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किरणावली - ले. डॉ. राम-किशोर मिश्र। मेरठ (उ.प्र.) में प्राध्यापक। प्रकाशन- 1984 में। 18 किरणों में अन्योक्तिशतक, किशोरगीत, बालगीत, प्रेमगीत, शोकगीत, गद्यगीत, इत्यादि विविध विषयों पर काव्यरचना। भारत सरकार के अनुदान से प्रकाशित । डॉ. मिश्र की अन्य 11 संस्कृत रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। किरणावली - ले. उदयनाचार्य। ई. 10 वीं शती (उत्तरार्ध) न्यायशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ। किरणावलीप्रकाशदीधितिः - ले. रघुनाथ शिरोमणी। किरणावलीप्रकाशरहस्यम् - ले. मथुरानाथ तर्कवागीश। किरणावलीप्रकाशविवृत्ति परीक्षा - ले. रुद्र न्यायवाचस्पति । किरातचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद। . किरातार्जुन-गद्यकथा - ले. दोराईस्वामी अय्यंगार। आयुर्वेद भूषण उपाधि से सम्मानित ।
देंगे। अन्त में निर्णय होता है कि स्वतंत्र ध्वज मिलेगा, और भारतीय ध्वज का भी काश्मीर आदर करेगा, तथा कर्णसिंह राज्यपाल होंगे। स्वसमकालीन राजनैतिक घटना रंगमंच पर लाने में लेखक की जागरूकता व्यक्त होती है। काश्यपपरिवर्त-टीका - लेखक- स्थिरमति । ई. 4 थी शती । बौद्धाचार्य। विषय- काश्यप (बुद्धविशेष) का उदात्त चरित्र तथा उसके सिद्धान्त का निरूपण। तिब्बती तथा चीनी रूपान्तर उपलब्ध है। काश्यपशिल्पम् - शिल्पशास्त्र की 18 संहिताएं विदित हैं। उनमें काश्यप-शिल्पसंहिता प्राचीनतम है। इसका संपादन रावबहादूर। कृष्णाजी वामन वझे (नासिक निवासी) ने किया। प्रकाशन पुणे के आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथावली ने किया। ई. 19 वीं शती। इस ग्रंथ में 88 अध्याय हैं। कु. स्टेला कमेरिश, लाश हेन्स और अन्नमलै विश्व-विद्यालय के डॉ. काह्यण इन तीन पंडितों ने काश्यप शिल्प संहिता के आधार पर ग्रंथ लेखन किया है। काश्यपसंहिता - आयुर्वेद का एक प्राचीन ग्रंथ रचियता (अथवा उपदेष्टा) मारीच काश्यप। यह ग्रंथ खंडित रूप में प्राप्त हुआ, जिसे नेपाल के राजगुरु पं. हेमराज ने प्रकाशित किया है। यादवजी विक्रमजी आचार्य इसके संपादक हैं। उपलब्ध "काश्यपसंहिता" में चिकित्सास्थान, कल्पस्थान व खिलस्थान हैं। इसमें अनेक विषय चरक संहिता से लिये गए हैं, विशेषतः आयुर्वेद के अंग, उनकी अध्ययनविधि, प्राथमिक तंत्र का स्वरूप आदि। इस संहिता में पुत्र जन्म के समय होने वाली छठी की पूजा का महत्त्व दर्शाया गया है। दांतों के नाम व उनकी उत्पत्ति आदि का विस्तृत विवरण, पक्वरोग, (रिकेट) व कटु-तैल-कल्प का वर्णन, इस संहिता की अपनी विशेषताएं हैं। इसके अध्यायों के नाम "चरकसंहिता'' के ही
आधार पर प्राप्त होते हैं। इसमें नाना प्रकार के धूपों व उनके उपयोगों का महत्त्व बतलाया गया है। सत्यपाल विद्यालंकार ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है। किरणतन्त्रम् - श्लोक- 2700। रचनाकाल ई. 10 वीं शती । त्रिपुरेश्वर-गरुड संवादरूप यह महातन्त्र 64 पटलों में पूर्ण है। पटलों के विषय- पशु आहार-विहार, शिव-शक्ति-दीक्षामन्त्र, शिव और शक्ति, ज्ञानभेद, मन्त्रोद्धार, लिङ्गार्चन, अग्निकार्यविधि, गृहलक्षण, अष्टयाग, अंशभेद, पवित्रारोहण-विधि, गुरुपरीक्षा, व्रतेश्वरयाग, शुद्धि, और अशुद्धि, पंचमहापातक, प्रायश्चित्त-विधि, भोजन, आसनविधि, नित्यहानि पर प्रायश्चित्त, साधन विधान, पंचब्रह्मोद्धार, लिङ्गाद्धार, मातृकायाग इत्यादि। किरणागम - श्रीकण्ठी के मतानुसार यह अष्टदश रुद्रागमों में अन्यतम है। किरणागमवृत्ति - ले. अघोर शिवाचार्य। यह तंत्रग्रंथ शतरत्र मंग्रह तथा तन्त्रालोक में अन्तर्भूत है।
किरातार्जुनीयम् - महाकवि-भारवि-रचित प्रख्यात महाकाव्य । इसका कथानक "महाभारत" पर आधारित है। इन्द्र व शिव को प्रसन्न करने के लिये की गई अर्जुन की तपस्या ही इस महाकाव्य का वर्ण्य विषय है जिसे कवि ने 18 सर्गों में विस्तार से लिखा है।
संस्कृत साहित्य के पंच महाकाव्यों में किरातार्जुनीय की गणना होती है। इसकी कथा का प्रारंभ द्यूतक्रीडा में हारे हुए पांडवों के द्वैतवन में निवास काल से हुआ है। युधिष्ठिर द्वारा नियुक्त किया गया वनेचर (गुप्तचर) उनसे आकर दुर्योधन की सुंदर शासन-व्यवस्था व रीति-नीति की प्रशंसा करता है। शत्रु की प्रशंसा सुनकर द्रौपदी का क्रोध उबल पडता है। वह युधिष्ठिर को कोसती हुई उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करती है। द्वितीय सर्ग में द्रौपदी की बातें सुनकर उनके समर्थनार्थ भीम कहते हैं कि पराक्रमी पुरुषों को ही समृद्धियां प्राप्त होती है। युधिष्ठर उनके विचार का प्रतिवाद करते हैं। सर्ग के अंत में व्यास का आगमन होता है। तृतीय सर्ग में युधिष्ठिर व महर्षि व्यास के वार्ताक्रम में अर्जुन को शिव की आराधना कर पाशुपतास्त्र प्राप्त करने का आदेश होता है। व्यासजी अर्जुन को योगविधि बतला कर अंतर्धान हो जाते हैं और उनके साथ अर्जुन व यक्ष प्रस्थान करते हैं। चतुर्थ सर्ग में इंद्रकील पर्वत पर अर्जुन व यक्ष का प्रस्थान एवं शरद् ऋतु का वर्णन। पंचम सर्ग में हिमालय का वर्णन व यक्ष द्वारा अर्जुन को इंद्रियों पर संयम करने का उपदेश। सर्ग 6 में अर्जुन संयतेंद्रिय होकर घोर तपस्या में लीन हो जाते हैं। उनके व्रत में विघ्न उपस्थित करने हेतु इन्द्र द्वारा अप्सरायें भेजी जाती हैं। सर्ग 7 में गंधों व अप्सराओं द्वारा अर्जुन की तपस्या में विघ्न करने का प्रयास । वनविहार व पुष्पचयन का वर्णन । सर्ग 8 में अप्सराओं की जलक्रीडा का कामोद्दीपक वर्णन । सर्ग 9 में संध्या, चंद्रोदय, मान, मान-भंग व दूती-प्रेषण
72/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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