए अर्जुन हिमालय पर तपस्या करता है। अप्सराएं उसमें विघ्न डालने का प्रयास करती हैं। किन्तु इसमें वे असफल ही रहती हैं। किरात-वेशधारी शिव और अर्जुन का एक वराह पर एक ही साथ बाण लगता है। वे दोनों उसे अपना शिकार मानते हैं। इस बात पर से उन दोनों में युद्ध होता है। शिव दुर्योधन का रूप धारण कर अर्जुन के क्रोध को उद्दीप्त करते है। अन्त में शिव अपने स्वरूप को प्रकट कर अर्जुन को पाशुपत अस्त्र देते हैं।
2) ले. ताम्पूरन्। केरलवासी। ई- 19 वीं शती। कीचकवधम् - ले. नितीन वर्मा। ई. 20 वीं शती। सर्ग संख्या पांच। चित्रकाव्य। सन 1928 में डाका से एस.के.डे. द्वारा प्रकाशित । सर्वानन्द तथा जनार्दन द्वारा लिखित टीकाएं प्राप्य । कीदृशं संस्कृतम् (निबंध) - ले. आचार्य श्यामकुमार। 5 अध्याय। विषय- संस्कृत की सद्यःस्थिति का वर्णन। कीरदूतम् - ले. रामगोपाल । ई. 18 वीं शती । बंगाल के निवासी। कीरसन्देश - ले. श्री.ग. लक्ष्मीकान्त अय्या। प्राध्यापक, निजाम कॉलेज़, हैद्राबाद। कीर्तिकौमुदी - ले. सोमेश्वर दत्ता। ई. 13 वीं शती । कुंकुमविकास - ले. शिवभट्ट। पदमंजरी पर टीका । कुंडभास्कर - ले. शंकर भट्ट। ई. 17 वीं शती। विषयधर्मशास्त्र। कुण्डलिनीहोम-प्रकरणम् - इसमें शक्ति देवी की पूजा में
आध्यात्मिक होम का प्रतिपादन किया गया है। होम-क्रम यों लिखा है- प्रकृति, अहंकार, बुद्धि, मन, श्रोत्रादि ज्ञानेंद्रिय, हस्तादि कर्मेन्द्रिय, शब्दादि गुण, आकाशादि महाभूत, उनसे युक्त आत्मतत्त्व से आणव मल स्थूल देह को शोधित कर, अखण्ड एकरस आनन्ददायक कुलरूपी वर सुधात्मा में हवन कर, . फिर धर्म और अधर्मरूपी हवि से दीप्त आत्मा रूपी
अग्नि में मनरूपी स्खुवा से इन्द्रिय वृत्तियों का हवन करें इत्यादि। कुंडार्क - ले. शंकरभट्ट । ई. 17 वीं शती । विषय- धर्मशास्त्र । कुंडिकोपनिषद - सामवेदीय उपनिषद् । कुल 28 श्लोक। विषय- संन्यासव्रत का विवेचन। संन्यास व्रतों के पालन से जीवनन्मुक्ति की आनंदानुभूति की चर्चा ।
संम्कत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/73
For Private and Personal Use Only