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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गोवर्धनाचार्य ने अपनी इस "सप्तशती" की रचना, प्राकृत भाषा के कवि हालकृत "गाथा सत्तसई' के आधार पर की है इसकी रचना अकारादि वर्णानुक्रम से हुई है जिसके अक्षर क्रम को "व्रज्या" नामक 35 भागों में विभक्त किया गया है। कवि ने नागरिक स्त्रियों की श्रृंगारिक चेष्टाओं का जितना रंगीन चित्र उपस्थित किया है, ग्रामीण स्त्रियों की स्वाभाविक भाव-भंगिमाओं की भी मार्मिक अभिव्यक्ति में उतनी ही दक्षता प्रदर्शित की है। स्वयं कवि अपनी कविता की प्रशंसा करता है। N "मसृणपदरीतिगतयः सज्जन- हृदयाभिसारिकाः सुरसाः । मदनाद्वयोपनिषदो विशदा गोवर्धनस्यार्याः । 151 || प्रस्तुत काव्य में कहीं कहीं श्रृंगार एवं चौर्यरत का चित्रण पराकाष्टा पर पहुंच गया है जिसकी आलोचकों ने निंदा की है। "आर्यासप्तशती" का अपना एक वैशिष्ट्य है । अन्योक्ति का शृंगार परक प्रयोग। इनके पूर्व की किसी भी रचना में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। अन्योक्तियों का प्रयोग, प्रायः नीति विषयक कथनों में ही किया जाता रहा है पर गोवर्धनाचार्य ने शृंगाराता संदर्भों में भी इसका प्रयोग किया है। इसकी चार टीकाएं उपलब्ध हैं। www.kobatirth.org 2) ले- विश्वेश्वर पाण्डेय। पिता- लक्ष्मीधर । पटिया (अलमोडा जिला ) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध) (3) ले राम वारियर। (4) ले अनन्त शर्मा । आर्योदय- महाकाव्यम् - रचयिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय । ई. 19-20 वीं शती । यह गद्यकाव्य भारतीय संस्कृति का काव्यात्मक इतिहास है। इसमें 21 सर्ग एवं 1166 श्लोक हैं। इसके दो विभाग है। पूर्वार्ध व उत्तरार्ध पूर्वार्ध का उद्देश्य है भारत को सांस्कृतिक चेतना प्रदान करना । उत्तरार्ध में स्वामी दयानन्द का जीवनवृत्त है। इसका प्रारंभ सृष्टि के वर्णन से होता है और स्वामीजी की जोधपुर दुर्घटना तथा आर्यसंस्कृत्युदय में इस काव्य की समाप्ति होती है : "जीवनं मरणं तात प्राप्यते सर्वजन्तुभिः । स्वार्थं त्यक्त्वा परार्थाय यो जीवति स जीवति ।। आर्षगीता ले- हंसयोगी रचना ई. 6 वीं शती । आर्षविद्यासुधानिधि - इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन 1878 में कलकत्ता से प्रारंभ हुआ। संपादक थे व्रजनाथ विद्यारत्न । अपने एक वर्ष के प्रकाशन काल में इस पत्रिका में अनेक ग्रंथों तथा उनकी टीकाओं का प्रकाशन हुआ। आलोचनाएं बंगला भाषा में प्रकाशित की जाती थीं। यह पत्रिका अधिक समय तक नहीं चल पायी। आर्षेयब्राह्मणम् यह "सामवेद" का ब्राह्मण है। इसमें 3 प्रपाठक व 82 खंड हैं और साम-गायन के प्रथम प्रचारक ऋषियों का वर्णन है। यही इसकी ऐतिहासिक महत्ता का कारण - , है। साम-गायन के उद्भावक ऋषियों का वर्णन होने के कारण, यह ब्राह्मण "सामवेद" के लिये आर्षानुक्रमणी का कार्य करता है। यह ब्राह्मण बर्नेल द्वारा रोमन अक्षरों में बंगलोर से 1876 ई. में तथा जीवानंद विद्यासागर द्वारा ( सायण - भाष्य सहित) नागराक्षरों में कलकत्ता से प्रकाशित आर्षेयोपनिषद यह नवीन प्राप्त उपनिषद् है इसकी एकमात्र पांडुलिपि अड्यार लाइब्रेरी में है, और इसका प्रकाशन उसी पांडुलिपि के आधार पर हुआ है। यह अल्पाकार उपनिषद् है। इसके 10 अनुच्छेद हैं और विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम व वसिष्ठ प्रभूति ऋषियों के विचार विमर्श के रूप में ब्रह्मविद्या का इसमें वर्णन है ऋषियों द्वारा विचार विमर्श किया जाने के कारण, इसका नामकरण आर्षेय या ऋषिसंबद्ध है। इसमें मुझे कुलुभ तदर एवं बर्बर लोगों का उल्लेख है। आलम्बनपरीक्षा - ले दिइनाग ई. 5 वीं शती केवल तिब्बती अनुवाद से ज्ञात । - | आलम्बनप्रत्यवधानशास्त्र व्याख्या - ले. धर्मपाल (संभवतः दिङ्नाग की रचना पर व्याख्या) । आलम्बि कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा । आलम्बि आचार्य पूर्वदेशीय थे। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 आलयनित्याचंनपद्धति (व्याख्यासहित) पंचरात्र - पाद्म संहिता के आधार पर रंगस्वामी भट्टाचार्य ने इसकी रचना की है। आळवंदारस्तोत्रम् - आळंवदाररचित 70 श्लोकों का उत्कृष्ट स्तोत्र | "न धर्मानिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे । अकिंचनोऽनन्यगतिः शरण्यं त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये ।। इस प्रकार आत्मसमर्पण के सिद्धान्त का इसमें मनोरम वर्णन है। प्रपत्तिवादी रामानुज संप्रदाय में इस स्तोत्र का विशेष महत्त्व है। I ले. म.म.कालीपद आलस्यकर्मीयम् - ले. के. के. आर. नायर । हास्यप्रधान नाटक । आलापपद्धतिले. देवसेन जैनाचार्य ई. 10 वीं शती । आलोकले. पक्षधर मिश्र ई. 13 वीं शती (उत्तरार्ध) | आलोकतिमिर-वैभवम् (काव्य) तर्काचार्य (1888-1972)। आलोकरहस्यम् - ले. मथुरानाथ तर्कवागीश । आवटिक यजुर्वेद की एक अप्रसिद्ध शाखा । आवरणभंग ले. वल्लभ संप्रदायी पंडित पुरुषोत्तमजी। इसमें वेदांत के शीर्षस्थ आचार्यों के मतों का खंडन तथा शुद्धाद्वैत मत का प्रतिपादन किया गया है। आशुतोषावदानकाव्य ले. म.म. कालीपद तर्काचार्य । 1888 -1972 । बंगाल के सुप्रसिद्ध नेता (श्यामाप्रसाद मुखर्जी For Private and Personal Use Only - · संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 31 -
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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