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आनन्दरंगचम्पू - ले.- श्रीनिवास । विषय- आनन्द रंगराजा का चरित्र और विजयनगर राजवंश का इतिहास । आनंदरंगविजयचंपू- ले- श्रीनिवास कवि। प्रस्तुत चंपू-काव्य की रचना 8 स्तबको में हुई है। इसमें कवि ने प्रसिद्ध फ्रेंच शासक डुप्ले के प्रमुख सेवक तथा पांडिचेरीनिवासी आनंदरंग के जीवन-वृत्त का वर्णन किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस काव्य का महत्त्व है। विजयनगर तथा चंद्रगिरि के राजवंशों का वर्णन इसकी एक बहुत बड़ी विशेषता है। निर्माण काल 18 वीं शताब्दी। इस ग्रंथ का प्रकाशन मद्रास से हो चुका है संपादक है डॉ. व्ही. राघवन् । आनन्द-रघुनन्दन-नाटकम् - उन्नीसवीं शती के मध्य में बघेलखंड के निवासी विश्वनाथसिंह द्वारा लिखा गया वीर रसात्मक नाटक । हिंदी साहित्य के इतिहासों और हिन्दी रूपकों के समीक्षा ग्रंथों में सर्वत्र इसका उल्लेख प्रथम हिन्दी नाटक के रूप में हुआ है। ऐसा लगता है कि 1830 से पूर्व हिन्दी नाटक पूर्ण होने पर उसी को संस्कृत रूप देने का विचार हुआ। उसमें हिन्दी के समानार्थक शब्द रचे। कथावस्तु रामकथा है। अंकसंख्या- 7। प्रथम अंक में रामजन्म से विवाह तक, द्वितीय में राम निर्वासन की कथा, तीसरे में सीताहरण, शबरी द्वारा राम को सुग्रीव का पता दिया जाना चौथे में हनुमान
और सुग्रीव से मैत्री, सीता की खोज, पांचवे में हनुमान का लंका पहुंचना, सेतुबंधन, छठे में युद्ध और बिभीषण का तिलक, सीता की अग्निपरीक्षा और सातवे में भरत द्वारा श्रीराम को राज्य सौंपना। संवाद एवं अभिनय की दृष्टि से नाटक प्रभावी है। रोचक पत्रव्यवहार भी नाटककार ने प्रस्तुत किये है। आनन्दराघवम् - ले- राजचूडामणि यज्ञनारायण दीक्षित। ई. 16 वीं शती। पांच अंकों का नाटक। विषय- सीतास्वयंवर से भरत के यौवराज्याभिषेक तक कथाभाग। नानाविध रसों का उपयोग, परन्तु प्रमुख रस शृंगार। इसमें गद्यांश नाममात्र के लिए है। अनेक स्थलों पर पद्यात्मक संवाद हैं। शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, स्रग्धरा तथा शिखरिणी का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में है। छेक, वृत्ति, श्रुति तथा अंत्य इन चारों प्रकार के अनुप्रासों का तथा श्रवणानुसारी शब्दों का यथायोग्य प्रयोग है। प्राकृत बोलने वाले पात्रों के भाषणों से भी प्रसंग विशेष में संस्कृत संवाद आते हैं। प्रतिनायक रावण रंगमंच पर आता ही नहीं। विष्कम्भकों में भी पद्यों की भरमार है। सन 1971 ई. में सरस्वती महल लाईब्रेरी, तंजौर से प्रकाशित। आनन्दराघवम् - ले- यतीन्द्रविमल चौधुरी। ई. 20 वीं शती। राधा-कृष्ण की लीलाओं पर रचित महानाटक। प्रचुर मात्रा में छायातत्त्व । रंगमच पर कंस द्वारा कृष्ण पर तीर चलाना, मुष्टिक तथा चाणूर के साथ बलदेव कृष्ण का मुष्टियुद्ध, कृष्ण द्वारा कंसवध आदि दृश्यों का विधान इसमें है। नृत्य गीतों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया गया है।
आनन्दरामायण - रामभक्ति सम्प्रदाय के रसिकोपासकों का एक मान्य ग्रंथ । रचना काल ई. 15 वीं शती। इसमें 'अध्यात्म रामायण' के कई उद्धरण प्राप्त होते हैं। इस रामायण में कुल 9 काण्ड एवं 12,952 श्लोक हैं। प्रथम 'सारकाण्ड' में 13 सर्ग हैं तथा रामजन्म से लेकर सीताहरण तक की कथा वर्णित है। द्वितीय 'यात्राकाण्ड' में 9 सर्ग हैं जिनमें श्रीराम की तीर्थयात्रा का वर्णन है। तृतीय 'यागकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं और रामाश्वमेध का वर्णन किया गया है ।चतुर्थ 'विलासकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं जिनमें सीता का नख-शिख-वर्णन, राम सीता की जल-क्रीडा, उनके नानाविध श्रृंगारों एवं अलंकारों का वर्णन व नाना प्रकार के विहारों का वर्णन है। पंचम 'जन्मकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं तथा सीता-निष्कासन एवं लवकुश के जन्म का प्रसंग है। षष्ठ 'विवाह-काण्ड' में चारों भाइयों के 8 पुत्रों के विवाह वर्णित हैं। इसमें भी 9 सर्ग हैं। सप्तम 'राज्य-काण्ड' में 24 सर्ग हैं तथा श्रीराम की अनेक विजय यात्राएं वर्णित हैं। इस कांड में इस प्रकार की एक कथा है कि राम को देखकर स्त्रियां कामातुर हो जाती हैं तथा राम
अगले अवतार में उनकी लालसापूर्ति करने के लिये आश्वासन देते हैं। राम का तांबूल-रस पीने के कारण एक दासी को कृष्णावतार में राधा बनने का वरदान प्राप्त होता है। अष्टम कांड 'मनोहरकांड' में 18 सर्ग हैं व रामोपासना-विधि, राम-नाम माहात्म्य, चैत्र-माहात्म्य एवं राम-कवच आदि का वर्णन है। नवम 'पूर्णकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं तथा इसमें कुश के राज्याभिषेक एवं रामादि के वैकुंठारोहण की कथा है। इस रामायण का हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन हो चुका है। विषय की दृष्टि से यह विलक्षण ग्रंथ है। कांडों का विभाजन भी अपने ही निराले ढंग का है। प्रस्तुत रामायण का चतुर्थ कांड 'विलास-कांड' के नाम से अभिहित है। इसका पूरा विषय ही माधुर्य-रस सर्वलित है। इसमें सीता-राम की ललित लीलाओं का मधुर विन्यास है। श्रृंगार या मधुर रस से स्निग्ध रामायण की परंपरा में आनंद रामायण की गणना होती है। आनन्दलतिका - ले- कृष्णनाथ सार्वभौम भट्टाचार्य। ई. 18 वीं शती। कन्याविवाह के बाद उसके वियोग में अन्यमनस्क सामन्त चिंतामणि के मनोविनोदनार्थ अभिनीत नाटक । अंकसंख्या 5। 'अक' के स्थानपर 'कुसुम' शब्द का प्रयोग किया है। कथासार- नारद श्रीकृष्ण के पास जाकर बताते हैं कि तुम्हारा पुत्र सांब, राजा दमन की कन्या रिवा' पर अनुरक्त है। दमन ने स्वयंवर रचा जिसमें समस्यापूर्ति का प्रण था। उसमें सांब विजयी होते हैं। पुत्री को बिदा करते समय राजा दमन रो देता है। मन्त्री उसे धीरज बंधाते हैं और दम्पती द्वारका जाते हैं। आनन्दलतिका-चम्पू- ले- कृष्णनाथ तथा उनकी पत्नी वैजयन्ती । ई. 17 वीं शती। प्रकरणों के स्थान पर 'कुसुम' शब्द का प्रयोग। कुसुमसंख्या पांच ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 27
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