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आचार्यों के नाम इसमें दिये गये हैं। 6 से 10 कांड में यज्ञ वेदी की रचना संबंधी विचार किया गया है। उसमें शांडिल्य के मतों को महत्त्व दिया गया है, अन्य भागों में याज्ञवल्क्य को। गांधार, केकय, कुरु, पांचाल, कोसल, विदेह, संजय प्रदेश के लोगों का उल्लेख प्रमुखता से है। इससे यह पता लगता है कि वैदिक संस्कृति का केंद्र पंजाब से पूर्व भारत की ओर बढा था। हरिस्वामी, सायण व कवींद्रचार्य सरस्वती के भाष्य इस पर हैं। शतपथ ब्राह्मण का प्रचार अंग, बंगाल, उड़ीसा, कानीन और गुजरात में विशेष है।
अंग-वंग-कलिंगश्च कानीनो गुर्जरस्तथा । वाजसनेयी शाखा च माध्यन्दिनी प्रतिष्ठिता ।। इस प्रकार का निर्देश चरणव्यूह की टीका में मिलता है। फिर भी यह शाखा पंजाब और उत्तर प्रदेश में पढी जाती है। उज्जैन के हरिस्वामी, उव्वट जैसे बडे बडे यजुर्वेदी विद्वानों की यही (वायसनेयी) शाखा थी। संपादन - क) शतपथब्राह्मणम्- सम्पादक- वेबर, सन 1924 में ख) शतपथब्राह्मणम्- अजमेर, 1956 में ग) शतपथब्राह्मणम्- सायणभाष्यसहितम्। काण्ड 1-3, 5, 7, 6 सम्पादक- सत्यव्रत सामाश्रमी। सन 1903 1 1911 एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता। भाग- 1-71 शतपथब्राह्मणभाष्यम्-ले.- अनंताचार्य । ई. 18 वीं शती। शतरत्नसंग्रह - ले.- उमापति- शिवाचार्य । चिदम्बर के निवासी।। यह मतंग, मृगेन्द्र, किरण, देवीकालोत्तर, विश्वसार और ज्ञानोत्तर आगमों का सारसंग्रह रूप ग्रंथ है। इस पर सद्योज्योति, रामकण्ठ, नारायण और अघोर शिवाचार्य की टीकाएं हैं। शतवार्षिकम् (रूपक) - ले.- जीव न्यायतीर्थ। जन्म सन 1894। कलकत्ता वि.वि. के शतसांवत्सरिक महोत्सव हेतु लिखित तथा अभिनीत। "रूपक-चक्रम्" संग्रह में प्रकाशित । कथासार - शरीर पर राकेटयन्त्र चिपकाए हुए मर्त्यमणि की ब्रह्मलोक पहुंचने पर स्वर्ग के द्वारपाल से मुठभेड होती है, परंतु राकेटयंत्र को देख द्वारपाल डरता है। मर्त्यमणि कहता है कि तुम्हारे (मंगल) के पश्चात् शुक्र तथा बुध पर भी राकेट छोडा जायेगा। चन्द्र भी अपनी दुर्गति सुनाता है। यह सुन राहु मर्त्यमणि से भिडता है और सभी ग्रह मर्त्यमणि पर चढ ब्रह्मा के पास जाते है। ब्रह्मा सब को ढाढस बंधाते हैं। अन्त में संदेश है कि यन्त्रीय विज्ञान का नियंत्रण किया जाये, नहीं तो सौ वर्ष पश्चात् पृथ्वी ध्वस्त हो जायेगी। शतलोकी- ले.-वेंकटेश। (2) ले.- यल्लंभट्ट। शतांगम् (नामान्तर- मंत्रालोक- व्याख्या) - ले.- श्रीहर्ष । श्लोक- 1501 शबरीतंत्रम् - श्लोक- 832। शब्दकल्पद्रुम - ले.- राजा राधाकान्त देव। शब्दकोश ।
शब्दकौस्तुभ - ले.- भट्टोजी दीक्षित । पाणिनीय सूत्रों का पातंजल महाभाष्य की पद्धति से विवरण। महाभाष्य के पश्चात् लिखित अन्य ग्रन्थों की आधारभूत पाणिनीय अष्टाध्यायी की यह महती टीका है। केवल प्रथम अढाई अध्याय तथा चौथा अध्याय उपलब्ध है। प्रथम पाद विस्तृत है। शेष भाग संक्षिप्त हैं। शब्दकौस्तुभ पर टीकाएं- (1) नागेशभट्ट कृत विषमपदी, (2) वैद्यनाथ पायगुण्डे कृत प्रभा, (3) विद्यानाथ शुक्ल कृत उद्योत, (4) राघवेन्द्राचार्य कृत प्रभा, (5) कृष्णमित्र (कृष्णाचार्य) कृत भावप्रदीप, (6) भास्कर दीक्षित कृत शब्दकौस्तुभदूषण और (7) पण्डितराज जगन्नाथ कृत कौस्तुभखण्डनम्। शब्दचन्द्रिका - ले.- चक्रपाणि दत्त। ई. 11 वीं शती। वैद्यकीय शब्दकोष। शब्दतरंगिणी - ले.-व्ही. सब्रह्मण्यम् शास्त्री। व्याकरण विषयक प्रस्तुत प्रबन्ध को 1970 का साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। शब्दनिर्णय - ले.-प्रकाशात्म यति। ई. 13 वीं शती। शब्दप्रकाश (या दीपप्रकाश-टिप्पन) - ले.- प्रेमनिधि शर्मा। श्लोक- 32101 यह ग्रन्थकार द्वारा रचित स्वग्रन्थ दीपप्रकाश की टीका है। शब्द-प्रदीप - ले.- सुरेश्वर। (अपरनाम सुरपाल)। ई. 11 वीं शती (उत्तरार्ध)। आयुर्वेदिक वनस्पति-कोश । शब्दप्रमाणचर्चा - ले.- गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। पिता- नरसिंहशास्त्री, माता- नरसांबा। शब्दप्रामाण्यवादरहस्यम् - ले.- गदाधर भट्टाचार्य । शब्दबृहती - ले.- राजनसिंह । व्याकरणमहाभाष्य की व्याख्या । शब्द-भेद-निरूपणम् - ले.-रामभद्र दीक्षित । कुम्भकोणम्-निवासी । ई. 17 वीं शती । विषय- व्याकरणशास्त्र । शब्दरत्नम् - ले.- नागोजी भट्ट। पिता- शिवभट्ट। मातासती। ई. 18 वीं शती। विषय- व्याकरणशास्त्र । शब्दरत्नावली - ले.- माथुरेश विद्यालंकार । ई. 17 वीं शती। कोशात्मक ग्रंथ। शब्दव्यापारविचार - ले.- मम्मट। ई. 12 वीं शती। शब्दव्युत्पत्तिसंग्रह - ले.- गंगाधर कविराज । ई. 1708-18251 विषय- व्युत्पत्तिशास्त्र। शब्दशक्तिप्रकाशिका - ले.- जगदीश तर्कालंकार भट्टाचार्य । ई. 17 वीं शती। (2) ले.- कृष्णकान्तविद्यावागीश। शब्दशोभा - ले.- नीलकण्ठ। व्याकरण विषयक लघुग्रंथ । शब्दसिद्धि - ले.- महादेव। ई. 13 वीं शती। शब्दानुशासनम् - ले.- चन्द्रगोमी। बौद्ध वैयाकरण। इसके सूत्रपाठ में पाणिनीय सूत्रपाठ का अनुसरण है, परंतु धातुपाठ में नहीं। धातुपाठ के प्रत्येक गण में परस्मैपदी, आत्मनेपदी
संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/359
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