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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवाद रूप। ब्रह्मज्ञानप्रद होने के कारण कलंज संवित् कहलाता है। आचार्य गौडपाद ने इस पर "गौडपाद-भाष्य' की रचना है। "संवित्" के सदृश न कोई धर्म है, न कोई तप और की है जिनका समय 7 वीं शताब्दी है। शंकर ने इस पर न कोई शास्त्र । विषय- कलंज-भक्षण की महिमा प्रतिपादित ___ "जयमंगला" नामक टीका लिखी पर ये शंकर, अद्वैतवादी है। साथ की कौलिक पुरुष, कौल ज्ञान और भागवत तथा शंकर से अभिन्न थे, या अन्य, इस बारे में विद्वानों में मतैक्य शिव की उत्कृष्टता कही गई है। नहीं है। म.म.डॉ. गोपीनाथ कविराज ने "जयमंगला" की संस्थापद्धति- (या संस्थावैद्यनाथ) ले.- रत्नेश्वरात्मज बैद्यनाथ । भूमिका में यह सिद्ध किया है कि यह रचना शंकराचार्य की चार मानों में। विषय- कात्यायनगृह्यसूत्र के मतानुसार आवसथ्य न होकर शंकर नामक किसी बौद्ध विद्वान् की है। वाचस्पति अग्नि में किये जाने वाले कृत्य। मिश्र कृत "सांख्यतत्त्व-कौमुदी", नारायणतीर्थ द्वारा प्रणीत संहिताहोमपद्धति - ले.- भैरवभट्ट। "चंद्रिका' (17 वीं शताब्दी) एवं नरसिंह स्वामी की संहितोपनिषद्-ब्राह्मणम् - (सामवेदीय)- इसमें एक ही । "सांख्यतरु-वसंत" नामक टीकाएं भी प्रसिद्ध हैं। इसमें प्रपाठक में कुल 5 खंड है। सामवेद के आरण्यगान और "सांख्य-तत्त्वकौमुदी' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका है। यह टीका ग्रामगेय गान का नाम लिया गया है। पुराने ब्राह्मण वाक्यों डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र के हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो का और श्लोकदिकों का संग्रह मात्र इस में मिलता है। चुकी है। सामवेद के प्रातिशाख्य रूप सामतन्त्र और फुल्ल-सूत्रादिओं सांख्यप्रवचनभाष्यम् - ले.- विश्वास भिक्षु। काशी निवासी। का मूल यही ब्राह्मण है। सम्पादक- ए.सी.बर्नेल, मंगलोर । ई. 14 वीं शती। सन् 1877 में प्रकाशित। इस की गणना उत्तरकालीन वैदिक सांख्यायनगृह्यसंग्रह - ले.- वासुदेव। बनारस संस्कृमाला में वाङ्मय में होती है। पुराने वैदिक शब्दप्रयोग इसमें नहीं मिलते। प्रकाशित। सांख्यायनतन्त्रम् - शिव-कार्तिकेय संवादरूप। श्लोक-11761 साकारसिद्धि - ले.- ज्ञानश्री । ई. 14 वीं शती । बौद्धाचार्य । पटल-24। विषय- ब्रह्मास्त्रविद्या का निरूपण, उसमें अभिषेक सागरिका- सन् 1962 में सागर (म.प्र.) से डॉ. रामजी आदि का निरूपण, एकाक्षरी विधि का निरूपण, महापाशुपत उपाध्याय के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ के प्रसंग में बंगलामुखी आदि का प्रयोग, यन्त्र का प्रयोग, हुआ। प्रथम वर्ष यह षण्मासिकी थी, किन्तु दूसरे वर्ष से शताचार्य आदि का प्रयोग, दूर्वाहोम की विधि, अन्य की विद्या त्रैमासिकी पत्रिका हो गई। इसका प्रकाशन सागर विश्वविद्यालय भक्षण करने आदि की विधि, बगलास्त्रविधि, की सागरिका समिति की ओर से हुआ। संस्कृत भाषा तथा अस्त्रविद्याप्रयोग-विधि, स्तंभिनीविद्या आदि का प्रयोग। शिक्षा के विषय में तर्कसंगत निबन्धों के अलावा संस्कृत सांख्यसार-ले.- विश्वास भिक्षु । काशी-निवासी । ई. 14 वीं शती। मनीषियों की जीवनी, गीत और रूपक आदि का भी प्रकाशन इसमें किया जाता है। शोध-निबन्धों का प्रकाशन इसकी सांख्यसूत्राणि- ले.- कपिलमुनि। सांख्यदर्शन का यह मूल विशेषता है। इसका हर अंक लगभग सौ पृष्ठों का होता है। ग्रंथ है। जुलाई, अक्टूबर, जनवरी और अप्रैल इसके प्रकाशन मास हैं। सात्यमुग्र-शाखा (सामवेदीय)- सामवेद के राणायनीय चरण साग्निकविधि- विषय- अग्निहोत्रियों के अन्त्येष्टि-कृत्यों के की एक शाखा का नाम सात्यमुग्र है। सात्यमुग्र शाखा का नियम। कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। सात्यमुग्र शाखा वाले एकार और सांख्यकारिका - ले.- ईश्वरकृष्ण। सांख्य दर्शन के एक ओकार इन संध्यक्षरों को हस्व पढते हैं, इस तरह का निर्देश पतंजलि के व्याकरण-महाभाष्य में मिलता है- (व्याकरण प्रसिद्ध आचार्य। इसमें 71 कारिकाएं हैं जिन में सांख्यदर्शन के सभी तत्त्वों का निरूपण है। शंकराचार्य ने अपने "शारीरक महाभाष्य 1-1-4) भाष्य" में इसके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। "अनुयोगद्वारसूत्र" सात्राजितीपरिणय-चम्पू- कवि-कृष्णगांगेय। रामेश्वर के पुत्र । नामक जैन-ग्रंथ में "कणगसत्तरी"- नाम आया है जिसे विद्वानों सात्त्वततन्त्रम- शिव-नारद संवाद रूप। श्लोक-781 । पटल-91 ने "सांख्यकारिका" के चीनी नाम "सुवर्ण-सप्तति". से अभिन्न यह शिव प्रोक्त और गणेश लिखित है। विषय-भगवान् श्रीकृष्ण मान कर इसका समय प्रथम शताब्दी के आस-पास निश्चित के विराट रूप का वर्णन, भक्तों की विभिन्न प्रकार की भक्तियां, किया है। "अनुयोगद्वार-सूत्र" का समय 100 ई. है। अतः उनके पृथक् लक्षण, भगवान् की सेवा से युग के अनुरूप "सांख्यकारिका का रचनाकाल इस से पूर्ववर्ती होना निश्चित मोक्षसाधन इत्यादि। है। "सांख्यकारिका" पर अनेक टीकाओं व व्याख्या ग्रंथों की सात्वतसंहिता (पांचरात्र)- श्लोक- 3000। अध्याय-25 । रचना हुई है। कनिष्क के समकालीन (प्रथम शतक) आचार्य विषय- प्रधान रूप से वैष्णव पूजा का प्रतिपादन। माठरद्वारा रचित "माठरवृत्ति", इसकी सर्वाधिक प्राचीन टीका साधकसर्वस्वम् - शिव-पार्वती-संवाद रूप। प्राणनाथ मालवीय 404 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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