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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्तिसारदम् (रूपक) - ले.- यतीन्द्रविमल चौधुरी। प्रथम निवासी। ई. 17 वीं शती। अलंकार शास्त्र पर लिखित इस अभिनय (20-6-58 को) पुरी की अखिल भारतीय संस्कृत काव्य में शठगोपनम्म आलवार साधु की स्तुति की है। परिषद के अधिवेशन में हुआ। बाद में कई स्थानों पर अनेक शतचण्डी-पद्धति - ले.- गोविन्द दशपुत्र । श्लोक- 1100। बार अभिनीत। अंकसंख्या- 4:। भाषा नाट्योचित, सरल। दो खंडों में विभाजित। संवाद- पात्रानुसारी। गीतों से भरपूर। रामकृष्ण परमहंस की शतचण्डीपूजन - श्लोक- 320। पत्नी सारदामणि की प्रेरणाप्रद जीवनगाथा का चित्रण। शतचण्डीप्रयोग (1) - ले.- चित्पावनकर श्रीकृष्ण भट्ट । शक्तिसिद्धान्तमंजरी - श्लोक- लगभग- 2001 पितामह- नृसिंहभट्ट। पिता-नारायणभट्ट। यह मन्त्रमहोदधि के शक्तिसूत्रम् - ले.- अगस्त्य । श्लोक- 544 | 18 वें तरंग से आरंभ होता है। शक्रलोकयात्रा - ले.- वंशगोपाल शास्त्री। यह एक गल्प है। शतचण्डीसहस्रचण्डी-पद्धति - ले.-सामराज। पिता- नरहरि । शक्रोपासितमृतसंजीवनी - श्लोक- 103 । श्लोक- 12001 शंखस्मृति - शंखलिखित । विषय- इसमें चारों वर्गों के कर्म, शतचण्डीसहस्रचण्डीप्रयोग - ले.- कमलाकर। उनके शांतिरत्न निषेकादि संस्कारों का काल, यज्ञोपवीत धारण करने के उपरान्त से संग्रहीत।। ब्रह्मचारी के नियम, ब्राह्म आदि आठ प्रकार के विवाहों का शतचण्ड्यादिप्रदीप - ले.- भारद्वाज दिवाकरसूरि। पितानिरूपण, पांच हत्याओं के दोषों की निवृत्ति हेतु पंच महायज्ञों महादेव। विषय- शतचण्डी तथा सहस्रचण्डी आदि के संबंध का कथन, अग्निसेवा, अग्निपूजा, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, में प्रमाण और प्रमेय का प्रतिपादन, एवं रुद्रयामल आदि के संन्यासाश्रम, अष्टांग योग आदि। अनुसार शतचण्डी के नियम । शंखचक्रधारणवाद - ले.- पुरुषोत्तम। पीताम्बर के पुत्र । शतचण्डीविधानम् - श्लोक- 5001 विषय- चण्डिकातर्पण, शंखचूडवधम् (रूपक) - ले.- दीनद्विज । रचनाकाल 1803 सूर्यार्घ्यदान, वरुण-कलश-स्थापना, प्राणप्रतिष्ठा,अन्तर्मातृका, ईसवी। सन 1962 में असम साहित्य सभा, जोरहट (असम) बहिर्मातृका, एकादशन्यास, गणपतिपीठ-स्थापना, पूजन, बलिदान, से प्रकाशित ।आंकियानाट्य। गीत संस्कृत तथा संस्कृतनिष्ठ ग्रहपूजन, योगिनीपूजन, स्वस्तिपूजन इ. असमी भाषा में। चालेगी, वररी, लेछारी, कफिर, मुक्तावली, शतचण्डीविधानपद्धति - ले.- जयरामभट्ट। तुर देशाख, श्री, मालची कल्याण आदि रागों का प्रयोग। शतचण्डीविधानपूजा-पद्धति- श्लोक- 385 । कतिपय गीतों में कवि का नाम भी पिरोया हुआ है। अर्थोपक्षेपक शतदूषणी - ले.- वेदान्तदेशिक । के रूप में देववाणी का प्रयोग। भाषा सरल, संवादोचित । शतद्वयी - विषय- प्रायश्चित्त। इस की टीका का नाम है रंगमंच पर अकेला सूत्रधार सभी पात्रों के संवाद बोलता है। अंक संख्या- तीन। कथासार- शिवभक्त वृषभध्वज के वंशज प्रायश्चित्तप्रदीपिका। धर्मध्वज की कन्या तुलसी अनुपम सुन्दरी है। योग्य वर पाने शन्तनुचरितम् - ले.-सुब्रह्मण्य सूरि। गद्य ग्रन्थ । हेतु वह बदरिकाश्रम में एक लाख वर्ष तक तप करती है। शतपथब्राह्मण - शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ। इस की उस पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा कहते हैं, "कृष्णजी का पार्षद दोनों शाखाओं का (माध्यंदिन तथा कण्व का) नाम शतपथ सुदामा, राधा के शाप से दानव शंखचूड बना है, उससे ही है। सौ अध्याय होने से इसे शतपथ कहा गया है। विवाह कर लो। फिर दोनों शापमुक्त हो श्रीकृष्ण को प्राप्त करोगे। माध्यंदिन शतपथ में 14 कांड, सौ अध्याय, 68 प्रपाठक, द्वितीय अंक में तुलसी और शंखचूड का प्रणय-प्रसंग तथा 438 ब्राह्मण, 7624 कंडिकाएं हैं। कण्व में 17 कांड, 104 विवाह है। तुलसी के दैववशात् शंखचूड वैभवशाली तथा अध्याय, 435 ब्राह्मण एवं 6806 कंडिकाएं हैं। दोनों में बहुत उन्मत्त बनता है। शिव उस पर हमला बोलते हैं, परन्तु तुलसी कुछ साम्य है। दशपूर्णमास, आधान, अग्निहोत्र, पिंडपितृयज्ञ, के पातिव्रत्य के कारण शंखचूड अजेय बना रहता है। विष्णुजी चातुर्मास्ययाग आदि विषय इनमें हैं। अग्नि की उपासना भी छद्मवेश में तुलसी के पास जाकर उसका पातिव्रत्य नष्ट करते बताई गई है। अश्वमेध, सर्वमेध, पितृमेध की चर्चा की गई हैं। तुलसी यह कपट जान कर क्षुब्ध हो विष्णु को शिलारूप है। चौदहवें काण्ड को आरण्यक नाम दिया गया है। उसके (शालिग्राम) होने का शाप देती है परन्तु उसका शील भंग अंतिम भाग को बृहदारण्यकोपनिषद् कहा जाता है। होते ही शंखचूड मारा जाता है। शिव उसकी अस्थियां समुद्र ___ महाभारत की अनेक कथाओं का सार इसमें है। उपलब्ध में फेंक देते हैं जो आज शंख के रूप में विद्यमान हैं। सभी ब्राह्मण ग्रंथों में शतपथ ब्राह्मण सबसे प्राचीन है। इसमें तुलसी पौधे के रूप में जन्म लेती है। स्त्रियों का उत्तराधिकार नहीं माना गया है। वैदिक वाङ्मय में शठगोपगुणालंकारपरिचर्या - ले.- भट्ट-कुलोत्पन्न। श्रीरंगम्। इसका महत्त्व अनेक दृष्टियों से है। विभिन्न विद्याओं में प्रवीण 358 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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