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20) विषय- धृतराष्ट्र द्वारा भीम की लोहमूर्ति को विचूर्णित करने की कथा। अकसंख्या दो। अबदुल्लाचरितम् - लेखक- लक्ष्मीपति। अबोधाकर - कवि तंजौर नृपति तुकोजी भोसले का मंत्री, घनश्याम (ई. 18 वीं शती)। तीन अर्थयुक्त इस काव्य में नल, कृष्ण तथा हरिश्चंद्र का चरित्र वर्णित है। स्वयं कवि ने इस पर टीका लिखी है। अब्दुल्ल-मर्दन - लेखक- सहस्त्रबुद्धे, रचना सन 1933 के लगभग । विषय- छत्रपति शिवाजी द्वारा अफजलखान का वध । अब्धियान-मीमांसा - लेखक-काशी शेष वेङ्कटाचलशास्त्री। अब्धियानविमर्शः - लेखक- एन.एस. वेङ्कटकृष्णशास्त्री। अभंगरसवाहिनी - महादेव पांडुरंग ओक । मूल संत तुकाराम कृत अभंगों में से चुने हुये 63 अभंगों का अनुवाद। 1930 में प्रकाशित।
8) अभिज्ञानशाकुन्तलम् - महाकवि कालिदास का विश्वविख्यात नाटक। ___ संक्षिप्त कथा - इस नाटक के प्रथम अंक में राजा दुष्यन्त मृग का पीछा करते हुए कण्वऋषि के आश्रम की सीव में आ जाता है और कण्वऋषि की अनुपस्थिति में आश्रम में प्रवेश कर, सखियों के साथ आश्रम के पौधे को सींचती हुई शंकुतला से मिलता है। द्वितीय अंक में तपस्वियों की प्रार्थना स्वीकार कर दुष्यन्त राक्षसों से यज्ञ की रक्षा के हेतु आश्रम में ही रहने का निश्चय करता है तथा राजमाता के आवश्यक कार्य के निर्वाह के लिए माधव्य (विदूषक) को हस्तिनापुर भेज देता है। तृतीय अंक में कामपीडिता शकुंतला के द्वारा दुष्यन्त को पत्र लिखने तथा राजा के उसके सामने प्रेमदर्शन की घटना है। चतुर्थ अंक में दुष्यन्त के राजधानी लौट जाने, एवं दुर्वासा द्वारा शकुन्तला को शाप देने की घटना के बाद, कण्वऋषि शकुन्तला के विवाह तथा गर्भवती होने का समाचार जानकर, शंकुन्तला को पतिगृह भेजते हैं। उसके साथ दो ऋषि तथा गौतमी जाती है। पंचम अंक में दुष्यन्त शकुंतला को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करता। मुनिजनों द्वारा धिक्कारने पर रोती हुई शंकुतला को दिव्य ज्योति (मेनका) ले जाती है। षष्ठ अंक में अंगूठी रूपी अभिज्ञान को देखकर राजा शकुन्तला की याद कर व्याकुल होते हैं। बाद में राजा स्वर्ग में इन्द्रसारथि मातलि के साथ देवसहाय के लिए जाते हैं। सप्तम अंक में स्वर्ग से लौटते हुए मरीचि के आश्रम में तपस्विनियों के माध्यम से राजा को अपने पुत्र एवं पत्नी शकुन्तला की प्राप्ति होती है। इस पुनर्मिलन से सभी प्रसन्न होते हैं।
अभिज्ञानशाकुन्तल में अर्थोपक्षोंकों की संख्या 12 है। इनमें 2 विष्कम्भक प्रवेशक और १ चूलिकाएं हैं। यह महाकवि कालिदास का सर्वोत्तम नाटक है। इसमें कालिदास ने 7 अंकों
में राजा दुष्यंत व शकुंतला के प्रणय, वियोग तथा पुनर्मिलन की कथा का मनोरम चित्रण किया है। 'शंकुतला' की मूल कथा महाभारत और पद्मपुराण में मिलती है। इनमें महाभारत की कथा अधिक प्राचीन है। महाभारत की नीरस कथा को कालिदास ने अपनी प्रतिभा एवं कल्पनाशक्ति से सरस तथा गरिमापूर्ण बना दिया है। कालिदास ने दुर्वासा ऋषि का शाप तथा अंगूठी की बात की कल्पना करते हुऐ दो महत्त्वपूर्ण नवीनताएं जोडी हैं। इससे दुष्यंत कामी, लोलुप, भीरु व स्वार्थी न रहकर शुद्ध उदात्त चरित्र वाला व्यक्ति सिद्ध होता है। इस नाटक का वस्तु-विन्यास मनोरम एवं सुगठित है। कालिदास ने विभिन्न प्रसंगों की योजना इस ढंग से की है, कि अंत तक उनमें सामंजस्य बना रहा है। प्रस्तुत नाटक की विविध घटनाएं मूल कथा के साथ संबद्ध हैं और उनमें स्वाभाविकता बनी हुई है। इसमें एक भी ऐसा प्रसंग या दृश्य नहीं जो अकारण या निष्प्रयोजन हो। नाटक के आरंभिक दृश्य का काव्यात्मक महत्त्व अधिक है।
चरित्र-चित्रण की दृष्टि से 'अभिज्ञान शंकुतल' उच्च कोटी का नाटक है। कालिदास ने महाभारत के नीरस व अस्वाभाविक चरित्रों को अपनी प्रतिभा तथा कल्पना से उदात्त एवं स्वाभाविक बनाया है। इनके चरित्र आदर्श एवं उदात्तता से यक्त है. किंत उनमें मानवोचित दुर्बलताएं भी दिखाई गई हैं। इससे वे काल्पनिक लोक के प्राणी न होकर इसी भूतल के जीव बने रहते हैं। राजा दुष्यंत इस नाटक का धीरोदात्त नायक है। इसके चरित्रचित्रण में कालिदास ने अत्यंत सावधानी व सतर्कता से काम लिया है। शंकुतला इस नाटक की नायिका है। महाकवि ने उसके शील-निरूपण में अपनी समस्त प्रतिभा एवं शक्ति को लगा दिया है, यदि शंकुतला के व्यक्तित्व का प्रणय ही यथार्थ बनकर रह गया होता, तो कालिदास भारतीयता के प्रतीक न बन पाते। शंकुतला का व्यक्तिमत्व इस नाटक में
आदर्श भारतीय रमणी का है। अन्य पात्र भी सजीव एवं निजी वैशिष्ट्य से पूर्ण चित्रित हुए हैं।
रस-व्यंजना की दृष्टि से भी इस नाटक का महत्त्व अधिक है। इसका अंगी रस श्रृंगार है जिसमें उसके दोनों रूपों-संयोग व वियोग-का सुंदर परिपाक हुआ है। हास्य, अद्भुत, करुण, भयानक एवं वात्सल्य रस की भी मोहक उर्मियां इस नाटक में कहीं-कहीं सजी हैं।
अभिज्ञान शाकुंतल की भाषा प्रवाहमयी,प्रसादपूर्ण, परिष्कृत, परिमार्जित एवं सरस है। इसमें मुख्यतः वैदर्भी रीति का प्रयोग किया गया है। शैली में दीर्घसमस्त पदों का अधिक्य नहीं है। कालिदास ने अनेक स्थानों पर अल्प शब्दों में गंभीर भावों को भरने का सफल प्रयास किया है और पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करते हुए प्रस्तुत नाटक को व्यावहारिक बना दिया है। इसमें संस्कृत के अतिरिक्त सर्वत्र शौरसेनी प्राकृत
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/11
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