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में भी वार्षगण्य नामक प्रसिद्ध आचार्य थे। सांख्यकार वार्षगण्य
और सामसंहिताकार वार्षगण्य एक थे अथवा भिन्न यह गवेषणा का विषय है। वाल्मीकशाखा - तैत्तिरीय प्रातिशाख्य के (5-36) महिषेय टीकाकार ने इसका निर्देश किया है। इस नाम की कोई वेदशाखा मानी जाती है जो आज उपलब्ध नहीं है। वाल्मीकिचरितम् -ले.- रघुनाथ नायक। तंजौर के निवासी। वाल्मीकि के चरित्र पर आधारित यह एकमेव काव्य संस्कृत । साहित्य में विद्यमान है। वाल्मीकिरामायणम् - (देखिए- रामायण) वाल्मीकिसंवर्धनम् (रूपक)- ले.-विश्वेश्वर विद्याभूषण (ई. 20 वीं शती) "रूपकमंजरी ग्रंथमाला" में सन् 1966 में कलकत्ता से प्रकाशित। आकाशवाणी से भी प्रसारित । अंकसंख्या-पांच। सांस्कृतिक महत्ता की चर्चा से परिप्लुत।। प्रकृति वर्णन, नृत्य, गीतादि से भरपूर। कथासार- "दस्यु" । रत्नाकर को ब्रह्मा पूछते हैं कि "तुम्हारी दस्युता के पाप में कौन भागी बनेगा।" कुटुम्बीजनों से यह जानकर कि पाप का भागी कोई नहीं, सभी केवल सम्पत्ति में ही भागी बनते हैं, वह विरक्त होकर तपश्चरण में लीन होता है। अन्त में उसी के द्वारा रामायण लिखा जाता है और "वाल्मीकि" के नाम से वह सुविख्यात होता है। 2) वाल्मीकिहृदयम्- ले. कांचीववरम् के आत्रेयगोत्री अहोबिल मठाधीश (क्र. 6) पराकुंश के शिष्य। इ. 16 वीं शती। इसके शिष्य ब्रह्मविद्याध्वरीण ने कुछ पद्यों पर “विरोध- भंजनी" टीका लिखी है। वाल्मीकीय-भावप्रदीप (प्रबन्ध) - ले.- अनन्ताचार्य । प्रतिवादिभयंकर-मठाधिपति। वाल्मीकि रामायण के आध्यात्मिक भाव का प्रतिपादन किया है। वासनाभाष्यम् (टीकाग्रंथ)- ले.- भास्कराचार्य। ई. 12-13 वीं शती। वासनावार्तिकम् (वासनाकल्पलता) - ले.- नृसिंह। ई. 16 वीं शती। वासन्तिकापरिणयम् (नाटक) - ले.- शठकोप यति। ई. 16 वीं शती। इसमे अहोबिल नरसिंह के साथ वासन्तिका नामक वनदेवी का विवाह पांच अंकों में वर्णित है। सन् 1892 में मैसूर से प्रकाशित । वासन्तिकास्वप्न - मूल शेक्सपियर का मिड समर नाइटस् ड्रीम। अनुवादकर्ता- आर. कृष्णम्माचार्य । वासरसरस्वती-सुप्रभातम् - ले.- श्रीभाष्यम् विजयसारथि। वरंगल (आंध) के महाविद्यालय में संस्कृत प्राध्यापक। इस स्तोत्र में आंध की प्रसिद्ध देवता वासरसरस्वती का प्रबोधन "ब्रह्माणि वासरसरस्वती सुप्रभातम्" इस प्रतिश्लोक अंतिम पंक्ति
के साथ स्तवन किया है। इस कवि के भारतभारती और भारती-सुप्रभातम् नाम दो खण्डकाव्य सुधालहरी नामक संस्कृत काव्यसंग्रह में प्रसिद्ध हुए हैं। वासवदत्ता - ले.- सुबन्धु । इसका काल अनुमान से 8 वीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है। इसकी कथा वत्सराज उदयन तथा महाचण्डसेन की कन्या वासवदत्ता की कथा से भिन्न है। राजा चिन्तामणि का पुत्र कन्दर्पकेतु स्वप्न में एक कन्या को देखकर उसके प्रेम में पडता है। अपने मित्र मकरन्द के साथ वह उसकी खोज में निकलता है। रास्ते में तोता-दम्पती की बातों से उसे एक राजकन्या स्वप्रदृष्ट राजकुमार के प्रति प्रेम से व्याकुल होने की बात ज्ञात होती है। वह वहां पहुंचकर, वासवदत्ता के विवाह पूर्व ही दोनों भाग निकलते है। उसे खोजने वाले किरातसैन्य का आपस में युद्ध होने से वहां के मुनि, इस गडबडी के मूल कारण वासवदत्ता को शाप देकर पुतला बनाते हैं। कन्दर्पकेतु उसकी खोज में मुनि के आश्रम में आता है तथा वासवदत्ता के समान रूप का पुतला देखकर उसे आलिंगन देता है। वासवदत्ता जीवित हो उठती है और दोनों का मिलन होता है। सुबन्धु की प्रशंसा मंखक, राजशेखर, वामन भट्टबाण आदि ने अनन्तर काल में की है। वक्रोक्तिमार्ग में उसके जैसा नैपुण्य केवल बाणभट्ट तथा वाक्पतिराज ने ही प्रदर्शित किया है। भाषा में शब्दगरिमा, संवादचातुरी आदि के प्रदर्शन में सुबन्धु को कथाविस्तार तथा उसकी मौलिकता गौण लगते हैं। अनुप्रास, श्लेष आदि का प्रभूत मात्रा में प्रयोग होते हुए भी पाठक को गीतमाधुरी की अनुभूति होती है। सुबंधु का अन्यान्य शास्त्रों तथा विशेषतः व्याकरण से पूर्ण परिचय रचना से ज्ञात होता है। वासवदत्ता के टीकाकार - (1) जगद्धर, (2) त्रिविक्रम, (3) तिम्मयसूरि, (4) रामदेव मिश्र, (5) सिद्धचन्द्रगणि, (6) नरसिंह सेन, (7) नारायण और शृंगारगुप्त, । वासवीपाराशरीयम् (रूपक) - ले.- नरसिंहाचार्य स्वामी (जन्म-1842 ईसवी) विजयनगर से सन् 1902 में तेलगु लिपि में प्रकाशित । अंकसंख्या-बारह । प्रथम अभिनय विजयनगर में गजपतिनाथ की उपस्थिति में। धर्मप्रचारात्मक। जैन, बौद्ध, चार्वाक आदि के आख्यानों में साम्प्रदायिक उद्बोधनों की लम्बी चर्चाएं। प्राकृत का अभाव। दूध पिलाती माता, नौकावहन इ. असाधारण संविधान। शृंगार कहीं कहीं अश्लीलता को छूता है। कथासार- अकाल की स्थिति में सभी ब्राह्मण गौतम द्वारा आर्ष कृषि से उत्पन्न भोजन करते रहे। ब्राह्मणों की अनुपस्थिति में गृहस्थों के यज्ञकृत्य बन्द हो जाते हैं। देवताओं को हविर्भाग नहीं मिलता। वे मायाबल से एक गाय गौतम के खेत में भेजते है, जिसे हांकने पर वह मर जाती है। गौतम गोवध के पापी बनते हैं, ब्राह्मण उन्हें छोड चले जाते हैं। अतः गौतम देवताओं को शाप देते हैं। इस संकट
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 329
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